शिक्षण विधियाँ / METHODS OF TEACHING TOPICS

मेरिया मॉन्टेसरी द्वारा मॉण्टेसरी पद्धति का निर्माण | History of the Montessori Education in Hindi

मेरिया मॉन्टेसरी द्वारा मॉण्टेसरी पद्धति का निर्माण | History of the Montessori Education in Hindi
मेरिया मॉन्टेसरी द्वारा मॉण्टेसरी पद्धति का निर्माण | History of the Montessori Education in Hindi

मॉन्टेसरी पद्धति का सविस्तार वर्णन कीजिए।

मेरिया मॉन्टेसरी द्वारा मॉण्टेसरी पद्धति का निर्माण- मेरिया मॉण्टेसरी ने मॉण्टेसरी पद्धति को जन्म दिया। माण्टेसरी पद्धति संसार के लगभग सभी देशों में प्रचलित है। यह पद्धति बाल शिक्षा के लिए बहुत प्रभावशाली है।

मैडम मॉण्टेसरी का जीवन चरित्र

प्रारम्भिक अनुभव- मेरिया मॉन्टेसरी का जन्म इटली में 1870 में हुआ। वह इटली की पहली महिला डॉक्टर थी। तत्पश्चात् यह संसार की प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हुई। पहले इसकी इच्छा अभिनेत्री बनने की थी तथा इस उद्देश्य के लिए उसने एक नाटकीय स्कूल में प्रवेश भी प्राप्त किया। परन्तु शीघ्र ही उसने अनुभव किया कि उसके जीवन का उद्देश्य कुछ और है। उसने स्कूल छोड़ दिया और लेडी डॉक्टर बनने का निश्चय किया। लेकिन उन दिनों इटली में मेडिकल कॉलेज के दरवाजे स्त्रियों के लिए बन्द थे। उसके सामने यह समस्या थी कि प्रवेश किस प्रकार प्राप्त हो। उसने एक चाल चली तथा प्रवेश पाने में सफल हो गई। स्वयं एक प्रवेश पत्र पर अपना नाम एम० माण्टेसरी लिखा। अधिकारी यह सोच ही नहीं सकते थे कि एक स्त्री यह कार्य कर सकती है। उन्होंने उसे पुरुष समझ कर प्रवेश दे दिया। यह पहली इटालियन नारी थी, जिसे Doctor of Medicine की उपाधि मिली। इससे उसकी उचित योग्यता का परिचय मिलता है।

मानव विज्ञान का प्राध्यापक- 1900 से 1907 तक उसने रोम विश्वविद्यालय में सात वर्ष तक मानव विज्ञान के अध्यापक के रूप में कार्य किया। वहाँ उसे बच्चों के सम्पर्क में आने का अवसर प्राप्त हुआ। मेडिकल कॉलेज से सम्बन्धित मानसिक व्याधि से पीड़ित बच्चों का एक विभाग था। मॉण्टेसरी से कहा गया कि वह उन भाग्यहीन बच्चों का निरीक्षण करे। उसने व्याधिग्रस्त बच्चों तथा उनकी शिक्षा के अध्ययन में विशेष रुचि ली। उसने निम्नलिखित बातों का पता लगाया-

  1. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण शिक्षा में चमत्कारी प्रभाव के लिए सर्वोत्तम साधन है।
  2. जड़बुद्धि का कारण बच्चों की ज्ञानेन्द्रियों का कुंठित होना है।
  3. यदि सामान्य बच्चों की शिक्षा के लिए भी ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण की पद्धति को अपनाया जाए तो परिणाम और भी उत्साहजनक हो सकते हैं।

पाठशालाओं की निरीक्षका- 1907 में उसे गुड-बिलडिंग के डाइरेक्टर तथा रोमन एसोसिएशन ने गली-मुहल्लों में कुछ स्कूलों के निरीक्षण कार्य के लिए आमन्त्रित किया। 3 से 7 वर्ष की आयु के बच्चे गलियों में घूमते एवं शरारतें करके लोगों की नाक में दम कर देते थे। उनके माता-पिता सुबह ही काम पर बाहर चले जाते थे। मॉण्टेसरी ने निरीक्षण कार्य संभाला और 1907 में सबसे पहले एक नया स्कूल खोला और उसका नाम ‘शिशु-गृह’ रखा। यहाँ उसने बच्चों को शिक्षित बनाने का एक नया ढंग निकाला और वह था बच्चों की ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण। एक सच्चे वैज्ञानिक की तरह उसने शैशव विकास सम्बन्धी वास्तविक यथार्थों का अध्ययन किया।

शिशु-स्कूलों की निरीक्षिका- 1922 में इटली सरकार ने उसे बच्चों के स्कूलों की निरीक्षिका नियुक्त किया। वह नौकरी करते हुए शिक्षकों को अपने नए ढंग का प्रशिक्षण भी देती रही। यूरोप के अन्य देशों एवं इंग्लैण्ड के शिक्षकों ने भी मॉण्टेसरी पद्धति में प्रशिक्षण लिया।

इटली से उसका भाग जाना- इटली में मुसोलिनी सत्ता में आया। वह एक फासिस्ट नृशंस शासक था। वह बच्चों का युद्ध के लिए शिक्षित करना चाहता था, किन्तु माण्टेसरी बच्चों की स्वतन्त्रता की दृढ़ समर्थक थी। वह इस प्रकार के वातावरण में कार्य नहीं कर सकती थी, अतः वह भागकर हॉलैण्ड चली गई। वहाँ जाकर एक स्कूल खोला।

भारत में यात्रा- मॉण्टेसरी 1939 में भारत आई और यहाँ पर 1951 तक रही। वह भारत में अपनी पद्धति का प्रचार करती रही तथा उसी के अनुसार अध्यापकों का प्रशिक्षण करती रही। 1951 में वह हॉलैण्ड चली गई तथा 1952 में वहीं उसको मृत्यु हो गई।

उसकी लिखित पुस्तकें-

  1. नये संसार के लिए शिक्षा।
  2. शैशव का रहस्य।
  3. शिक्षा का पुनरुद्धार ।
  4. बच्चे की खोज।
  5. मानवीय शक्तियों का प्रशिक्षण।
  6. शिक्षा तथा बच्चे की शान्ति ।

उसे प्रेरित करने वाले विचार- बच्चे का शरीर बढ़ता है और आत्मा विकसित होती है—ये दोनों शारीरिक और मानसिक स्वरूप एक ही शाश्वत् जीवन के दो रूप हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें विकास के इन दोनों रूपों में निहित रहस्यात्मक शक्तियों को न तो समाप्त ही करना चाहिए और न अवरुद्ध ही, अपितु हमें तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए, जब तक वे अपने आपको प्रदर्शित नहीं करतीं।

