राजनीति विज्ञान / Political Science

भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण | Reasons for the rise of nationalism in India in Hindi

भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण | Reasons for the rise of nationalism in India in Hindi
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण | Reasons for the rise of nationalism in India in Hindi

भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण | Reasons for the rise of nationalism in India

भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण- भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा का अंकुर सत्रहवीं शताब्दी के मध्य से उगने लगा था किन्तु यह धरी-धीरे विकति होता रहा अंत में 1857 ई में पूर्ण हो गया। अतः भारतीय राष्ट्रीय जागृति का काल उन्नीसवीं शताब्दी का मध्य मानना उचित हो होगा। भारत के राष्ट्रवाद के जन्म के कारण जो राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ हुआ वह विश्व मे अपने आप में एक अनूठा आन्दोलन था भारत में राजनीतिक जागृति के साथ-साथ सामाजिक तथा धर्मिक जागृति का भी सूत्रपात हुआ। वास्तव में सामाजिक तथा धर्मिक जागृति परिणामस्वरूप राजनीतिक जागृति का उदय हुआ। डॉ. जकारिया का मत है कि “भारम का जुनर्जागरण मुख्यतः आध्यात्मिक था। इसने राष्ट्र के राजनीतिक उद्धार के आन्दोलन का रूप धारक करने से बहुत पहले अनेक धार्मिक और समाजिक सुधारों का सूत्रपात किया” इस रूप में भारतीय राष्ट्रीय जागृति यूरोपीय देशों में हुई राष्ट्रीय जागृति से भिन्न है। भारत में राष्ट्रवादी विचारों के उदय और विनाश के लिए निम्नलिखित कारण माने जाते है।

1. सामाजिक तथा धार्मिक आन्दोलन – भारत में राष्ट्रीय जागृति पैदा करने में 19 वीं शताब्दी में हुए सामाजिक तथा धर्मिक आन्दोलनों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। देश की सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियाँ दिन-प्रतिदिन बिगड़त जा रही थी और धर्म के नाम पर समाज में अन्धविश्वास और कुप्रथाएँ पैदा हो गई थी। इन आन्दोलनों ने एक और वर्म तथा समाज में व्याप्पत बुराईयों को दूर करने का प्रयास किया तो दूसरी ओर भारत में राष्ट्रयता की भाव भूमि तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रकार के आन्दोलनों में ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन एवं थियोसोफिकल सोसायटी आदि विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं. जिसके प्रवर्तक क्रमशः राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, एवं श्रीमती एनी बेसेन्ट आदि थे। इन सुधारकों ने भारतीयों में आत्मविश्वास जागृत किया तथा इन्हें भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा का ज्ञान कराया, उन्हें अपनी संस्कृति की श्रेष्ठाता के बारे में पता चला।

इन महान व्यक्तियों में राजा राम मोहन राय को भारतीय राष्ट्रीयता का अग्रदूत कहा जा सकता है। उन्होंने समाज तथा धर्म में व्याप्त बुराईयों को दूर करने हेतु अगस्त 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा छुआ-छूत, जाति में भेदभाव एवं मूर्ति पूजा आदि बुराईयों को दूर करने का प्रयास किया। उनके प्रयासों के कारण आधुनिक भारत का निर्माण सम्भव हो सका। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। डॉ० आर० सी0 मजूमदार ने लिख है कि राजा राममोहन राय को बेकन तथा मार्टिन लूकर जैसे प्रसिद्ध सुधारकों की श्रेणी में गिना जा सकता है। ए० सी० सरकार तथा के० के० दत्त का मानना है कि राजा राम मोहन राय के आधुनिक भारतवर्ष में राजनीतिक एवं जागृति वर्म सुधार का आध्यात्मिक युग प्रारम्भ किया वे एक युग प्रवर्तक थे। इसलिए डा० जकारिया ने उन्हें सुधारको का आध्यात्मिक पिता कहा है। बहुत से विद्वान उन्हें ‘आधुनिक भारत का पिता’ तथा ‘नये युग का अग्रदूत मानते हैं। राजा राममोहन राय ने भारतीयों के लिए राजनीतिक अधिकारों की मांग की। -1823 ई० में प्रेस आर्डिनेन्स के द्वारा समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इस पर राजा राममोहन राय ने इस आर्डिनेन्स का प्रबल विरोध किया और उसे रद्द का करवाने का हर सम्भव प्रसास किया इसके पश्चात उन्होनें ज्यूरी एक्ट एक का आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। डॉ० आर० सी0 मजूमदार के शब्दों में ‘राजा राममोहन राय’ पहले भारतीय थे जिन्होंने अपने देशवासियों की कठिनाई तथा शिकायतों को ब्रिटिश सरकान के सम्मुख प्रस्तुत किया और भारतीयों को संगठित होकर राजनीतिक आन्दोलन चलाने का मार्ग दिखलाया उन्हें आधुनिक आन्दोलन का अग्रदूत होने का भी श्रेय दिया जा सकता है। राजा राममोहन राय के बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती एक महान सुधारक हुए। जिन्होंने 1875 ई0 में बम्बई में ‘आर्य समाज’ की नीव रखी। आर्य समाज एक साथ ही धार्मिक एवं राष्ट्रीय नवजागरण का आन्दोलन था। इसने भारत और हिन्दू जाति को नवजीवन प्रदान किया। स्वामी दयानन्द ने केवल हिन्दू धर्म तथा समाज में व्याप्त बुराईयों का विरोध किया अपितु देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार भी किया। उन्होंने ईसाई धर्म की कमियों पर प्रकाश डाला और हिन्दू धर्म के महत्व का बखान कर भारतीयों का ध्यान अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की ओर आकर्षित किया। उन्होनें वैदिक धर्म की श्रेष्ठता को फिर से स्थापित किया और यह बताया कि हमारी संस्कृति विश्व की प्राचीन संस्कृति है। उनका मानना है कि वेद ज्ञान के भण्डार है और संसार में सच्चा हिन्दू धर्म है, जिसके बल पर भारत विश्व में अपनी प्रतिष्ठा फि र से स्थापित कर गुरू बन सकता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में निर्भिकतापूर्वक लिखा है- विदेशी राज्य चाहें वह कितना ही अच्छा क्यों न हो, स्वदेशी राज्यकी तुलना में कभी भी अच्छा नहीं हो सकता। एच० बी० शारदा ने लिखा है कि- राजनीतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति स्वामी दयानन्द का मुख्य उद्देश्य था। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ‘स्वराज शब्द का प्रयोग किया और अपने देशवासियों को विदेशी माल के प्रयोग के स्थान पर स्वदेशी माल के प्रयोग की प्रेरणा देते दी। उन्होनें सबसे पहले हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा स्वीकार किया। श्रीमती एनी बेसेन्ट ने लिखा है- स्वामी दयानन्द सरस्वती पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सबसे पहले वह नारा लगाया था कि भारत भारतीयों के लिए है।

