शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

लोकतन्त्र और शिक्षा में क्या सम्बन्ध है ? लोकतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षा विधियाँ

लोकतन्त्र और शिक्षा में क्या सम्बन्ध है ? लोकतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षा विधियाँ
लोकतन्त्र और शिक्षा में क्या सम्बन्ध है ? लोकतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षा विधियाँ

लोकतन्त्र और शिक्षा में क्या सम्बन्ध है ? लोकतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षा विधियों का उल्लेख कीजिए।

लोकतन्त्र और शिक्षा (Democracy and Education)

लोकतन्त्र जीवन की एक विधि है तथा शिक्षा मनुष्य को जीवन की विधि में प्रशिक्षित करने का साधन। अत: इनमें साध्य और साधन का सम्बन्ध है। हम जानते हैं कि साध्य तथा साधन एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं, साध्य की दृष्टि से साधन जुटाया जाता है और साधन के आधार पर साध्य का स्वरूप निश्चित होता है। लोकतन्त्र की प्राप्ति के लिए हमें एक विशेष प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती है। इस शिक्षा का स्वरूप निश्चित करने में हम कितना अधिक सफल हुए हैं, यह इस बात से ही पता चल सकता है कि हमने उसके द्वारा मनुष्य को लोकतन्त्रीय जीवन में किस सीमा तक प्रशिक्षित किया है। यह मूल्यांकन करने के बाद हम शिक्षा के स्वरूप में परिवर्तन करते हैं। इस प्रकार लोकतन्त्र शिक्षा के स्वरूप को तथा शिक्षा लोकतन्त्र के स्वरूप को निरन्तर प्रभावित करते रहते हैं।

यूँ तो किसी भी व्यवहार अथवा विचार के प्रचार एवं प्रसार के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है, परन्तु लोकतन्त्र की सफलता तो पूर्णरूपेण शिक्षा पर निर्भर करती है। शासन की अन्य प्रणालियों में बाह्य नियन्त्रण होता है, जिसके भय से मनुष्य एक विशेष प्रकार का व्यवहार करने लगते हैं, किन्तु लोकतन्त्र में मनुष्य स्वयं से शासित होता है। अतः उसके स्वयं के विचारों को उचित दिशा देना पहली आवश्यकता है। यह कार्य उचित शिक्षा के द्वारा ही किया जा सकता है।

शिक्षा के अभाव में न तो मनुष्य अपने अधिकारों से परिचित हो सकते हैं तथा न कर्त्तव्यों से। उनमें विचार करने एवं सत्य-असत्य में भेद करने की शक्ति का विकास भी नहीं किया जा सकता। तब वे देश के जागरूक नागरिक कैसे बन सकते हैं। अशिक्षित लोग अपने मताधिकार का सही प्रयोग नहीं कर पाते तथा परिणाम यह होता है कि ऐसे देशों में उचित सरकार का निर्माण नहीं हो पाता। तब राजनीतिक क्षेत्र में लोकतन्त्र की सफलता का प्रश्न ही नहीं उठता।

अशिक्षित मनुष्यों में प्राय: हीनभावना घर कर जाती है, वे आगे आ ही नहीं पाते। तब सामाजिक क्षेत्र में भी लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता। शिक्षा के अभाव में व्यावसायिक कुशलता का विकास भी नहीं किया जा सकता। तब अमीर तथा गरीब के बीच की खाई कैसे पायी जा सकती है। कहना न होगा कि शिक्षा के अभाव में आर्थिक क्षेत्र में भी लोकतन्त्र हैं नहीं पनप सकता। शिक्षा ही हममें सांस्कृतिक एवं धार्मिक सहिष्णुता का विकास कर सकती है। उसके अभाव में इन क्षेत्रों में भी लोकतन्त्र का प्रवेश असम्भव होता है। इस प्रकार लोकतन्त्र के लिए शिक्षा बहुत आवश्यक है। शिक्षा लोकतन्त्र की रीढ़ की हड्डी है।

लोकतन्त्र तथा शिक्षा का सम्प्रत्यय

लोकतन्त्र व्यष्टि और समाज दोनों को समान आदर की दृष्टि से देखता है। उसका विश्वास है कि व्यष्टि के द्वारा समाज का तथा समाज के द्वारा व्यष्टि का हित होता है। लोकतन्त्रीय दृष्टिकोण से शिक्षा एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है, है जिसके द्वारा व्यष्टि, समाज और राष्ट्र सभी का विकास किया जाता है।