माण्टेसरी पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त

1. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- यह सिद्धान्त शिक्षा के विकासमय स्वरूप का परिणाम है। मॉण्टेसरी का विश्वास है कि बच्चे की अभिवृद्धि या विकास में किसी प्रकार की बाधा या रुकावट नहीं होनी चाहिए। स्वतन्त्रता सभी व्यक्तियों क जन्म-सिद्ध अधिकार है और पूर्ण स्वतन्त्रता से स्वतः विकास होता है। वह इस बात का समर्थन नहीं करती कि बच्चे नियन्त्रण रखा जाए, क्योंकि उसका विचार है कि इससे उसकी आन्तरिक शक्तियाँ या तो नष्ट हो जाती हैं अथवा कुं हो जाती हैं।

2. आन्तरिक विकास- मॉण्टेसरी का विश्वास था कि शिक्षा मन के भीतर से ही होनी चाहिए। यदि कोई भी शै कार्य प्रभावशाली हो सकता है तो केवल वही जो बच्चे के व्यक्तित्व के पूर्ण प्रस्फुटन में सहायक सिद्ध हो, क्योंकि का शरीर बढ़ता है, आत्मा विकसित होती है। ये दोनों शारीरिक तथा मानसिक स्वरूप एक ही शाश्वत् जीवन के हैं। उसका विचार है कि शिक्षा बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तिगत जीवन में सहायता करे। उपयुक्त वातावरण जुटाया जाना चाहिए, जिससे बच्चे अपनी सभी आन्तरिक क्षमताओं में वृद्धि कर सकें।

3. नकद पुरस्कार तथा शारीरिक दण्ड न देने का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी के अनुसार दण्ड तथा पुरस्कार अप्राकृतिक अथवा हठात् प्रयत्न का प्रोत्साहन करते हैं। इनसे जो विकास होता है, वह अस्वाभाविक ही होता है। वह लिखती है कि घुड़सवार अपने घोड़ों को थोड़ी-सी खांड इसलिए दे देते हैं कि वे उसके इशारे पर काम करें, किन्तु फिर भी ये मैदानी स्वतन्त्र घोड़े के समान तेज नहीं दौड़ सकते।

4. व्यक्तिगत विकास का सिद्धान्त- कहा जाता है कि मॉण्टेसरी ने श्रेणी शिक्षा पद्धति का अन्त किया। मॉण्टेसरी का विश्वास है कि प्रत्येक बच्चा अलग है। वह अपनी गति के अनुसार प्रगति करता है। सामूहिक पद्धति उसके व्यक्तिगत विकास को अवरुद्ध करती है। वह प्रत्येक बच्चे को एक अलग व्यक्ति समझती है तथा परामर्श देती है कि उसकी सहायता और देख-भाल इस प्रकार होनी चाहिए, जो उसकी वृद्धि और विकास में सहायक हो सके।

5. बौद्धिक प्रशिक्षण का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने यह स्वीकार किया है कि हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान के प्रवेश द्वार हैं, इसलिए इनके प्रशिक्षण और विकास पर ही समस्त जीवन में ज्ञान प्राप्ति निर्भर है। उसने बताया है कि तीन से सात वर्ष की आयु तक ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक क्रियाशील होती हैं। इस काल में बहुत अधिक शिक्षा प्राप्त की जा सकती है।

6. शिक्षक संचालिका के रूप में उसने अध्यापक शब्द को हटाकर उसके स्थान पर संचालिका शब्द का प्रयोग किया, क्योंकि उसके विचार में शिक्षक का कार्य संचालन करना है तथा बच्चे का निर्देशन करना है।

7. स्व-शिक्षा का सिद्धान्त- मॉण्टेसरी ने दूसरों द्वारा शिक्षा दिए जाने की अपेक्षा स्वयं शिक्षा पर बल दिया। वह विश्वास करती है कि स्व- शिक्षा ही सच्ची शिक्षा है। उनका कथन है कि बच्चों के कार्य में बड़ी बाधा न पहुँचायें। उसने शिक्षा सम्बन्धी प्रबोधक यन्त्रों का आविष्कार किया, जो बच्चों का ध्यान आकर्षित करते हैं। उन्हें उनकी इच्छानुसार व्यस्त रखते हैं। उन्हें गति, पढ़ाई लिखाई और गणित की महत्ता का भी ध्यान करवाते हैं।

8. परियों की कहानी के लिए स्थान न होना – वह परियों की काल्पनिक कहानियों को छोटे बच्चों के पाठ्यक्रम से हटा देना चाहती है, क्योंकि ये बच्चों को भ्रम में डालती हैं और वास्तविक संसार के कार्यक्रम में अपने आपको व्यवस्थित करने में बाधा पहुँचाती हैं।

9. मांसल (Muscular) प्रशिक्षण – माँसपेशियों के प्रशिक्षण को भी बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा के अभिन्न अंग के रूप में वर्णित किया है। उसका विश्वास है कि माँसपेशियों का प्रशिक्षण अन्य क्रियाओं जैसे लिखना, चित्रकारी, बोलना आदि में सुविधा प्रदान करता है। वह मांसल क्रियाशीलता को पूर्णतः मनोवैज्ञानिक मानती है। अतः इस बात पर जोर देती है कि चलना और दौड़ना आदि सब कुछ मांसपेशियों के प्रशिक्षण पर निर्भर रहता है।

डॉक्टर मॉण्टेसरी द्वारा प्रस्तुत शिक्षा के सिद्धान्त पुरानी विचारधारा को खंडित करते हैं। उसकी शिक्षण पद्धति वास्तविक अनुभवों तथा भावनाओं को प्रदर्शित करती है। वह उच्च कोटि की विचारक है। शिक्षकों को उसके द्वारा बताए गए सिद्धान्तों को यथा सम्भव अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

मॉण्टेसरी पद्धति में शिक्षक का स्थान

मॉण्टेसरी का कथन है कि शिक्षक को जीवन की गहन साधना से प्रेरित होना चाहिए और अपने सम्मान से जिसे वह मानवता में रुचि के द्वारा प्राप्त करता है, बच्चे के जीवन को विकसित करना चाहिए।

शिक्षक माली के रूप में- मॉण्टेसरी का विचार है कि शिक्षक को माली की भाँति जो पौधों की देख-रेख करता है, बच्चों का ध्यान रखना चाहिए, जिससे बच्चे की प्राकृतिक वृद्धि की देख-भाल हो सके तथा उसे विस्तृत कार्य में सहयोग प्राप्त हो सके।

प्रत्येक बच्चे का ज्ञान- शिक्षक को प्रत्येक बच्चे के मस्तिष्क तथा चरित्र सम्बन्धी बातों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। उसे प्रत्येक बच्चे के विकास, उसके वजन, ऊँचाई और अन्य परिमाणों का वैज्ञानिक ज्ञान होना चाहिए।