स्वामी विवेकानन्द ने यूरोप और अमेरिका में भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। उन्होंने अंग्रेजों को यह बता दिया कि भारतीय संस्कृति पश्चिमी संस्कृति से महान है और वे बहुत कुछ भारतीय संस्कृति से सीख सकते है। इस प्रकार उन्होंने भारत में सांस्कृतिक चेतना जागृत की यहां के लोगों को सांस्कृतिक विजय प्राप्त करने की प्रेरणा दी। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारत का स्वतंत्र होना आवश्यक है। इस प्रकार उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक स्वाधीनता का समर्थन किया जिससे राष्ट्रीय भावानाओं को असाधारण बल मिला। भगिनी निवेदिता के अनुसार स्वामी विवेकानन्द भारत का नाम लेकर जीते थे। वे मातृभूमि के अनन्य भक्त थे और उन्होंने भारतीय युवकों को उसकी पूजा करना सिखाया।

थियोसोफिकल सोसाइटी की नेता श्रीमती एनी बेसेन्ट ने भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। श्रीमती एनी बेसेन्ट एक विदेशी महिला थीं, जब उसके मुँह से भारतीयों ने हिन्दू धर्म की प्रशंसा सुनी तो वे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। जब उन्हें अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ तो उन्होंने अंग्रेजों के विरूद्ध स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया।

सारांश यह है कि 19 शताब्दी के सुधारकों ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न की। उन्होंने ऐसा वातावरण तैयार किया जिसके भारत स्वतंत्रत के लक्ष्य को प्राप्त कर सका। ए. आर. देसाई ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि ये आन्दोनल कम अधिक मात्रा में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष थे और उनका चरम लक्ष्य राष्ट्रवाद था।

( 2 ) भारत की राजनीतिक एकता- 1707 ई0 के बाद भारत में राजनीतिक एकता का लोप हो चुका था किन्तु अंग्रेजों के समय लगभग सम्पूर्ण भारत का प्रशासन एक केन्द्रीय सत्ता के अधीन आ गया था। समस्त साम्राज्य में एक जैसे कानून लागू किये गए। समस्तु भारत पर ब्रिटिश सरकार का शासन होने से भारत एकता के सूत्र में बंध गया। इस प्रकार देश में राजनीतिक एकता स्थापित हुई। यातायात के साधनों एवं अंग्रेजी शिक्षा ने इस एकता के नींव को और अधिक ठोस बना दिया जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। इस प्रकार राजनीतिक दृष्टि से भारत एक रूप हो गया। डॉ० के० वी० पुन्निया के शब्दों में “हिमालय से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत एक सरकार के अधीन था और इसमें जनता में राजनीतिक एकता को जन्म दिया।”

(3) ऐतिहासिक अनुसंधान- विदेशी विद्वानों की खोंजो ने भी भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया।

सर विलियम जोन्स मैक्समूलर, (जैकोवी कोल ब्रुक, ए.वी. कीथ, बुनर्फ आदि विदशी विद्वानों ने भारत की संस्कृति भाषा में लिपिबद्ध ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन किया और उनका अंग्रेजी अनुवाद किया। अंग्रेजों द्वारा संस्कृत साहित्य को प्रोत्साहन देने से संस्कृत भाषा का पुनरुद्धार हुआ।

इसके अतिरिक्त, पाश्चचात्य विद्वानों भारतीयों ग्रन्थों का अनुवाद करने के पश्चात यह ‘बताया कि ये ग्रन्थ संसार की सभ्यता की अमूल्य निधियाँ है। पश्चिमी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय कलाकृतियों की खोज करने के पश्चात यह मत व्यक्त किया है कि भारत की सभ्यता और

