प्रयोगात्मक अनुसंधान-प्ररचना क्या है? इसके आवश्यक तत्व या चरण का वर्णन कीजिये।
प्रयोगात्मक अनुसंधान-प्ररचना (Experimental Research Design)
प्रयोगात्मक अनुसंधान-प्ररचना का उद्देश्य कारणात्मक उपकल्पना (causal hypothesis) का नियंत्रित अवस्था में परीक्षण है। कारणात्मक उपकल्पना दो परिवत्र्त्यो (variables) के बीच कार्य-कारण संबंध बताती है। अर्थात्, एक परिवर्त्य ‘कारण’ के रूप में और दूसरा परिव ‘प्रभाव’ (effect) के रूप में मान लिया जाता है। उदाहरण के लिए, ‘उच्च शिक्षा से सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है।’ या, ‘उच्च आय वाले कर्मचारियों में कार्य-संतुष्टि का स्तर उच्च होता है।
इन उपकल्पनाओं में ‘शिक्षा’ एवं ‘आय’ को कारण के रूप में तथा ‘गतिशीलता’ एवं ‘कार्य-संतुष्टि’ को प्रभाव के रूप में रखा गया है। जो परिवर्त्य अनुमित कारण (assumed cause) के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं, उन्हें अनुसंधान की भाषा में हम स्वतंत्र परिवर्त्य (independent variable) कहते हैं। इसी तरह, अनुमित प्रभाव ( assumed effect) के रूप में प्रस्तुत परिवर्त्य को हम आश्रित परिवर्त्य (dependent varaible) कहते हैं। इसका कारण है कि ‘कारण’ में परिवर्तन पर ‘प्रभाव’ में परिवर्तन निर्भर रहता है और ‘कारण’ स्वयं प्रभाव से स्वतंत्र रूप में परिवर्तित होता है।
प्रयोगात्मक अनुसंधान में कार्य-कारण-संबंध का अध्ययन दशा में किए जाते हैं। प्रयोगात्मक अनुसंधान समाज विज्ञान में प्राकृतिक विज्ञानों से प्रेरित है। प्रयोग में एक या अधिक परिवत्यों (variables) को परिचालित किया जाता है और नियंत्रित दशा में अन्य परिवत्यों में उसके प्रभाव का निरीक्षण किया जाता है। जहोदा आदि (Jahoda et al.) के अनुसार, जब हम प्रमाण संकलन के लिए नियंत्रित दशा में निरीक्षण करते हैं, जिससे कार्य कारण संबंध की व्याख्या की जा सके तब उसे हम प्रयोगात्मक अनुसंधान कहते हैं।
चैपिन (Chapin) के अनुसार, “प्रयोग नियंत्रित दशा में अवलोकन है।”
काज एवं फेस्टिंजर (Katz & Festinger) ने भी लिखा है- “प्रयोग का सार स्वतंत्र परिवर्त्य के परिवर्तन का आश्रित परिवर्त्य पर प्रभाव का निरीक्षण है।”
इस तरह, प्रयोगात्मक अनुसंधान में शोधकर्ता कृत्रिम एवं नियंत्रित प्रयोग-स्थितियाँ भी उत्पन्न कर सकता है और फिर ‘कारण’ माने गए परिवर्त्य में परिवर्तन लाता है, जिसके प्रभाव का अवलोकन वह अन्य आश्रित परिवत्र्यो पर करता है। अपने अवलोकन के आधार पर वह उन प्रमाणों का संग्रह करता है, जिनसे वह परिवर्तित (manipulated) ‘कारक’ के प्रभाव को प्रमाणित कर सके कि उसी ‘कारक’ के प्रभाव में अवलोकित परिवर्तन उत्पन्न हुए हैं (अथवा नहीं उत्पन्न हुए हैं)।
इस तरह, प्रयोगात्मक अध्ययन में दो प्रमुख तत्त्व हैं— (a) नियंत्रण (control) और (b) प्रमाण (evidence)
नियंत्रण (Control) का सामाजिक अनुसंधान में दो अर्थ है। नियंत्रण का एक अर्थ है— एक या अधिक कारकों को स्थिर (constant) रखना एवं अन्य कारकों को परिवर्तित होने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना। जैसे— यदि हम ‘आयु’ को नियंत्रित करते हैं, तो इसका अर्थ हुआ कि 16 से 19 वर्ष की उम्र के व्यक्तियों की तुलना में 20 से 23 वर्ष की उम्र के व्यक्तियों का व्यवहार समान कारक या उद्दीपक (stimulus) के प्रभाव में भिन्न है।