शिक्षकों के स्थान पर संचालिका- डॉ० माण्टेसरी ने शिक्षक शब्द को हटाकर उसके स्थान पर संचालिका का प्रयोग किया है। वह सोचती है कि ऐसे व्यक्ति का पहला कर्त्तव्य शिक्षण न होकर संचालन होना चाहिए।

चिकित्सक, वैज्ञानिक और धार्मिकता के गुणों से सम्पन्न संचालिका- मॉण्टेसरी के शब्दों में संचालिका को अंशत: वैज्ञानिक, अंशतः चिकित्सक तथा पूर्णतः धार्मिक होना चाहिए। चिकित्सक के समान उसे रोगी को डॉटना तथा झिड़कना, नहीं चाहिए, जिससे उसकी दशा में और बिगाड़ न हो जाए। एक वैज्ञानिक की भाँति परीक्षण और उसके सुपरिणाम तक धैर्य धारण करना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति की भाँति उसे वहाँ बच्चों की सेवा करनी चाहिए।

बच्चे के व्यक्तित्व में विश्वास- संचालिका को बच्चों की अभिरुचि के अनुसार विकास के अवसर देने चाहिएँ। उसका कार्य उन्हें उपयुक्त वातावरण प्रदान करना है।

नैतिक विशेषताएँ- संचालिका की विशेषता बुद्धि नहीं अपितु उसके अन्य गुण हैं। उसमें नैतिक चेतनता, धैर्य, प्रेम और मानवता आदि गुण अवश्य होने चाहिएँ। उसे क्रोध का, जो एक बड़ा पाप है तथा बच्चे को समझने में बाधक है, अवश्य अन्त कर देना चाहिए। बच्चे की पवित्र और चैतन्य आत्मा को सरल और स्नेहपूर्ण देखभाल की आवश्यकता है। संचालिका का परम उद्देश्य “तुम्हारी अभिवृद्धि के लिए मेरा व्यक्तित्व गौण हो जाए” होना चाहिए, अर्थात् संचालिका बच्चे के लिए है।

मॉण्टेसरी-पद्धति के व्यावहारिक कार्य

बच्चों का घर- यह नाम डॉक्टर मॉण्टेसरी द्वारा एक स्कूल को दिया गया है। यह घर या स्कूल एक सम्पन्न परिवार की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। वास्तव में, यह एक स्कूल कार्यशाला और घर की सभी विशेषताओं से सम्पन्न बच्चों के घर का एक चित्र-चिल्ड्रेन हाऊस में कई कमरे होते हैं। भवन का प्रमुख कमरा अध्ययन-कक्ष है। छोटे कमरे जैसे कॉमन रूम, अल्पाहार गृह, विश्राम-गृह, हस्तकार्य कक्ष, व्यायामशाला, शौचालय और बच्चों का स्नान-कक्ष इत्यादि मुख्य कमरे से सम्बन्धित होते हैं। कमरों में बच्चों की आवश्यकता तथा मॉण्टेसरी पद्धति की भावना के अनुरूप सामान रखा जाता है। कुर्सियाँ और मेज विशेषकर बच्चों की आवश्यकतानुसार बनवाई जाती हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर बहुत आसानी से उन्हें लाया जा सकता है।

विभिन्न प्रकार के सोफा तथा लम्बी पंक्ति वाली अल्मारियाँ भी उनमें होती हैं। बच्चे अल्मारियों में अपनी पाठ्य सामग्री रखते हैं और अपना अन्य सामान अपने छोटे ड्रायरों में दीवारों में छोटे काले तख्ते जुड़े रहते हैं, जिन पर बच्चे अपनी इच्छानुसार भिन्न प्रकार के चित्र बनाते हैं अथवा चिपकाते हैं। बच्चों को खिलौने, फूल, चित्र और अन्तर्खेल की सामग्री प्रदान की जाती है। भोजन-गृह में मेज, कुर्सियाँ, चम्मच, चाकू, जलपात्र आदि सामग्री होती है।

बच्चों के बैठने के कमरे में उनकी अपनी छोटी अल्मारी होती है, जहाँ वे स्नान के लिए अपना साबुन तथा तौलिया रखते हैं। बच्चों के घर में एक छोटी-सी फुलवारी भी होती है, जिसकी निगरानी स्वयं विद्यार्थियों द्वारा ही होती है। वे वहाँ खुली हवा प्राप्त कर सकते हैं, खेल सकते हैं, काम कर सकते हैं अथवा सो सकते हैं। यदि वे चाहें तो अपना खाना भी खा सकते हैं।

बच्चों की ऊँचाई नापने के लिए पेडोमीटर और तोलने वाली मशीन भी ‘बच्चों के घर में होती है, जिससे कि बच्चों की ऊँचाई और वजन का आलेख रखा जा सके। ‘बच्चों के घर में तीन प्रकार की गतिविधियों की व्यवस्था है-

  1. व्यावहारिक जीवन में अभ्यास।
  2. इन्द्रिय प्रशिक्षण।
  3. भाषाएँ और गणित-शिक्षण के लिए अभ्यास।

व्यावहारिक जीवन में अभ्यास- ‘बच्चों के घर में किए जाने वाले अभ्यासों को व्यावहारिक जीवन के अभ्यास कहते हैं, क्योंकि इनका सीधा सम्बन्ध वास्तविक दैनिक जीवन से है। घर के सारे काम बच्चों को सौंपे जाते हैं, जो उन्हें श्रद्धा, सावधानी, शान्ति तथा गौरव से करते हैं। बच्चों से आशा की जाती है कि वे कमरे आदि को साफ रखें तथा उन्हें सुन्दरतापूर्वक सजाएँ। वे स्वयं अपने वस्त्र पहनने, उतारने और नहाना सीखते हैं। उनसे आशा की जाती है कि वे कपड़े क्रमानुसार लटकायेंगे। वे अपना खाना भी लगाते हैं। बच्चों को विभिन्न गृह-कार्यों में अवसर प्रदान किए जाते हैं तथा वे अनुकरण द्वारा कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना सीखते हैं। उत्साह और प्रसन्नचित्त, मित्रता की भावना और पारस्परिक सहयोग इन बच्चों की विशेषताएँ हैं। बच्चे अपने हाथ धोना सीखते हैं। वे विभिन्न बर्तनों का प्रयोग सीखते हैं। बच्चे यह भी सीखते हैं कि अपना साबुन तथा तौलिया किस प्रकार प्रयोग किया जाता है। वे यह भी सीखते हैं कि बाल कैसे बनाए जाते हैं, दाँत तथा नाखूनों की कैसे सफाई होती है।

‘बच्चों के घर का प्रमुख उद्देश्य बच्चों को आत्मविश्वास, स्वतन्त्रता और आत्म-निर्भरता का प्रशिक्षण देना है।