संस्कृति विश्व की प्राचीन और श्रेष्ठ संस्कृति है। इससे विश्व के सम्मुख प्राचीन भारतीय गौरव उपस्थित हुआ। जब भारतीयों को पता चला कि पश्चिम के विद्वान भारतीय संस्कृति को इतना श्रेष्ठ बताते है, तो उनके मन में आत्महीनता के स्थान पर आत्मविश्वास की भावनाएँ जागृत हुई। और उन्होंने उसकी श्रेष्ठाता स्थापित करने का प्रयत्न किया। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा स्वामी विवेकानन्द ने भी भारतीयों को उनकी संस्कृति की महानता के ज्ञान से अवगत कराया। इन अनुसंधानों ने भारतीयों के मन में एक नया ज्ञान और उत्साह जागृत किया। इससे उनके मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि फिर हम पराधीन क्यों है?

डॉ. आर.सी. मजूमदार के कथानुसार “यह खोज भारतीयों के मन में चतेना उत्पन्न करने में असफल नहीं हो  सकती थी, जिसके परिणामस्वरूप उसके हृदय राष्ट्रीयता की भावना व देश भक्ति से भर गए।” श्री के एम पाणिक्कर लिखते है कि इन ऐतिहासिक अनुसंधानों ने भारतीयों में आत्म विश्वास जागृत किया और उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना सिखलाया। इन खोजों से अपने भविष्य के सम्बन्ध में भारतीय आशावादी बन गए।

(4). पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव- भारतीय राष्ट्रीयधारा में पश्चिमी शिक्षा ने सराहनीय योगदान दिया। 1825 ई0 में लार्ड मैकाले के सुझाव पर भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को निश्चित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य भारत की राष्ट्रीय चेतना को जड़ से नष्ट करना था। रजनी पाम दत्त सही लिखा है, “भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा पाश्चचात्य शिक्षा प्रारम्भ किये जाने का उद्देश्य यह था कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण रूप से लोप हो। जाए और एक ऐसे वर्ग का निर्माण हो जो रक्त और वर्ण से तो भारतीय हो, किन्तु रूचि विचार शब्द और बुद्धि से अंग्रेज हो जाए”। इस उद्देश्य में अंग्रेजों को काफी सीमा तक सफलता भी प्राप्त हुई, क्योंकि शिक्षित भारतीय लोग अपनी संस्कृति को भूलकर पाञ्चचात्य संस्कृति गुणगान करने लगे। परन्तु पाश्चात्य शिक्षा से भारत को हानि की अपेक्षा लाभ अधिक हुआ। इससे भारत में राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई अतः पाश्चात्य शिक्षा भारत के लिए एक वरदान साबित हुई।

अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण भारतीय विद्वानों ने पश्चिमी देशों के साहित्य का अध्ययन किया। जब उन्हें मिल्टन, बर्क, हरबर्ट स्पेन्सर, जॉन स्टुअर्ड मिल आदि विचारकों की कृतियों का ज्ञान प्राप्त हुआ, तो उनमें स्वतंत्रता की भावना जागृत हुई। भारतीयों पर पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव का वर्णन करते हुए ए. आर. देसाई लिखते है कि, “शिक्षित भारतीयों ने अमेरिका, इटली और आयरलैण्ड स्वतंत्रता संग्राम के सम्बन्ध में पढ़ा। उन्होंने ऐसे लेखको की रचनाओं का अनुशीलन किया, जिन्होनें व्यक्तिगत और राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों का प्रचार किया है। ये शिक्षित भारतीय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के राजनीतिक और बौद्धिक नेता हो गए।’ इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि राजा राममोहन राय, दादा भाई नौरोजी, फिरोज शाह मेहता, गोपाली कृष्ण गोखले, उमेश चन्द्र बनर्जी आदि नेता अंग्रेजी शिक्षा की ही देन है। अंग्रेजी शिक्षा के कारण भारतीय नेताओं के दृष्टिकोण का विकास हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेक भारतीय इग्लैण्ड गये और वहाँ के स्वतंत्र वातावरण से बहुत प्रभावित हुए। भारत आने के पश्चात उन्होंनें राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रोत्साहन दिया क्योंकि वे यूरोपीय देशों की भाँति अपने देश में भी स्वतंत्रता चाहते थे। श्री गुरुमुख निहाल सिंह लिखते है कि “इग्लैण्ड में रहने से उन्हें स्वतंत्र राजनीतिक संस्थाओं की कार्यविधि का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त हो जाता था, वे स्वतंत्रता और स्वाधीनता का मूल्य समझ जाते थे तथा उनके मन में जमी हुई दासता की मनोवृत्ति घर का जाती थी।”

