प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन के स्रोत | Sources of Ancient Indian Political Thought
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन के प्रमुख स्रोत निम्नवत है-
- (अ) प्राचीन भारतीय साहित्य,
- (ब) विदेशी स्रोत,
- (स) पुरातत्व सामग्री ।
(अ) प्राचीन भारतीय साहित्य- इसके अन्तर्गत प्राचीन वैदिक साहित्य, ब्राह्मण साहित्य, उपनिषद, महाकाव्य, पुराण, स्मृतियाँ, बौद्ध और जैन साहित्य, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि आते हैं।
(1) वैदिक साहित्य- वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं, जिनकी संख्या चार है- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इन वेदों में राज्य और शासन की उत्पत्ति, राजतंत्र की व्यवस्था, राजा का अधिकार तथा कर्तव्य, मंत्रिपरिषद का संगठन और उनके कार्य तथा शासन की नीति आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में विशेष रूप से आर्यों का प्रसार और उनके द्वारा स्थापित राज व्यवस्था और द्रविड़ों से संघर्ष आदि का वर्णन मिलता है।
(2) ब्राह्मण और उपनिषद्- ब्राह्मण साहित्य में ऐतरेय, पंचविश, शतपथ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। ऐतरेय से प्राचीन राजाओं के राज्याभिषेक की व्यवस्था का; शतपथ से गान्धार, कैकय, कुरु, विदेह, कौशल राज्यों की व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है, उपनिषदों से हमें राजा परीक्षित से राजा बिम्बसार के काल तक के इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है।
(3) रामायण और महाभारत- महाभारत का स्वरूप अर्द्ध-पौराणिक तथा अर्द्ध ऐतिहासिक है। महाभारत शान्तिपर्व में राज्य और सरकार का उल्लेख मिलता है। इससे राजशास्त्र की विकास परम्परा पर प्रकाश पड़ता है। महाभारत में अनेक राज्यशास्त्रियों का नमोल्लेख भी आया है। जैसे- ‘विशालाक्ष, इन्द्र, बृहस्पति, मनु, शुक्र, भारद्वाज, गरशिरा, कश्यप, वैश्रवण, कामवेश, शम्बर, कालक, वृक्षीय, उतथ्य, बसुलोम, कामन्दक, कीर्तिमान, कर्दम, मतंग, अतिबल, वैण्य, परीक्षित, कात्य और योगाचार्य आदि। इसके अतिरिक्त महाभारत में राजधर्म खण्ड एक अलग अध्याय है। सभापर्व में आदर्श प्रशासन की कल्पना की गयी है।
(4) पुराण- महाकाव्यों के पश्चात् भारतीय राज्य व्यवस्था पर 18 पुराणों में भी प्रकाश डाला गया है। विष्णु पुराण में मौर्यवंश, मत्स्य पुराण में आन्ध्रवंश, वायुपुराण में गुप्तवंश आदि का विशद वर्णन किया गया है। पुराणों में राजनीतिक विचार अव्यवस्थित रूप में प्राप्त होते हैं। इनमें अग्निपुराण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें राजा और शासक के कर्तव्य, अधिकार, युद्धकौशल, कर, न्यायव्यवस्था आदि का उल्लेख किया गया है और राजा का प्रधान कर्त्तव्य जनकल्याण बताया गया है।
(5) बौद्ध और जैन ग्रन्थ- बौद्ध ग्रन्थ ‘मुक्त पिटक’, ‘अभिधम्म पिटक’ में धार्मिक व्यवस्था के साथ-साथ राज्य व्यवस्था का भी वर्णन प्राप्त होता है। अनेक जातकों से तत्कालीन राजाओं की निरंकुशता तथा राज्य व्यवस्था का पता चलता है। इनमें राजाओं की नियुक्ति, वंशानुगत व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि का वर्णन प्राप्त होता है। जैन साहित्य में आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित ‘परिशिष्ट पर्वन्’ ग्रन्थ में मौर्यकाल का विस्तृत वर्णन मिलता है। आदिपुराण में उस समय की राजनीतिक व्यवस्था, संस्था तथा विचारों का विशेष उल्लेख है।