कर्मेन्द्रियों की शिक्षा- व्यावहारिक जीवन के ये अभ्यास कर्मेन्द्रिय शिक्षा के लिए बहुत सहायक हैं। मांसपेशियों की शिक्षा टहलने, बैढने, सामान पकड़ने आदि के माध्यम से दी जाती है। बच्चे के अपने शरीर की देख-भाल, गृहकार्य का प्रबन्ध, बागवानी तथा हस्तकार्य और संगीत की गति कर्मेन्द्रियाँ शिक्षा प्रदान करती हैं। बच्चे एक पंक्ति में चलना तथा अपने आपको संतुलित करना आदि क्रियाएँ सीखते हैं।

2. इन्द्रिय-शिक्षण-रूसो, पेस्टालॉजी तथा फ्रोबेल की भाँति मॉण्टेसरी ने भी जोर दिया है कि इन्द्रियाँ ज्ञान की प्रवेश द्वार हैं। उन्होंने तर्क तथा विचार से भी अधिक महत्व इन्द्रिय-प्रशिक्षण को दिया है। इन्द्रिय प्रशिक्षण को विकसित करने के लिए विभिन्न वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। निम्नलिखित बातें इन्द्रिय प्रशिक्षण पर प्रकाश डालती है।

कार्य सामग्री
1. रंग के ज्ञान के लिए 1. हल्के लाल रंग के घन, भूरे घनक्षेत्र तथा हरे और अन्य रंग की गोलियाँ
2. वजन में अन्तर्ज्ञान के लिए 2. लकड़ी की गोलियाँ जिनकी आकृति तो एक हो किन्तु वजन भिन्न हों।
3. स्वर के अन्तर के लिए 3. विभिन्न पदार्थ के नली वाले बक्से ।
4. आकृति के ज्ञान के लिए 4. लकड़ी की नली जो ऊँचाई, व्यास और दोनों परिमापों में भिन्न हो। लकड़ी जो आकृति में नियमित रूप से भिन्न और जो लम्बाई में नियमित रूप से भिन्न हो।
5. आकार के ज्ञान के लिए 5. धातु, लकड़ी और बक्से आदि पर रेखा-गणितीय चित्र बनाना ।
6. स्पर्श की भिन्नता का आभास 6. खुरदरे और चिकनी सतह वाले चतुर्भुजाकार मेज।

प्रयोग में लाने वाली पद्धति – इसकी तीन अवस्थाएँ हैं-

  1. बुद्धिगत कल्पना “यह लाल है।”
  2. वस्तु की पहचान “मुझे लाल दो।”
  3. वस्तु के नाम की पुनरावृत्ति “यह क्या है।”

3. भाषा तथा गणित शिक्षण के लिए प्रबोधक यन्त्र- मैडम मॉण्टेसरी का मत है कि लेखन-शिक्षण पठन शिक्षण से पूर्व हो। उसके अनुसार लेखन पूर्णतः यान्त्रिक क्रिया है और पठन- अंशतः बौद्धिक ।

लेखन-शिक्षण- लेखन से सम्बन्धित तीन तत्व हैं-

  1. लेखन चातुर्य ।
  2. अक्षरों की आकृति के प्रत्युत्पादन में सहायक गति।
  3. भाषण-लेखन के समय शब्दों का स्वर विश्लेषण।

वर्णमाला के अक्षरों को बालू वाले कागजों पर काटकर कार्डबोर्ड पर चिपका दिया जाता है। बच्चों को उन पर अपनी अंगुलियाँ फेरने को कहा जाता है। विद्यार्थी अक्षर-पहचान सीखते हैं। उसी समय शब्दोच्चारण, पहचान तथा स्मरण इन तीन अवस्थाओं में सिखाया जाता है। कुछ अभ्यास हैं, जिनके द्वारा विद्यार्थी लेखन-कला पर अधिकार पाना सीखते हैं।

पढ़ाई सीखना- मॉण्टेसरी बच्चों द्वारा वाक्यों के जोर से पढ़े जाने के पक्ष में नहीं है। बच्चे के हाथ में एक कार्ड दिया जाता है, जिसमें प्रमुख वस्तु का नाम लिखकर चिपकाया होता है। बच्चे को लिखित वस्तु को स्वर में धीरे-धीरे परिवर्तित करने को कहा जाता है। फिर उससे जल्दी से पढ़ने को कहा जाता है। कुछ अभ्यास के बाद बच्चा शब्द का शुद्ध उच्चारण करना सीख जाता है।

ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण

मॉण्टेसरी की ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षण देने की योजना अति व्यापक तथा विस्तृत है। इसके लिए उसने विभिन्न प्रकार के उपकरणों का निर्माण किया है। इनकी प्रमुख विशेषता यह है कि एक उपकरण एक समय में केवल एक इन्द्रिय का प्रशिक्षण करता है। यह किस प्रकार किया जाता है, इसका वर्णन कुछ ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण के उदाहरण देकर किया जा रहा है, जैसे-

1. धार्णेन्द्रिय – नासिका के प्रशिक्षण के लिए बच्चे को विभिन्न प्रकार के सुगन्धित पुष्प या वस्तुएँ सुधाई जाती हैं। फिर उसके नेत्रों पर पट्टी बाँधकर उसे उनमें से कोई वस्तु सूँघने को दी जाती है और उसका नाम पूछा जाता है।

2. चक्षुइन्द्रिय नेत्रों को प्रवीण बनाने की विभिन्न विधियाँ हैं, जिनमें से एक यह है। यदि बच्चे के नेत्रों को पहचानने का प्रशिक्षण दिया जाता है, तो उसे एक ही पदार्थ की बनी और आकार, वजन एवं मोटाई में एक-सी परन्तु विभिन्न रंगों की टिकियाँ दिखाई जाती हैं। बच्चे को काली टिकियाँ दिखाकर निर्देशिका कहती है—“यह काली है।” इस प्रकार वह उसे अन्य टिकियाँ दिखाती है और उनके रंग बताती है। इस सोपान के बाद दूसरे सोपान में वह बालक से कहती है- “मुझे काली टिकिया दो।” अन्त में, पुनरावृत्ति के समय तीसरे सोपान में निर्देशिका किसी एक रंग की टिकिया बच्चे को दिखाकर पूछती है— “यह कौन-सा रंग है।”

3. स्वादेन्द्रिय – स्वादेन्द्रिय अथवा जिह्वा को विभिन्न स्वादों का अनुभव करने के लिए मीठी, खट्टी, कड़वी, चटपटी, नमकीन आदि वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है।