अंग्रेजी भाषा लागू होने से पूर्व भारत के विभिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोली जाती थी। इसलिए वे एक-दूसरे के विचारों के नहीं समझ सकते थे। सम्पूर्ण भारत के लिए एक सम्पर्क भाषा की आवश्यकता थी, जिसे अंग्रेज सरकार ने अंग्रेजी लागूकर पूरा कर दिया। अब विभिन्न प्रान्तों के निवासी आपस में विचार विनियम करने लगे और उन्हें राष्ट्र के लिए मिलकर कार्य करने की प्रेरणा दी। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। सर हेनरी काटन के अनुसार ” अंग्रेजी माध्यम से और पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर शिक्षा ने ही भारतीयों लोगों की विभिन्नताओं के होते हुए भी एकता के सूत्र में आबद्ध करने का कार्य किया। एकता पैदा करने वाला अन्य कोई तत्व सम्भव नही था, क्योंकि बोली का भ्रम एक अविछिन्न बाधा थी। श्री के.एम. पणिक्कर लिखते है,” सारे देश की शिक्षा पद्धति और शिक्षा का माध्यम एक होने से भारतीयों की मनोदशा पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनके विचारों, भावनाओं और अनुभूतियों की एक रसता होनी कठिन रही। परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीयता दिन प्रतिदिन प्रबल होती गई।”

सारांश यह है कि पाश्चात्य शिक्षा भारतीयों के लिए वरदान साबित सिद्ध हुई। डॉ. जकारिया ने ठीक ही लिखा है, “अंग्रेजों ने 125 वर्ष पूर्व भारत में शिक्षा को जो कार्य आरम्भ किया था, उससे अधिक हितकर और कोई कार्य उन्होंने भारतवर्ष में नहीं किया है।” इसलिए प्रायः यह कहा जाता है कि भारतीय राष्ट्रीयता की भावना पश्चिमी शिक्षा का पोषण शिशु था।

इस प्रकार पश्चिमी शिक्षा ने भारतीय राष्ट्रीय चेतना में नवजीवन का संचार किया। लार्ड मैकाले ने 1833 ई० में कहा, अंग्रेजी इतिहास में वह गर्व का दिन होगा जब पाश्चात्य ज्ञान से शिक्षित भारतीय पाश्चात्य संस्थाओं की माँग करेंगे।” उसका यह स्वप्न इतनी जल्दी साकार हो जाएगा इसकी कल्पना भी उसने कभी न की थी।

( 5 ) भारतीय समाचार-पत्र तथा साहित्य- मुनरो ने लिखा है, एक स्वतंत्र प्रेस और विदेशी राज एक दूसरे के विरूद्ध हैं और ये दोनों एक साथ नही चल सकते। भारतीय समाचार पत्रों पर यह बात खरी उतरती है। राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति तथा विकास में भारतीय साहित्य तथा समाचार पत्रों का भी काफी हाथ था। इनके माध्यम से राष्ट्रवादी तत्वों को सत्य प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता रहा। उन दिनों भारत में विभिन्न भाषाओं में समाचार पत्र प्रकाशित होते थे, जिनमें राजनीतिक अधिकारों की माँग की जाती थी। इसके अतिरिक्त उनमें ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति की भी कड़ी आलोचना की जाती थी। उस समय प्रसिद्ध समाचार पत्रों में सवाद् कौमुदी, बाम्बे समाचार (1882), बंगदूत (1831), गुस्तगुफ्तार (1851), अमृतबजार पत्रिका (1868), ट्रिब्यून (1877), इण्डियन मिरर, हिन्दू पैट्रियाट, बंगलौर, सोमप्रकाश, कामरेड, न्यू इण्डियन केसरी, आर्य दर्शन एवं बन्धवा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। फिलीप्स के अनुसार, 1871 ई0 में देशी भाषा में बम्बई प्रेसीडेन्सी और उत्तर भारत में 62 तथा बंगाल और दक्षिण भारत में क्रमश: 28 और 20 समाचार पत्र प्रकाशित होते थे, जिनके नियमित पानकों की संख्या एक लाख थी। 1877 ई० तक देश में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों की संख्या 644 तक जा पहुँची थी, जिनमें अधिकतर देशी भाषाओं के थे। इन समाचार पत्रों में ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीति की कड़ी आलोचना की जाती थी, ताकि जन साधारण में ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा एवं असन्तोष की भावना उत्पन्न हो। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिलता था। इन पत्रों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1878 ई0 में ‘वर्नाक्यलर प्रेस एक्ट’ पास किया, जिसके द्वारा भारतीय समाचार पत्रों की बिल्कुल नष्ट कर दिया गया। इस एक्ट ने भी राष्ट्रीय आन्दोलन की लहर को तेज कर दिया।

भारतीय साहित्यकारों ने भी देश की भावना को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। श्री बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘वन्देमातरम्’ के रूप में देशवासियों का राष्ट्रीय गान दिया। इनसे भारतीयों में देश प्रेम की भावना जागृत हुई। मराङ्गी साहित्य में शिवाजी का मुगलों के विरूद्ध संघर्ष विदेशी सत्ता के विरूद्ध संघर्ष बताया गया। श्री हेमचन्द्र बनर्जी ने अपने राष्ट्रीय गीतों के द्वारा स्वाधीनता की भावना को प्रोत्साहन दिया। श्री विपिन चन्द्र पाल लिखते है, राष्ट्रीय प्रेम तथा जातीय स्वाभिमान को जागृत करने में श्री हेमचन्द्र द्वारा रचित कविताएँ अन्य कवियों की ऐसी कविताओं में कही अधिक प्रभावोत्पादक थी।” इसी प्रकार केशव चन्द्र सेन, रवीन्द्र नाथ टैगोर, आर.सी. दत्त, रानाडे, दादा भाई नौरोजी ने अपने विद्वतापूर्ण साहित्य के माध्यम से भारत में राष्ट्रीय भावना को जागृत किया। इन्द्र विद्या वाचस्पति के अनुसार, इसी समय माइकेल मधुसुदन दत्त ने बंगाल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी में, नर्मद ने गुजराती में, चिपलुणकर ने मराठी में, भारती ने तमिल में तथा अन्य अनेक साहित्यकारों ने विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण उत्कृष्ट साहित्य का सृजन किया। इन साहित्यिक कृतियों ने भारतवासियों के हृदयों में सुधार एवं जागृति की अपूर्व उमंग उत्पन्न कर दी।