(6) कौटिल्य का अर्थशास्त्र- राजशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ का स्थान राजनीतिक ग्रन्थों में सर्वोच्च और विशिष्ट है। इसके अन्दर जिन राजनीतिक सिद्धान्तों का समावेश है, वे धर्मशास्त्रों के प्रभाव से अछूते रहे हैं। कौटिल्य के कथनानुसार “पृथ्वी के लाभ तथा पालन के प्रयोजन से जो अर्थशास्त्र पहले के आचार्यों के द्वारा लिखे गये थे, उन सबका संग्रह करके तथा उनका सार ग्रहण करते हुए इस ग्रन्थ अर्थशास्त्र की रचना की गयी है।” कौटिल्य ने राजनीति के क्षेत्र में जिन विद्वानों की प्रशंसा की है, वे हैं- भारद्वाज, विशालाक्ष, पराशर, पिशुन, कौणयदन्त, वाताव्याधि, बाहुदन्ती पुत्र, कार्णङ्क भारद्वाज, कात्यायन, छोटमुख, दीर्घचारायण, पिशुनपुत्र और किञ्जक। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजनीति से सम्बन्धित 5 मुख्य सम्प्रदायों का भी वर्णन किया है। यह सम्प्रदाय इस प्रकार हैं- मानव, बार्हस्पत्य, औशनस, पराशर और अम्मीय। ये सभी तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि प्राचीनकाल में मानव की विचारधारा के विकास के साथ ही इन सम्प्रदायों का विकास होता गया।
(7) मनु तथा याज्ञवल्क्य की स्मृतियाँ- अर्थशास्त्र की रचना हो जाने के पश्चात् दीर्घकाल तक हिन्दू साहित्य में राजनीति विषय पर कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं लिखा गया है। एक तो यह सम्भव है कि ‘ अर्थशास्त्र’ जैसी पूर्ण रचना के कारण विद्वानों ने आवश्यक ही न समझी हो या लिखने का साहस ही न पाया हो। 200 ई. तक रचित मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति में भी राजा के कर्त्तव्य एवं उसके दण्ड विधान का विशद रूप में वर्णन किया गया है। यह विवेचना साधारण व्यवहार के लिए पर्याप्त एवं उचित थी ।
(8) कामन्दकीय नीतिसार- वास्तव में यह ग्रन्थ कौटिल्य के ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ का एक प्रकार से संक्षेपीकरण था। प्रो. अल्तेकर के अनुसार, “कामन्दकीय नीतिसार कौटिल्य के अर्थशास्त्र का सार मात्र है।” इसकी रचना 400-500 ई. के लगभग मानी जाती है।
(9) शुक्रनीति- यह ग्रन्थ भी राजनीति से सम्बन्धित सभी ग्रन्थों में एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। अर्थशास्त्र की तरह इसमें राजनीति का परिपुष्ट वर्णन उपलब्ध होता है। यद्यपि शुक्रनीति नामक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तो भी इस ग्रन्थ को शुक्र की नीति का सार कहा जाता है। वर्तमान में उपलब्ध संकलन में चार अध्याय हैं। महाभारत में इसे 1000 अध्यायों वाला कहा गया है। दण्डनीति तथा नृपतंत्र की इसमें विशद व्याख्या है। शासन व्यवस्था का उल्लेख करते समय इसमें लगभग सभी राजकर्मचारियों के कार्यों का विवेचन किया गया है। शुक्र के मतानुसार राजा को चाहिए कि वह प्रजा के हित को सर्वोपरि समझे और इसलिए प्रत्येक राजा के लिए विद्यालयों एवं चिकित्सालयों की व्यवस्था करनी चाहिए। राजा को चाहिए कि वह प्रजा की सर्वांगीण उन्नति करे। उसकी प्रगति की ओर बढ़ने को प्रोत्साहित करे।