4. स्पर्शेन्द्रिय- मॉण्टेसरी ने इस इन्द्रिय के प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया है। बच्चे को विभिन्न वस्तुओं का स्पर्श कराके उसकी स्पर्शेन्द्रिय का प्रशिक्षण किया जाता है। वह गरम; ठण्डे तथा गुनगुने पानी में हाथ डालकर ताप अनुभव करता है। चिकने और रेगमाल कागज पर हाथ फेर कर चिकने तथा खुरदरे का ज्ञान प्राप्त करता है। इसी प्रकार उसे अन्य अभ्यास कराए जाते हैं।

ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा डायडैक्टक अपरेटस द्वारा दी जाती है। दिए गए यन्त्रों में बालक पहले तीन ठोस लकड़ी के टुकड़ों की ओर आकर्षित होता है, जिनमें से हर किसी में दस छोटे-छोटे बेलनों की एक पंक्ति लगी होती है तथा पकड़ने के लिए एक बटन भी होता है। पहले लकड़ी के टुकड़े में बेलन एक ही ऊँचाई के होते हैं, परन्तु उनका व्यास भिन्न होता है। दूसरे में बेलन प्रत्येक दिशा में भिन्न होते हैं और तृतीय में उनकी ऊँचाई भिन्न होती है, किन्तु व्यास एक ही होता है। बालक बेलनों को निकाल देता है और मिला देता है और फिर उन्हें ठीक स्थान पर रखता है। उनके पकड़ने में इसके हाथों का व्यायाम होता है, परीक्षण द्वारा उनके परिणाम का निर्णय करना सीख जाता है तथा इस क्रम को बार-बार दोहराने से वह उसमें सफल होता है। इस अभ्यास से बालक की स्पर्शेन्द्रिय की ट्रेनिंग होती है और बालक दिशाओं की विभिन्नता को ध्यान में रखना सीख जाता है। यह उपकरण स्वयं संशोधन करने वाला होता है और आवश्यकतानुसार बालक की गलतियों को ठीक कर देता है।

दूसरे यन्त्र में लकड़ी के दस गुलाबी रंगे हुए यन्त्र होते हैं। यह भी बच्चों को बहुत अच्छा लगता है। इनसे बालक एक मीनार बनाता है। पहले सबसे बड़ा और उसके ऊपर परिणाम के क्रम से दूसरे घन रखता जाता है। इस प्रकार उसकी आँखों की ट्रेनिंग होती है तथा उसे ऊँचाई का ज्ञान हो जाता है। यन्त्र में एक छोटा आयताकार तख्ता भी होता है, वह दो भागों में विभाजित होता है, एक खुरदरा, दूसरा चिकना, इससे उसे विभिन्न प्रकार की सतहों का ज्ञान होता है, तथा वह उनकी विभिन्नताओं को समझने लगता है। यहाँ पर विभिन्न प्रकार के पदार्थ भी होते हैं, साटन, रेशमी, ऊनी, सूती, मोटा तथा बढ़िया कपड़ा। दो समान टुकड़े भी होते हैं, उनका पदार्थ एक ही होता है, लेकिन वे चमकीले और साफ़ रंग के होते हैं। बालक सब पदार्थों को मिला देता है और फिर ढूंढकर जोड़ों में रखता है। आकर्षित करने वाला एक और यन्त्र है, जिनमें छः दराजें होती हैं। जब उन्हें खोला जाता है तो प्रत्येक में छः चौकोर लकड़ी के फ्रेम होते हैं। प्रत्येक फ्रेम के मध्य में रेखागणित का आकार रखा होता है, जिसमें एक हैंडल भी होता है। जब इस रेखागणित के आकार को हटाया जाता है, तो नीचे का स्थान भी ठीक उसी का आकार होता है। रेखागणित की शक्लों को उन आकार की समानता पर ही दराज में रखा जाता है अर्थात् एक दराज में छः गोलार्द्ध ही होते हैं, जिनका कि व्यास कम होता जाता है, दूसरी में छः त्रिभुज । एक दराज में कई आकार वाली चीजें होती हैं। पहले सरल आकारों को दिया जाता है। बालक छः आकारों को साथ मिलाता है तथा फिर उन्हें ठीक स्थानों पर रखता है। इन मूर्तियों को तथा उनके आकारों को पहचानने में बालक की स्पर्शेन्द्रिय और दर्शनेन्द्रिय की ट्रेनिंग होती है। इस अभ्यास से ड्राइंग के लिए भी अच्छी तैयारी हो जाती है।

प्रबोधक उपकरण भूल का नियन्त्रण कैसे करता है

माण्टेसरी ने अपने प्रबोधक उपकरणों की ऐसी रचना की है कि “बालक भूलों का नियन्त्रण स्वयं कर लें तथा शिक्षक का निर्देशन कम से कम हो।” इन उपकरणों का ठीक अथवा गलत प्रयोग बिना किसी के बताए ही बालक को मालूम हो जाता है। गलती जान लेने पर बालक उसका सुधार करता है और अन्त में स्वयं ठीक प्रयोग करने की विधि अपनाता है। बेलन का बक्स माण्टेसरी पद्धति का एक उपकरण है, जिससे एक लकड़ी के तख्ते में विभिन्न गहराई के कई छेद होते हैं. तथा प्रत्येक छेद के उपयुक्त एक काष्ठ-खंड होता है। बालक को काष्ठ-खंड उपयुक्त छेद में जमाना पड़ता है। इस उपकरण की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक किलपैट्रिक के अनुसार, “यदि बालक भूल करके छोटे काष्ठ-खंड को किसी बड़े छेद में जमा देता है और फिर दूसरे काष्ठ-खंडों को भी अपेक्षाकृत बड़े छेदों में जमाता जाता है, तो अन्त में वह देखता है कि एक बड़ा काष्ठ-खंड बच गया है और तख्ते में सबसे छोटा छेद शेष रहा है। उसे अपनी गलती का पता लग जाता है। वह उसे सुधारने में लग जाता है। इस तरह प्रबोधक उपकरण प्रत्येक भूल का नियन्त्रण करता है। “

प्रबोधक उपकरण कैसे प्रशिक्षण करता है

प्रबोधक उपकरणों द्वारा चिन्ह तथा घ्राण नालिका की ज्ञानेन्द्रियों को छोड़कर शेष सभी ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जा सकता है। पहले सोपान में बालकों को विस्तार सम्बन्धी लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई आदि का ज्ञान छोटे-बड़े विभिन्न व्यास के बेलनों द्वारा दिया जाता है। बेलनों से उन्हें बड़े-छोटे, मोटे-पतले का भी ज्ञान होता है। फिर तापमान तथा स्पर्श का ज्ञान दिया जाता है। गरम, गुनगुने और ठण्डे पानी में हाथ डालकर ताप-ज्ञान कराया जाता है। चिकने और रेगमाल कागज के टुकड़ों पर हाथ फिराकर चिकने और खुरदरे का ज्ञान दिया जाता है। स्पर्श-ज्ञान में सूक्ष्मता लाने के लिए बक्स में रखे ऊन, रेशम, मखमल आदि के दो-दो टुकड़ों में अभ्यास कराया जाता है। जब अभ्यास कुछ बढ़ जाता है तो आँखें बन्द करके समान स्पर्शानुभूति देने वाले समान टुकड़ों को हाथ फेर कर ढूँढवाया जाता है। माण्टेसरी स्पर्श क्रिया को विशेष महत्व देती है। रंगों का प्रत्यक्ष ज्ञान विभिन्न रंग की समान टिकियाँ अथवा रेशम की लच्छियों से कराया जाता है।