(6) भारत का आर्थिक शोषण- मि० गैरेट के अनसार, “राष्ट्रीयता में शिक्षित वर्ग का अनुराग हमेशा कुछ हद तक धार्मिक और कुछ हद तक आर्थिक कारणों से हुआ है।” भारतीय राष्ट्रीयता पर यह बात पूरी खरी उतरती है। ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण नीति ने भारतीय उद्योगों को बिल्कुल नष्ट कर दिया था। यहाँ के व्यापार पर अंग्रेजों का पूर्ण अधिकार हो गया था। भारतीय वस्तुओं पर जो बाहर जाती थी, भारी कर लगा दिया गया और भारत में आनेवाले माल पर ब्रिटिश सरकार ने आयात बहुत छूट दे दी। इसके अतिरिक्त अंग्रेज भारत से कच्चा माल ले जाते थे, इग्लैण्ड से मशीनों द्वारा निर्मित माल भारत में भेजते थे, जो लघु एवं कुटीर उद्योग धन्धों से निर्मित माल से बहुत सस्ता होता था। परिणामस्वरूप भारतीय बाजार यूरोपियन माल से भर गए एवं कुटिर उद्योग धन्थों का पतन हो जाने के करोड़ों की संख्या में लोग बेरोजगार हो गये। भारत का धन विदेशों में जा रहा था अतः भारत दिन प्रतिदिन निर्धन होता गया। इसलिए 1880 में सर विलियम डिग्वी ने लिखा था कि करीब दस करोड़ मनुष्य ब्रिटिश भारत में ऐसे है है, जिन्हें किसी समय भी भर पेट अत्र नही मिलता, इस अधःपतन की दूसरी मिसाल इस मसय किसी और उन्नतिशील देश में कहीं पर भी दिखाई नही दे सकती है। भारतीयों की आर्थिक दशा के बारे में आगलि के ड्यूक ने जो 1875.76 में भारत में सचिव थे, लिखा है है, “भारत की जनता में जितनी दरिद्रता है तथा उसके रहन-सहन का स्तर जिस तेजी से गिरता जा रहा है। इसका उदाहरण पश्चिम जगत में कही नही मिलता।”उद्योगो और दस्तकारी के पतन के कारण इनमें कार्यरत व्यक्ति कृषि की ओर गये जिसमें भूमि पर दबाव अधिक बढ़ गया। परन्तु सरकार ने कृषि के वैज्ञानिक ढंग की ओर कोई ध्यान हीं दिया जिसके कारण किसानों की दशा इतनी खरबा हो गई कि 75% व्यक्तियों को पेटभर खाना भी नसीब नहीं हो पाता था। अचानक फूट पड़ने वालो अकालों ने उनकी स्थिति को और अधिक दयनीय बना दिया। विलियम हण्टर ने लिखा है, “ब्रिटिश साम्राज्य मे रैयत ही सबसे अधिक दयनीय है, क्योकि उनेक मालिक ही उनके प्रति अन्यायी है।” फिशर के शब्दों में “लाखों भारतीय आधा पेट भोजन पर जीवन बसर कर रहे है। भारतीयों के शोषण के बारे में डी० ई० वाचा ने लिखा है, “भारतीयों की आर्थिक स्थिति ब्रिटिश काल में अधिक बिगड़ी थी । चार करोड़ भारतीयों को केवल दिन में खाना खाकर संतुष्ट रहना पड़ता था। इसका एक मात्र कारण यह था कि इंग्लैण्ड भूखे किसानों से भी कर प्राप्त करता था तथा वहाँ अपना माल भेजकर लाभ कमाता था। सारांश यह है कि अंग्रेजों के आर्थिक शोषण के विरुद्धा भारतीय जनता में असन्तोष था। वह इस शोषण से मुक्त होना चाहती थी। इसलिए भारतीयों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रियरूप से भाग लेना श्रारम्भ कर दिया। गुरुमुख निहाल सिंह के शब्दो में “इस तथ्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि बिगड़ती आर्थिक दशा तथा सरकार की राष्ट्र विरोधी आर्थिक नीति का अंग्रेज विरोधी विचारधारा तथा राष्ट्रीय भावना को जगाने में काफी हाथ था । “