उपरोक्त के अतिरिक्त राजनीतिक रत्नाकर, मानसोल्लास, युक्ति, कल्पतरू, राज कल्पतरू आदि प्रमुख रचनायें हैं जिनसे प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तन पर प्रकाश पड़ता है।
(ब) विदेशी स्त्रोत- भारत की प्राचीन राजनीतिक व्यवस्था पर विदेशी यात्रियों और लेखकों ने भी समुचित रूप से प्रकाश डाला है। सिकन्दर से पूर्व स्काइलैक्स, हैसीडोट्स और ट्रेसियम आदि उल्लेखनीय हैं परन्तु इन लेखकों ने कभी भारत की यात्रा नहीं की अतः उनका भारत की राजनीतिक व्यवस्था सम्बन्धी विवरण उपयोगी नहीं है। सिकन्दर के साथ आने वाले लेखकों और विद्वानों में निर्याकस और अरिस्टोबुल्स आदि हैं, जिनका वर्णन राजनीतिशास्त्र के ज्ञान के लिए आवश्यक है। निर्याकस और अरिष्टबुलस की पुस्तक युद्ध का इतिहास का वर्णन एरियन और प्लूटॉर्क के ग्रन्थों में भी मिलता है। सिकन्दर के पश्चात् आने वाले यात्रियों में मेगस्थनीज सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में चन्द्रगुप्त मार्य की शासन व्यवस्था का उपयोगी वर्णन किया है। चीनी यात्री फाह्यान, ह्वेनसाँग तथा ईत्सिंग आदि हैं। तिब्बती साहित्य (लामा तारानाथ का विवरण), मुगल इतिहासकार अलबरूनी की रचना ‘तहकीक-ए-हिन्द’ अनेक विदेशी रचनाओं से भारतीय राजशास्त्र पर व्यापक प्रकाश पड़ता है।
(स) पुरातत्व सामग्री- प्राचीन अभिलेख, ताम्रपत्र और मुद्राएँ भी राजनीतिक चिन्तन की जानकारी करने के प्रमुख साधन हैं। इनसे भारत की प्राचीन कर व्यवस्था, शासन व्यवस्था, पड़ोसी राज्य के साथ सम्बन्ध, राज्य अधिकारियों के कार्य तथा दायित्व आदि अनेक तथ्यों का ज्ञान होता है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की खुदाई से भारत की जनतंत्रात्मक व्यवस्था का ज्ञान होता है। गुफा लेख, शिलालेख, ताम्रलेख आदि के द्वारा भी भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर उचित प्रकाश पड़ता है। अशोक के अभिलेख, हाथी गुम्फा, जूनागढ़, गुप्तकालीन राजाओं, चोल राजाओं, हर्ष साम्राज्य आदि के अभिलेख भी प्राचीन राजशास्त्र के ज्ञान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इसी प्रकार खुदाई में प्राप्त सिक्कों से भी प्राचीन काल की राजनीतिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि हिन्दू संस्कृति के बोधक ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर प्राचीन भारतीय राजनीति के तत्व बिखरे पड़े हैं। वैदिक संस्कृत तथा प्राकृत लेख राजशास्त्र के विविध पक्षों पर प्रकाश डालते हैं। वास्तव में अर्थशास्त्र, महाभारत, जातक ग्रन्थ, राजनीति रत्नाकर, वीर मित्रोदय, राजनीति ममूख इस काल की उपलब्ध रचनायें हैं, विविध विसंगतियों से भारतीय साहित्य का बहुत हिस्सा आक्रामकों ने नष्ट कर दिया है, संभव है कि अन्य उपयोगी ग्रंथ रहे हों। नीति एवं धर्म से सम्बन्धित ग्रन्थ भी राजनीति पर अच्छा प्रकाश डालते हैं।
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