श्रवर्णेन्द्रिय के विकास हेतु अनेक ध्वनि की सीटियाँ तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की चीजों से भरे डिब्बे बजाये जाते हैं, ‘जिनमें भरी हुई वस्तु की भिन्नता के कारण ध्वनि में विभिन्नता आ जाती है। आरम्भ में बालक मधुर ध्वनि वाले डिब्बों से खेलते हैं। फिर उनकी मध्यवर्ती ध्वनि पहचानते हैं तथा अन्त में ध्वनि के सूक्ष्म भेदों को परखने लगते हैं। तौल ज्ञान हल्के भारी वजन उठवाकर दिया जाता है।

आकार ज्ञान देने के लिए रेखागणित के अनेक आकारों के काष्ठ-खंड उपयुक्त खाँचे में रखे जाते हैं। श्रवणेंन्द्रिय को संगीत का प्रशिक्षण देने के लिए विभिन्न स्तरों की घंटियाँ तथा वाद्ययंत्र बजाकर सुनाए जाते हैं। सभी ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण हो जाने पर उनको पूर्णतः प्रवीण तथा प्रखर करने के लिए नानाविधि खेल खिलाए जाते हैं।

पाठ्यक्रम (Curriculum)- मॉण्टेसरी ने शिशुओं अथवा 3 से 7 वर्ष तक के बच्चों के पाठ्यक्रम की दो प्रधान विशेषताएँ मानी हैं। पहली, पाठ्यक्रम बालकों की रुचियों, क्षमताओं तथा आवश्यकताओं के अनुकूल होना चाहिए। दूसरी, पाठ्यक्रम ज्ञान प्रधान न होकर, क्रिया-प्रधान होना चाहिए, क्योंकि क्रिया-प्रधान पाठ्यक्रम बच्चों की कर्मेन्द्रियों को प्रशिक्षित करके, उनको व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करता है। उनको अपना स्वाभाविक विकास करने में योग देता है तथा उनको वास्तविक जीवन के लिए तैयार करता है।

पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में अपनी धारणा के कारण मॉण्टेसरी ने अपने स्कूलों के पाठ्यक्रम में क्रियात्मक एवं रचनात्मक विषयों को स्थान दिया है तथा पहली पाँच कक्षाओं तक के लिए उसकी रूपरेखा निम्न प्रकार अंकित की है-

1. कक्षा एक (आयु तीन वर्ष- फीते बाँधना, बटन लगाना तथा खोलना, छोटी-छोटी मेजों, कुर्सियों आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना, ठण्डी तथा गरम, मोटी तथा पतली, ऊँची तथा नीची, चिकनी तथा खुरदरी वस्तुओं में अन्तर करना, इत्यादि ।

2. कक्षा दो (आयु चार वर्ष- आसपास के स्थान को स्वच्छ रखना, उचित स्थान पर बैठकर, उचित प्रकार से भोजन करना, अपने-आप नहाना, हाथ-मुँह धोना, कपड़े पहनना तथा उतारना, छोटी तथा बड़ी, लम्बी तथा पतली और विभिन्न रंगों की वस्तुओं में अन्तर करना, इत्यादि ।

3. कक्षा तीन (आयु पाँच वर्ष) – गति दृष्टि तथा स्पर्श-सम्बन्धी अभ्यास करना, सीधी रेखा पर चलकर, शरीर पर नियन्त्रण करना, अक्षर ज्ञान प्राप्त करना, ड्राइंग का अभ्यास करना, इत्यादि ।

4. कक्षा चार (आयु छः वर्ष) – भोजन परोसना तथा बर्तन धोना, कमरे की वस्तुओं को ठीक ढंग से और ठीक स्थान पर रखना, गति-सम्बन्धी अभ्यास करना, विभिन्न गतियों की पहचान करना, विभिन्न वस्तुओं की सहायता से गिनती का ज्ञान प्राप्त करना, लिखने, पढ़ने, गणित तथा ड्राइंग का ज्ञान प्राप्त करना, इत्यादि ।

5. कक्षा पाँच (आयु सात वर्ष) उपर्युक्त सब बातों का अभ्यास करना, शारीरिक स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना, संयम और शिष्टाचार का अभ्यास करना, भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक शब्दों का ज्ञान प्राप्त करना, खेल द्वारा व्याकरण की शिक्षा प्राप्त करना ।

बच्चों के घर में अनुशासन- इच्छित कार्यों में रुचि बढ़ाकर अप्रत्यक्ष रूप से अनुशासन उत्पन्न होता है। प्रत्येक विद्यार्थी से स्व-प्रयत्न तथा शान्ति द्वारा आत्म-नियन्त्रण के शिक्षण की आशा की जाती है। बच्चे शांत क्रियाशीलता में रत रहते हैं, जो बच्चों को बाह्य लक्ष्य की ओर प्रेरित नहीं करती वरन् जिसका उद्देश्य उस अन्तर्ज्वाला को जीवित रखना है, जिस पर हमारा जीवन आधारित है। मॉण्टेसरी लिखती है कि, “वास्तव में अच्छे वे हैं जो अच्छाई की ओर बढ़ते हैं, जो उनके स्वयं के प्रयत्न से निर्मित हैं।” ऐसा अनुशासन आज्ञा, धर्मोपदेश और अन्य किसी नियन्त्रित अनुशासनात्मक पद्धति द्वारा कभी प्राप्त नहीं हो सकता।

बाल-सदन की संचालिकायें- वह धीरे-धीरे शांतिपूर्वक घूमती हैं। वे इस प्रकार निरीक्षण करती हैं कि कोई व्यक्ति जिसे उनकी सहायता की आवश्यकता हो तुरन्त उनकी उपस्थिति से सूचित हो जाए, जबकि दूसरे जो उनकी आवश्यकता अनुभव न करते हो उनकी उपस्थिति की सूचना न पा सकें।

मॉण्टेसरी पद्धति के गुण

बच्चों के प्रति मैडम मॉण्टेसरी के अत्यधिक स्नेह, कोमल हृदयता, कलाकारों जैसी कल्पना शक्ति और असाधारण सहानुभूति ने शिक्षा पद्धति के सिद्धान्तों की एक नवीन दृष्टि की है। विशेषकर बच्चों की शिक्षा के लिए तो मैडम-मॉण्टेसरी ने महान् देन दी है। मॉण्टेसरी प्रणाली के मुख्य गुण ये हैं-