(7) जाति विभेद नीति- 1857 ई0 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासकों ने जाति विभेद की नीति अपनाई। इस नीति अनुसार वे भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखने लगे। गुरुमुख निहाल सिंह के अनुसार- “विद्रोह के बाद भारत में आनेवाले अंग्रेजो के मस्तिष्क में भारतीयों के बारे में विभिन्न धारणाएँ होती थी। वे मंच के तात्कालीन दास्य चित्रों के अनुसार भारतीयों को ऐसा जन्तु समझते थे जो वनमानुष और आधा नीग्रो था, जिसे केवल भस द्वारा ही समझाया जा सकता था और जिसके लिए जरनल नील तथा उसके साथियों का घृणा और आतंक का व्यवहार ही उपुयक्त था। 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने सम्पर्क कम कर दिया। उनके निवास स्थान भारतीयों के निवास स्थान से बिल्कुल अलग थे। वे भारतीयों को काले लोग कहकर घृणा करते थे। होटल, क्लब, पार्क आदि स्थानों पर अंग्रेज भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। इस कारण अग्रेजों ने रंग भेद नीति के आधार पर अनके अत्याचार किए। गैरेट ने इस सम्बन्ध में लिखा है, “यूरोपियनों की जाति विभेद नीति तीन महत्वपूर्ण सिद्धान्तों पर आधारित थी। प्रथम एक यूरोपियन का जीन अनेक भारतीयों के बराबर है, दृवितीय, भारतीय केवल भय एवं दण्ड की भाषा को ही समझ सकते है एवं तृतीय, युरोपियन भारत में लोक हित के दृष्टिकोण से ही नही बल्कि निजी स्वार्थ सिद्धि हेतु आए थे।”

न्याय के मामलें में भी जाति विभेद को स्थान दिया जाता था एक ही अपराध के लिए भारतीयों व अग्रेजों के लिए अलग-अलग दण्ड निर्धारित थे। अंग्रेजों ने अनेक भारतीयों की हत्यायें कर डाली, किन्तु उन्हें कोई अर्थ दण्ड नहीं दिया गया। इस सम्बन्ध में मॉरीसन ने लिखा है, “यह एक महासत्य है जिसे छिपाया नहीं जा सकता कि अंग्रेजो द्वारा भारतीयों की हत्या की जाने की घटना एक-दो नही है। अमृत बाजार पत्रिका के एक अंक (11 अगस्त 1882) में तीन घटनाओं का जिक्र है, जिनमें हत्यारों का पूरी कानूनी सजा नहीं मिली। यूरोपियनों के मुकदमों में शहरों से ज्यूरी बुलाए जाते थे। उनमें विजेता जाति को होने का अहंकार सबसे ज्यादा हैं, उनकी नैतिक भावना इस बात की अनुमति नहीं देती कि एक अंग्रेज को किसी भारतीय की हत्या के अपराध में अपनी जा देनी पड़े।

उनके हृदय अंग्रेजों की इस जाति भेदभाव नीति का भारतीयों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा । उब में ब्रिटिश शासन के प्रति विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इस तथ्य से राष्ट्रीयता की भावना का तीव्र गति से संचार हुआ। गैरेट ने सही लिखा है, “भारतीय राष्ट्रीयता की बढ़ोत्तरी में उपरोक्त कटुता की भावना एक बहुत बड़ा कारण थी।”

(8). सरकारी नौकरियों में भारतीयों के साथ पक्षपात- 1833 ई0 के चार्टर अधिनियम और 1858 ई0 की महारानी विक्टोरिया की घोषणा में कह गया कि सरकारी नौकरियों में नियुक्ति केवल योग्यता के आधार पर ही की जाएगी। भारतीय तथा यूरोपियनों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं बरता जाएगा, लेकिन व्यवहार में इस नीति का पालन करने के स्थान पर इसे भंग कर दिया गया।

अंग्रेजी शिक्षा के कारण, वकील, डाक्टर और अध्यापक तथा नौकरी करनेवालों का एक वर्ग उत्पन्न हुआ। 1857 के विद्रोह ब्रिटिश सरकार का भारतीयों पर से विश्वास समाप्त हो गया था। अतः वे लिखे भारतीयों को सरकारी नौकरी नही देना चाहती थी, इसलिए उनमें असन्तोष बढ़ा भारतीयों को उच्च पदों विशेष तथा ‘भारत नागरिक सेवा’ (ICS) से अलग रखने के लिए विधिवत प्रयास किए गए। इस सेवा में प्रवेश की आयु 21 वर्ष थी। इसकी परीक्षा इग्लैण्ड में अंग्रेजी भाषा में होती थी। किसी भी भारतीय द्वारा ऐसी परीक्षा पास करना अत्यन्त कठिन था। इसके बावजूद भी कोई अगर भारतीय सफल हो जाता था, तो उसे किसी-न-किसी बहाने से नौकरी में नहीं लिया जाता था। उदाहरणस्वरूप 1869 ई० में श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ICS की परीक्षा पास कर ली थी परन्तु उनकी नियुक्ति नहीं की गई, क्योंकि वे घोड़े की सवारी में प्रवीण नही थे। ब्रिटिश अधिकारी भारतीयों को उच्च पदों से वंचित रखने के लिए नए-नए बहाने ढूंढते थे।

सन् 1871 ई0 में ICS में प्रवेश की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी गई, ताकि भारतीय इस प्रतियोगिता में भाग न ले सकें सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ब्रिटिश अन्याय का विरोध करने के लिए 1876 ई० में ‘इण्डियन एसोसिएशन’ की स्थापना की, जिसे कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्था कहा जा सकता है। बनर्जी ने इस कार्य का विरोध करने के लिए एवं राष्ट्रीय जनमत को जागृत करने हेतु सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया। इससे अंग्रेज विरोधी आन्दोलन को प्रोत्साहन मिला। श्री बनर्जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि “मेरे मामलों में भारतीयों के हृदय में भारी क्षोभ उत्पन्न कर दिया, उनमें यह विचार फैल गया कि यदि मैं भारतीय न होता तो मुझे इतनी कठिनाइयाँ नही उठानी पड़ती।”