दूसरे अर्थ में, नियंत्रण का अर्थ ऐसे समूह के रूप में लिया जाता है, जिस पर प्रयोग कारक (Experimental variable) का प्रभाव नहीं पड़ने दिया गया है। जैसे— यदि दो समूहों— ‘क’ एवं ‘ख’ में हम ‘नशाखोरी’ का प्रभाव देखना चाहते हैं, तो ‘क’- समूह प्रयोग समूह ( experimental group) एवं ‘ख’ -समूह (जिस पर नशा का कारक नहीं है) नियंत्रित (Control) समूह है।
सामाजिक अनुसंधान में नियंत्रित प्रयोग के लिए निम्नलिखित आवश्यक तत्त्व या चरण हैं-
(i) ऐसी दो परिस्थितियों, समूहों या घटनाओं (एक प्रयोग तथा एक नियंत्रित समूह) का पर्यवेक्षण किया जाता है, जो सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं में समान होते हैं अथवा जिनकी भिन्नताएँ पहले से ही ज्ञात रहती हैं।
(ii) ‘कारण’ समझे जाने वाले कारक को प्रयोग-समूह में ढूँढ़ा जाता है या उनका समावेश कराया जाता है एवं नियंत्रण समूह से उसे हटाया जाता है।”
(iii) इस ‘कारक’ की उपस्थिति या अनुपस्थिति के प्रभाव का पर्यवेक्षण प्रयोग एव नियंत्रित दोनों प्रकार के समूह पर किया जाता है।
प्रयोग-समूह में शोधकर्ता अपनी उपकल्पना के परीक्षण के लिए ‘भिन्नता के सिद्धान्त’ ( cannon of difference) प्रयोग करता है, अर्थात् किसी भी कारक को अन्य घटना के कारण के रूप में तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता, जब तक यह सिद्ध न कर दिया जाए कि जहाँ कहीं भी यह कारक घटित होगा, वहीं यह घटना भी घटित होगी। अर्थात् जहाँ कारक होगा, वहीं . प्रभावित घटना भी होगी।
नियंत्रित समूह में शोधकर्ता उपकल्पना की जाँच सहमति के सिद्धान्त’ (cannon of agreement ) पर करता है, जिसका अर्थ है कि कोई भी कारक किसी घटना के कारण के रूप में तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जब तक यह न देखा जाए कि जहां कहीं भी घटना घटित होती है, कारक भी विद्यमान रहता है। अर्थात्, जहाँ-जहाँ घटना होती है, वहाँ-वहाँ कारक रहता है।
नियंत्रित एवं प्रयोग समूह के निर्माण के लिए आवश्यक है कि वे दोनों अधिक-से अधिक विशेषताओं में समान हो। सामाजिक अनुसंधान में प्रयोगशाला या टेस्टट्यूब द्वारा नियंत्रण नहीं किया जा सकता है। इसके लिए दो समान समूहों का चुनाव किया जाता है। ये समूह प्रत्येक रूप से समान होते हैं, केवल एक में वह कारक उपस्थित रहता है या उपस्थित कराया जाता है, जिसके प्रभाव का अध्ययन करना है। जिसमें यह ‘कारक’ उपस्थित कराया जाता है, यह प्रयोग समूह (experimental group) कहलाता है और दूसरा नियंत्रित समूह (controlled group)।
सामाजिक विज्ञान में दो समूहों में इस समानता या नियंत्रण को उत्पन्न करने के लिए दो प्रमुख विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं-