1. यह सिद्धान्त वैज्ञानिक – यह सिद्धान्त वैज्ञानिक पृष्ठ-भूमि पर आधारित है। मैडम मॉण्टेसरी एक वैज्ञानिक थी। उसने अनुभव और निरीक्षण के आधार पर वैज्ञानिक सिद्धान्तों को अपनाया। उसने अविचारपूर्ण निर्णय नहीं लिया और न किसी का पक्षपात ही किया।

2. बच्चों के लिए स्वतन्त्रता- मैडम मॉण्टेसरी ऐसे शिक्षा-शास्त्रियों में अप हैं जो बच्चों को पूर्ण स्वतन्त्रता के वातावरण में शिक्षा देना चाहती हैं। उसके सिद्धान्त में अनुशासन का अर्थ है आत्म-नियन्त्रण तथा प्रेरित क्रियाशीलता।

3. लिखने और पढ़ने के अनूठे सिद्धान्त- इस पद्धति में ‘लिखना’ सीखने को विशेष महत्व दिया गया है। लिखते हुए बच्चे की स्नायु-सम्बन्धी स्थिति का विशेष ध्यान रखा जाता है। लिखने और पढ़ने के अभ्यासों को उचित रूप से समन्वित तथा श्रृंखलाबद्ध किया जाता है।

4. सिद्धान्त का सामाजिक महत्व- यद्यपि मॉण्टेसरी पद्धति मूलतः व्यक्तिवादी है तथापि यह सामाजिक मूल्यों से भरपूर है। मेज पर इकट्ठे खाना लगाना, मिलकर खाना खाना, बर्तनों को धोना, साफ करना तथा दूसरे सहयोगात्मक कार्य करना आदि अनेक क्रियाओं का पर्याप्त सामाजिक महत्व भी है।

5. छोटे बच्चों के लिए सम्मान की भावना- मॉण्टेसरी के शब्दों में बच्चा ही ईश्वर है, उसका स्कूल ही मन्दिर है तथा बच्चे की स्वत्व-शक्ति ही मन्दिर की अधिष्ठात्री देवी है। वे आगे लिखती हैं-आज एक ही अनिवार्य आवश्यकता सम्मुख है और वह है शिक्षा के सिद्धान्त और शिक्षण में सुधार और जो कोई भी इस उद्देश्य के लिए संघर्ष करता है वह में वास्तव में मनुष्य मात्र के पुनरुद्धार के लिए संघर्ष करता है। मॉण्टेसरी ने जिस सिद्धान्त को जन्म दिया है उसने बच्चे के महत्व को और भी बढ़ा दिया है।

6. व्यक्तिगत शिक्षण- मॉण्टेसरी पद्धति व्यक्तिवाद को प्रमुख स्थान देती है।

7. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- मॉण्टेसरी सिद्धान्त का उद्देश्य है, बच्चों को ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण द्वारा पढ़ाना। इसका सूत्र है कि “मूर्त से अमूर्त की ओर बढ़ो, सामान्य से विशेष की ओर बढ़ो” (Proceed from concrete to abstract, from general to particular.)

8. जीवन द्वारा शिक्षा प्राप्ति- मैडम मॉण्टेसरी ने अपने स्कूल में ऐसी व्यवस्था की है कि बच्चों में नियमितता तथा स्वच्छता की अच्छी आदतें पड़ें। कई विशेष क्रियात्मक अभ्यास हैं। बच्चे श्रम के महत्व को समझते हैं, क्योंकि वे अपनी आवश्यकताएँ स्वयं पूरी करते हैं।

मॉण्टेसरी पद्धति की सीमायें तथा दोष

1. शारीरिक पहलू पर मनोवैज्ञानिक पहलू की अपेक्षा अधिक बल- इस पद्धति में अध्यापक प्रत्येक बच्चे की ऊंचाई, वजन, दृष्टि इत्यादि का वृत्त तैयार करता है। इसमें स्वभावगत तथा भावनागत लक्षणों की ओर कम ध्यान दिया जाता है।

2. यान्त्रिक तथा कृत्रिम प्रवोधक साधन- प्रबोधक साधनों को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। आलोचकों का तर्क है कि ये साधन अध्यापक और बच्चों के लिए बन्धन हैं। बच्चे को प्रबोधक यंत्र की सहायता से विभिन्न अभ्यास करने पड़ते हैं। अध्यापक भी उन्हीं की सहायता से ही बच्चे को कार्य करवाने के लिए अपेक्षित है। इस प्रकार अध्यापक और बच्चे की मौलिक तथा स्वतन्त्र अभिव्यंजना नहीं हो पाती। प्रबोधक साधन अवास्तविक और अप्राकृतिक हैं।

3. कल्पना शक्ति के प्रशिक्षण के प्रति अनुदार दृष्टिकोण- मॉण्टेसरी पद्धति में परियों की कहानियों का कोई स्थान नहीं। परियों की कहानियों का कल्पना शक्ति के विकास की दृष्टि से गहरा महत्व है। साहित्यिक दृष्टि से भी परियों की कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं।

4. प्रयोजन तथा समवाय के लिए कम स्थान- आधुनिक शिक्षण क्रम प्रयोजन द्वारा सभी विषयों के अध्यापन का समर्थन करता है। क्रिया द्वारा शिक्षा प्राप्ति आधुनिक शिक्षा पद्धति का रहस्य है, परन्तु मॉण्टेसरी पद्धति में बच्चों को प्रबोधक यन्त्रों तक ही सीमित रखा जाता है।

5. प्रशिक्षण के स्थानान्तरण में विश्वास-ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण का विचार मॉण्टेसरी प्रणाली का प्रमुख सिद्धान्त है, जो कि पुराना है। उसका विश्वास है कि विशिष्ट शक्ति की विशिष्ट ज्ञानेन्द्रिय के प्रशिक्षण से यह सम्भव हो सकेगा कि उसी प्रशिक्षण से दूसरी शक्ति द्वारा काम लिया जा सके। आधुनिक मनोविज्ञान इस विचार से सहमत नहीं।

6. अधिक खर्चीली-पॉण्टेसरी ने जिस प्रकार की शिक्षा संस्थाओं का समर्थन किया है, उन्हें बनाने के लिए अधिक धन की आवश्यकता है।

7. उपयुक्त अध्यापकों का अभाव-मान्टेसरी प्रणाली की सफलता ऐसे अध्यापकों पर निर्भर है जिन्हें बच्चों के मनोविज्ञान का गम्भीर अध्ययन हो तथा जो प्रयोगशाला कार्य में निपुण हों। ऐसे अध्यापकों का पर्याप्त मात्रा में मिलना बहुत कठिन है।