यातायात तथा संचार के साधनों का विकास- यातायात तथा संचार के साधनों के विकास में भी राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रिटिश सरकार ने देश में रेलों तथा सड़कों का जल बिछा दिया। डाक, तार टेलीफोन आदि की व्यवस्था हुई। इसके पीछे अंग्रेज सरकार का मुख्य उद्देश्य यह था कि विद्रोह को दबाने के लिए अग्रेजी संनाएँ शीघ्रता से भेजी जा सकेगी। एवं दूर-दूर के प्रान्तों की सूचना शीघ्र प्राप्त हो जाएगी। इस विकास से भारतीयों को काफी लाभ हुआ। अब उनके लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना सुलभ हो गया। देश के भिन्न-भिन्न भागों में रहने वाले लोगों के बीच दूरी कम हो गई, वे एक दूसरे के निकट आने लगे। उनका आगामी सम्पर्क बढ़ा और दृष्टिकोण व्यापक हुआ। समाचार पत्र देश के दूर-दूर भागों में पहँचने लगें। राष्ट्रवादियों का मिलना तथा पत्र व्यवहार कराना भी आसान हो गया। अब वे एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण कर आन्दोलन को और अधिक उग्र बनाने लगे, जिनसे जन साधारण में जागृति आई । परिणामस्वरूप एकता की भावना अधिक प्रबल हो गई और राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिल प्राप्त हो गया। गुरुमुख निहाल सिंह के शब्दों में “संचार के इन साधनों ने सारे देश को एक कर दिया और भौगोलिक एकता एक मूर्तरूप वास्तविकता में बदल दिया।”

( 9 ). विदेशी आन्दोलन का प्रभाव- डॉ० आर०सी० मजूमदार ने लिखा है कि 19वीं शताब्दी में यूरोप में जो स्वाधीनता संग्राम लड़े गये, उन्होंने भी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को काफी प्रभावित किया। फ्रांस की 1830 ई0 एवं 1848 ई० की क्रान्ति ने भारतीयों में बलिदान की भावना जागृत की। इटली तथा यूनान की स्वाधीनता ने उनके उत्साह में असाधारण वृद्धि की। आयरलैण्ड भी अंग्रेजो की पराधीनता से मुक्त होने का प्रयास कर रहा था, इससे भी भारतीय जनता काफी प्रभावित हुई। इटली, जर्मनी, रूमानिया और सर्विया के राजनीतिक आन्दोलन, इग्लैण्ड में सुधार कानूनों का पारित होना एवं अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम आदि ने भी भारतीयों को उत्साहित किया तथा उनमें साहस पैदा किया। परिणामस्वरूप वे स्वाधीनता प्राप्त करने के संघर्ष में जुट गए। सारांश यह है कि विदेशी आन्दोलनों ने भारतीयों में देश भक्ति और देश प्रेम की भावना को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

( 10 ). लार्ड लिटन की अन्यायपूर्ण नीति- लार्ड लिटन (1876-1880) की प्रतिक्रियावादी नीति के कारण राष्ट्रीय असंतोष आरम्भ हुआ। परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीयता का जन्म हुआ। इस तथ्य की पुष्टि सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी के इस कथन से होती है, “कभी-कभी बुरे शासक की राजनीतिक प्रगति के विकास में सहायक सिद्ध होते है। लार्ड लिटन ने शिक्षित समुदाय में उस सीमा तक नए जीवन की लहर फूंक दी। जो कई वर्षो के आन्दोलन से सम्भव नही थी।” लार्ड लिटन के कार्यों के परिणामस्वरूप भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति असन्तोष बहुत उम्र हो गया। सर विलियम बैडरबर्न ने ब्लंट से कहा था “ लार्ड लिटन के शासनकाल के अन्त में स्थिति विद्रोह की सीमा तक पहुँच गयी थी।”

ईल्बर्ट बिल पर विवाद 1880 ई० में लार्ड लिटन के स्थान पर लार्ड रिपन गर्वनर जनरल बनकर आए। उन्होंने प्रशासन के क्षेत्र में अनेक सुधार किए। इसके पश्चात न्याय व्यवस्था में सुधार करने का निश्चय किया। इस समय न्याय के क्षेत्र मं जाति विभेद विद्यमान था भारतीयों न्यायधीशों को यूरोपियन अपराधियों के अभियोग की सुनवाई का अधिकार प्राप्त नही था, जबकि अंग्रेज न्यायधीशों को यह अधिकार प्राप्त था। इसलिए रिपन ने अपनी कौंसिल के विधि सदस्य मि० सी०पी० इल्बर्ट को इस सम्बन्ध में एक विशेष विधेयक प्रस्तुत करने को कहा, इस पर 1883 ई0 में इल्बर्ट ने एक बिल पेश किया इसे इल्बर्ट बिल कहते हैं। इसमें भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियनों के विरूद्ध अभियोग की सुनवाई करने और दण्डित करने के अधिकार देने की व्यवस्था थी। लेकिन यह विधेयक एक भीषण विवाद का कारण बन गया।