(i) सादृश्यीकरण (Matching ) – दो परिस्थिति या समूहों में समानता स्थापित करने के लिए दोनों प्रकार के समूहों (नियंत्रित एवं प्रयोग समूहों) की विभिन्न इकाइयों या व्यक्तियों की तुलना कर कुछ विशेषताओं के आधार पर समानता स्थापित की जाती है। शोधकर्ता ऐसे समूहों का चुनाव करता है जिसके प्रत्येक सदस्य कुछ विशेषताओं; जैसे— उम्र, जाति संख्या, अनुभव आदि में दूसरे समूह के सदस्यों के समान हैं। संभवतः, इस तरह की पद्धति समानता स्थापित करने की दृष्टि से सबसे कठिन विधि है और ज्यों-ज्यों विशेषताओं की संख्या (जिनके आधार पर सादृश्यीकरण करना है) बढ़ती है, यह कठिनाई और भी बढ़ती जाती है। यह वैयक्तिक सादृश्यीकरण पद्धति (individual matching) कहलाती है।
इस पद्धति की दूसरी कठिनाई यह भी है, जैसा जहोदा आदि ने कहा है कि यद्यपि कुछ विशेषताओं के आधार पर दो समूहों के सदस्यों के बीच समानता स्थापित कर ली जा सकती है, तथापि सभी विशेषताएँ मिलकर दोनों समूहों में अंतर उत्पन्न कर सकती हैं, इसीलिए सादृश्यीकरण की दूसरी विधि प्रयोग में लाई जाती है। उसे समूह-वितरण सादृश्यीकरण (group distribution matching) कहते हैं। इसके अंतर्गत कुछ संबद्ध विशेषताओं (जैसे― उम्र, शिक्षा, सामाजिक आर्थिक स्तर, किसी विशेष समस्या के प्रति मनोवृत्ति, स्तर आदि) का पहले चुनाव कर लिया जाता है और ऐसे दो समूह प्राप्त किए जाते हैं, जो इन विशेषताओं की दृष्टि से लगभग समान हो। अर्थात् दोनों समूहों की प्रत्येक इकाई में समानता स्थापित न करके ‘विशेषताओं के वितरण में समानता देखी जाती है। उदाहरण के लिए, यदि ऐसे दो समूह ‘क’ एवं ‘ख’ हैं, दो दोनों में औसत उम्र क्रमश: 35.3 और 35.7 वर्ष; स्त्री/पुरुष अनुपात क्रमशः 41/69 एवं 43/67 हो और इसी तरह अन्य कई विशेषताओं के आधार पर यह समानता देखी जा सकती है।
(ii) यादृच्छीकरण (Randomisation)— यादृच्छिक (random) पद्धति से नियंत्रित एवं प्रयोग समूह का निर्धारण यद्यपि अत्यंत विश्वसनीय विधि नहीं है, तथापि समाज विज्ञान में एक प्रचलित विधि है, क्योंकि शोधकर्ता को प्रायः अपने समग्र या समूह के बारे में पूर्व जानकारी नहीं होती है।
यादृच्छीकरण की दो विशेषताएँ हैं— (क) समूह की सभी इकाइयों को किसी भी विभाग में बराबर-बराबर सम्मिलित होने का अवसर एवं (ख) निष्पक्ष चयन-पद्धति; क्योंकि शोधकर्ता की रुचि या झुकाव का इस प्रकार के चुनाव पर प्रभाव नहीं पड़ता।
यादृच्छीकरण-प्रक्रिया में शोधकर्ता समग्र से यादृच्छिक पद्धति द्वारा इकाई को चुनकर दो समूहों का निर्माण करता है- एक नियंत्रित समूह एवं दूसरा प्रयोग समूह। इस पद्धति में यह विश्वास किया जाता है कि चयनकर्ता (या शोधकर्ता) द्वारा कोई पक्षपात संभव नहीं है। उदाहरण के लिए, स्नातकोत्तर समाजशास्त्र के 100 छात्रों को यादृच्छिक ढंग से 50-50 के दो समूह में बाँट दिया जा सकता है, इस अनुमान के साथ कि वे समान होंगे (भले ही, वास्तव में वे समान नहीं हों)।
प्रयोगात्मक प्ररचना में कारण-प्रभाव के प्रमाण (evidence) के लिए प्रयोग-समूह एवं नियंत्रित समूह की तुलना की जाती है और यह अनुमित किया जाता है कि प्रयोग-समूह में उत्पन्न प्रभाव या परिवर्तन उस ‘कारक’ के कारण है, जो नियंत्रित समूह में तो अनुपस्थित है, किन्तु प्रयोग-समूह में है। चूँकि दोनों समूह प्रत्येक दृष्टि से समान हैं, और प्रयोग-समूह में एक विशेष कारक को उपस्थित कर दिया गया है, इसलिए उत्पन्न अंतर उस कारक के प्रभाव के कारण माना जा सकता है।
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