फ्रोबेल और मॉण्टेसरी के विचारों में तुलना

समानताएँ

1. भीतर से विकास करने का सिद्धान्त- दोनों ही शिक्षा शास्त्री बच्चे की अन्तप्रकृति के विकास का पक्ष लेते हैं। उनका कथन है कि शिक्षण का कार्य भीतरी प्रवृत्तियों को ही बाहर लाकर विकसित करना है।

2. बच्चे का सम्मान तथा स्नेह- दोनों ही महान् शिक्षाविद् यह चाहते हैं कि बच्चे को भरपूर प्यार दिया जाए। उसके व्यक्तित्व को आंका जाए और उसे सम्मानित किया जाए।

3. शिशु-शिक्षा के महत्व का समर्थन- फ्रोबेल तथा मॉण्टेसरी ने शिशु-शिक्षा के लिए नई पद्धतियाँ देकर पूर्व शिक्षालय शिक्षा क्षेत्र में क्रान्तिकारी कार्य किया है।

4. ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल-फ्रोबेल और मॉण्टेसरी ने ऐसे यन्त्रों का निर्माण किया है, जिनसे बच्चे की ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण होता है।

5. स्वस्थ वातावरण-दोनों ही शिक्षा शास्त्री इस बात पर बल देते हैं कि बच्चों को स्वस्थ वातावरण की सुविधा दी जाये ताकि उनकी अन्तः प्रवृति का यथोचित विकास हो सके।

विषमताएँ
फ्रोबेल की शिशु-विहार प्रणाली मान्टेसरी प्रणाली
1. दार्शनिक सिद्धान्तों पर आधारित-फ्रोबेल की शिक्षा-पद्धति उसके विचारों (दर्शन) पर निर्भर है। वह एक दार्शनिक था, जो बाद में शिक्षा की ओर झुक गया। उसके शिक्षा-सिद्धान्त को समझने के लिए पहले उसकी दार्शनिक विचारधारा को समझना आवश्यक है। 1. वैज्ञानिक पृष्ठभूमि – मॉण्टेसरी प्रणाली एक डॉक्टर तथा वैज्ञानिक के प्रयत्नों के फलस्वरूप उद्भूत हुई। अतः इसका मूल वैज्ञानिक है।
2. सामाजिक विकास-बच्चों को समूह में कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है। एक ही प्रकार के विषय सब बच्चों को इकट्ठे पढ़ाये जाते हैं। 2. सामाजिक विकास पर अपेक्षाकृत कम बल-इस प्रणाली में व्यक्तिगत विकास पर बल दिया जाता है, सामाजिक विकास पर कम।
3. उपहारों द्वारा ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण-शिशु-विहार प्रणाली में ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण निश्चित ‘उपहारों’ द्वारा होता है। प्रत्येक उपहार के साथ एक क्रिया जुड़ी रहती है, जिसे करता हुआ बच्चा प्रशिक्षित होता है। 3. प्रबोधक यन्त्रों द्वारा ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण-ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण के लिए यह प्रणाली प्रबोधक यन्त्रों का आयोजन करती है। ये प्रबोधक यन्त्र फ्रोबेल के उपहारों से नितान्त भिन्न हैं।
4. हस्त-कला का महत्व-इस प्रणाली में बागवानी, प्रकृति- अध्ययन तथा मिट्टी के मॉडलों का काफी स्थान है। 4. दैनिक जीवन की व्यावहारिक क्रियाओं पर बल- हस्तकला के अतिरिक्त इस प्रणाली में सफाई, धुलाई आदि को विशेष स्थान प्राप्त है। बच्चे अपना ध्यान स्वयं रखना सीखते हैं।
5. प्रयोग करने में सुविधा- इस विधि का प्रयोग बिना किसी यन्त्र की सहायता से हो सकता है। शिशु-विहार पद्धति के अनुसार शिक्षालय के चलाने के लिए किसी बहुत भारी यन्त्र की अथवा प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं है। 5. यन्त्रों की अनिवार्यता- मॉण्टेसरी पद्धति पर स्कूल चलाने के लिए बहुत कीमती यन्त्रों की आवश्यकता है। यन्त्रों के बिना स्कूल स्थापित नहीं हो सकता।
6. कल्पना शक्ति के विकास को स्थान- कल्पना शक्ति के विकास के लिए फ्रोबेल ने कहानी कहने की कला का समर्थन किया है। 6. परियों की कहानियों को स्थान नहीं- इस प्रणाली में परियों की कहानियों का कोई स्थान नहीं। जीवन की वास्तविकताओं को अधिक महत्व दिया जाता है।
7. श्रेणी-कक्ष अध्यापन- इस प्रणाली में कक्षा-अध्यापन आवश्यक है। निश्चित आवर्तन या समय विभाग चक्र के अनुसार सारा कार्य होता है। 7. व्यक्तिगत शिक्षा- यह पूर्ण रूप से व्यक्तिगत प्रणाली है। कोई निश्चित आवर्तन या समय-विभाग-चक्र नहीं होता। बच्चे अपनी रुचि और पसन्द के अनुसार अध्ययन के करते हैं।
8. साधारण योजना – इस पद्धति में साधारण लिखने-पढ़ने तथा गणित के अध्यापन की उपयुक्त व्यवस्था नहीं। 8. लम्बी-चौड़ी योजना- लिखने-पढ़ने तथा गणित के अध्ययन के लिए एक लम्बी-चौड़ी ब्योरेवार योजना का आयोजन इस पद्धति की अपनी विशेषता है।
9. खेल-कूद पर बल- फ्रोबेल पद्धति खेल-कूद के कार्यक्रमों पर अधिक बल देती है। सभी पाठों में गीतों, हावभावों और गतिविधियों पर अधिक बल दिया जाता है। 9. आत्म-शोधक यन्त्र – ये यन्त्र बच्चों के लिए रखे जाते हैं, जिनका बच्चे विशेष रूप से प्रयोग करते हैं। खेलने के लिए बच्चों को समय कम मिलता है।
10. नेता के रूप में अध्यापक- अध्यापक एक माली है, नन्हें मानव पौधों की देखभाल करता है। वह एक नेता है, जो उनका गीतों तथा दूसरी कार्य-विधियों में मार्गदर्शन करता है।
10. निर्देशिका के रूप में अध्यापक- निर्देशिका का कार्य बच्चों के लिए यान्त्रिक साधनों की सुविधा प्रदान करना है। तत्पश्चात् एक दर्शक के रूप में दूर से ही बच्चे की कार्यविधियों का निरीक्षण करना है। आवश्यकता पड़ने पर बच्चे का मार्गदर्शन करना है।

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Anjali Yadav

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