भारत में रहने वाले अंग्रेजों ने इल्बर्ट बिल को अपना जातीय अपमान समझा। परिणामस्वरूप सम्पूर्ण भारत और इंग्लैण्ड में अंग्रेजों न संगठित होकर इसका विरोध किया तथा इसके विरुद्ध आन्दोलन चलाया। उन्होंने कहा, “काले लोग गोरों को लम्बी-लम्बी सजाएँ देंगे तथा उनकी स्त्रियों को अपने घर में रखेंगें।” यूरोपियानों इस बिल के खिलाफ संगङ्गित रूप से आन्दोलन चलाने के लिए ‘यूरोपियन रक्षा संघ की स्थापना की ओर लगभग एक लाख पचास हजार रूपये चन्दा इकट्ठा किया। विधेयक की निन्दा करने हेतु विभिन्न स्थानों पर सभाएँ आयोजित की गई। विधेयक का विरोध चरम सीमा पर पहुँच गया। सर हैनरी वाटन ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “कलकत्ते के कुछ अंग्रेजों ने सरकारी भवन के सन्तरियों के वेश में करके लॉर्ड रिपन को बउँध कर वापिस इंग्लैण्ड भेजने का षड्यन्त्र रचा और यह सब बंगाल के गवर्नर पुलिस कमिश्नर की जानकारी में हुआ” अंग्रेजों के संगठित आन्दोलन के समक्ष रिपन को झुकना पड़ा और उसे इस विधेयक में संशोधन करना पड़ा। इसके अनुसार अब यह निश्चित किया गया कि भारतीय न्यायाधीश तथासेशन जज यूरोपियन अधिकारियों के मुकदमों पर अपना निर्णय दे सकेंगे। किन्तु ये यूरोपियन अधिकारी अपने मुकदमों में ज्यूरी बैठने की मांग कर सकेंगे। जिसमें कम-से-कम आधे सदस्य यूरोपियन होंगे। इस संसोधन से इस विधेयक की मूल भावना ही समाप्त हो गई।

इस घटना ने भारतीय जनता को बहुत अधिक प्रभावित किया। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी के शब्दों में “कोई भी स्वाभीमानी भारतीय अब आँख मूंदकर सुस्त नही बैगा रह सकता है। जो इल्बर्ट विवाद के महत्व को समझते थे, उनके लिए यह देश भक्ति की महान पुकार थी।” वास्तव में ईल्बर्ट बिल के विरोधी आन्दोलन ने भारत को संगठित करने के लिए प्रेरित किया। सर हैनरी काटन के शब्दों में “इस विधेयक के विरोध में किए गए यूरोपियन आन्दोलन ने भारत की राष्ट्रीय • विचारधारा को जितनी एकता प्रदान की उतनी तो विधेयक पारित होकर भी नही कर सकता था।” यूरोपियनों के आन्दोलन से प्रभावित होकर भारतीयों ने भी राष्ट्रीय संस्था के गठन का निश्चय किया। परिणामस्वरूप कांग्रेस की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। भारतीयों ने महसूस किया कि यदि हम भी अंग्रेजो की भाँति संगठित होकर ब्रिटिश सरकार का विरोध करें, तो हमें स्वाधीनता प्राप्त हो सकती है। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला। श्री ए.सी मजूमदार लिखते हैं, “इस आन्दोलन ने भारतीयों को यह भी अनुभव करा दिया कि स्वतंत्र राजनीति से न होक देश की एक व्यापक राजनीति से ही होनी चाहिए।”

निष्कर्ष- राष्ट्रवाद के जन्म के कारणों का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि भारत में इसका जन्म ब्रिटिश सरकार की नीतियों के परिणामस्वरूप हुआ। भारत में ब्रिटिश साम्प्राज्यवाद के दो विरोधी दृष्टिकोण सामने आते है।- विकासवादी और प्रतिक्रियावादी। लेकिन इन दोनों ही स्वरूपों ने राष्ट्रवाद के जन्म में सहायता प्रदान की। जैसा कि उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है ब्रिटिश शासन में ही भारत में राजनीतिक एकता स्थापित हुई, पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार हुआ और यातायात के साधनों का विकास हुआ। इनसे यदि एक ओर ब्रिटिश शासन को लाभ हुआ तो दूसरी ओर अप्रत्यक्षरूप से राष्ट्रवाद के जन्म में भी योगदान मिला। ब्रिटिश शासन के | विकासशील स्वरूप ने यदि राष्ट्रवाद के जन्म के लिए अप्रत्यक्षरूप से योगदान किया तो उसके प्रतिक्रियावादी स्वरूप ने इस प्रक्रिया को तेज किया। ब्रिटिश शासन द्वारा भारत का आर्थिक शोषण, भारतीयों के साथ भेद-भाव, उन्हें सरकारी नौकरियों में स्थान न मिलना, प्रेस का गला घोटना, हथियार रखने या लेकर चलने पर रोक लगाना। साम्राज्यवाद के विस्तार के लिए युद्ध लड़ना जैसे कामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश शासन भारत के हित में नहीं है। अधिकांश राष्ट्रीय नेताओं का मत था कि भारत की आर्थिक दुर्दशा का मल कारण भारत में अंग्रेजी शासन है।

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Anjali Yadav

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