लोकतन्त्र तथा शिक्षा के उद्देश्य

लोकतन्त्र की सफलता उसके नागरिकों पर निर्भर करती है। लोकतन्त्र व्यक्ति के वैयष्टिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार के विकास पर समान बल देता है, इस अपेक्षा के साथ कि उससे व्यष्टि, समाज और राष्ट्र सभी का हित हो। उसके अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिएँ-

1. स्वास्थ्य रक्षा तथा स्वास्थ्य वर्द्धन – लोकतन्त्र जीवन के व्यक्तित्व का आदर करता है और व्यक्ति के लिए स्वस्थ शरीर पहली आवश्यकता है। अतः लोकतन्त्र मनुष्य को अपने स्वास्थ्य की रक्षा एवं उसका संवर्द्धन करने में प्रशिक्षित करने पर बल देता है और इसे शिक्षा का एक उद्देश्य मानता है। हम जानते हैं कि उत्तम शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए उचित आहार-विहार और उचित आहार-विहार की आवश्यकता होती है। लोकतन्त्र इनकी शिक्षा पर बल देता है।

2. सांस्कृतिक विकास – यूँ लोकतन्त्र प्राचीन के प्रति मोह अथवा अर्वाचीन के प्रति आग्रह नहीं करता, लेकिन वह मनुष्य और उसकी सभ्यता एवं संस्कृति का आदर करता है और इसलिए प्रत्येक मनुष्य को उसकी अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के संरक्षण एवं उसमें विकास करने की स्वतन्त्रता देता है। यह तभी सम्भव है, जब मनुष्य को शिक्षा द्वारा अपनी सभ्यता और संस्कृति के मूल तत्वों से परिचित कराया जाए, उसके गुण-दोषों को समझने की उसमें शक्ति का विकास किया जाए और उसमें सुधार तथा विकास करने की उनमें क्षमता उत्पन्न की जाए। इस प्रकार लोकतन्त्र परोक्ष रूप में शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य का समर्थक है। पर इस सबकी शिक्षा वह उदार दृष्टिकोण से देने के पक्ष में है।

3. मानसिक विकास – लोकतन्त्र की सफलता उसके नागरिकों पर निर्भर करती है, उनके ज्ञान एवं कौशल पर निर्भर करती है, उनकी सूझ-बूझ और चातुर्य पर निर्भर करती है। लोकतन्त्र व्यक्तियों में इनके विकास पर बल देता है। लोकतन्त्र केवल ज्ञान, तथा कौशल की प्राप्ति में विश्वास नहीं करता है, वह ज्ञान एवं कौशल के व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के हित में प्रयोग करने पर विश्वास करता है और इसे आज शिक्षा के मानसिक विकास का उद्देश्य कहा जाता है।

4. नैतिक तथा चारित्रिक विकास – लोकतन्त्र शासन की एक प्रणाली ही नहीं है, यह जीवन की एक शैली है, इसके अपने कुछ सिद्धान्त हैं, नियम हैं और लोकतन्त्रीय समाज के सभी व्यक्तियों को इनका पालन करना होता है। नियमों के प्रति आस्था तथा उनके पालन को नैतिकता कहते हैं और इन नियमों के पालन की आन्तरिक शक्ति को चरित्र कहते हैं। नैतिकता एवं चरित्र मनुष्य का वह गुण है, जो उसे अपने हित के साथ-साथ दूसरों के हित की ओर अग्रसर करता है। इसके अभाव में कोई समाज बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सकता। यही कारण है कि लोकतन्त्र मनुष्यों के नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर बल देता है।

5. लोकतन्त्र और लोकतन्त्रीय नागरिकता की शिक्षा- आज संसार के प्रायः सभी देशों में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व है। तब राज्य का व्यक्तियों को शिक्षा द्वारा शासनतन्त्र की शिक्षा देना स्वाभाविक है। लोकतन्त्रीय राज्य लोकतन्त्र की शिक्षा तथा तद्नुकूल नागरिकता की शिक्षा देने पर बल देते हैं। लोकतन्त्र के तीन मूल सिद्धान्त हैं- स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातृत्व सर्वप्रथम तो लोकतन्त्र अपने नागरिकों को इनकी शिक्षा देने पर बल देता है। इसके बाद वह उन्हें प्रेम, सहानुभूति और सहयोग का पाठ पढ़ाता है, जिसके ऊपर लोकतन्त्र जीवित रहता है और चाहे जिस प्रकार का शासनतन्त्र हो वह राष्ट्रीय एकता के अभाव में राष्ट्र की रक्षा नहीं कर सकता, लोकतन्त्रीय राज्य भी। अतः लोकतन्त्र राष्ट्रीय एकता के विकास पर भी बल देता है। बस अन्तर इतना है कि लोकतन्त्र अन्धी राष्ट्रीयता का विरोधी है, वह सहअस्तित्व में विश्वास रखता है, इसलिए राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय भावना के विकास पर भी बल देता है।

6. राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति – लोकतन्त्र एक प्रगतिशील राजनीतिक विचारधारा है। यह जानती है कि समाज या राष्ट्र निरन्तर विकास करते हैं और उनकी आवश्यकताएँ तथा आकांक्षाएँ सदैव बदलती रहती हैं। इसकी दृष्टि से शिक्षा का एक उद्देश्य अथवा कार्य समाज की बदलती हुई आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ति करना होना चाहिए। इसके लिए उसे अपने भावी नागरिकों को शिक्षित एवं प्रशिक्षित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, आज हमारे देश के सामने बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या है, इसे रोकना अर्थात् जनसंख्या नियन्त्रण अब हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य है और इसके लिए अब हमने जनसंख्या शिक्षा की व्यवस्था की है। जब तक शिक्षा द्वारा बच्चों को बढ़ती हुई जनसंख्या से होने वाली हानियों के बारे में नहीं बताया जाएगा, वे जनसंख्या नियन्त्रण के प्रति सचेत कैसे होंगे।

7. वैयष्टिक एवं सामाजिक विकास और नेतृत्व की शिक्षा – लोकतन्त्र व्यष्टि और समाज दोनों को समान आदर की दृष्टि से देखता है और दोनों के समुचित विकास पर बल देता है। लोकतन्त्र का विश्वास है कि जब तक कोई समाज व्यष्टि की वैयष्टिक योग्यताओं का उच्चतम विकास कर उनका अधिकतम उपयोग नहीं करता, तब तक उसका विकास नहीं हो सकता तथा जब तक समाज का विकास नहीं होता, व्यष्टि को अपने विकास के अवसर सुलभ नहीं हो सकते। यही कारण है कि लोकतन्त्र व्यक्ति को अपनी रुचि, रुझान, योग्यता और आवश्यकतानुसार विकास करने के स्वतन्त्र अवसर प्रदान करता है और साथ ही उससे यह अपेक्षा करता है कि वह अपनी उच्चतम योग्यता (ज्ञान तथा कौशल) का प्रयोग अपना, समाज का और राष्ट्र का तीनों का हित सामने रखकर करेगा। लोकतन्त्र इस बात पर बल देता है कि लोग अपने-अपने क्षेत्र में निरन्तर विकास करें, आगे बढ़ें और योग्यतम व्यक्ति अपने-अपने क्षेत्र में नेतृत्व करें; कृषि, व्यापार, उद्योग, शिक्षा, विज्ञान और तकनीकी आदि सभी क्षेत्रों में नेतृत्व करें। इसलिए वह शिक्षा द्वारा बच्चों में नेतृत्व के गुणों का विकास करने पर भी बल देता है।

8. धार्मिक सहिष्णुता का विकास – धर्म से मनुष्य का कितना हित अथवा अहित हुआ है और हो रहा है, यह विवाद का विषय हो सकता है, पर संसार में अधिकतर लोग किसी न किसी धर्म को मानते हैं, यह तथ्य सब स्वीकार करते हैं। लोकतन्त्र व्यष्टि और समाज दोनों को समान दृष्टि से देखता है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक समाज को अपने-अपने धर्म को मानने की स्वतन्त्रता देता है पर इस विश्वास के साथ कि कोई भी धर्मावलम्बी किसी दूसरे धर्मावलम्बी के मार्ग में बाधा नहीं डालेगा। यह तभी सम्भव है, जब व्यक्तियों में धार्मिक सहिष्णुता हो। लोकतन्त्र अपने नागरिकों में शिक्षा द्वारा धार्मिक सहिष्णुता के विकास पर बल देता है।

लोकतन्त्र तथा शिक्षा की पाठ्यचर्या

पाठ्यचर्या तो उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन होती है। लोकतन्त्र व्यक्ति और समाज दोनों को समान दृष्टि से देखता है, दोनों के समान हित की बात सोचता है और दोनों के विकास पर समान बल देता है। इसलिए लोकतन्त्रीय समाजों या राष्ट्रों की शिक्षा की पाठ्यचर्या निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित होती है—

1. विशिष्ट एवं विस्तृत पाठ्यचर्या का सिद्धान्त – लोकतन्त्र व्यक्ति के व्यष्टित्व का आदर करता है, वह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि, रुझान, योग्यता तथा आवश्यकतानुसार विकास के समान अवसर प्रदान करने के पक्ष में है। जहाँ तक किसी समाज के व्यक्तियों की सामान्य आवश्यकताओं की बात है, उनकी पूर्ति के लिए वह सामान्य, अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा की बात करता है। पर इस स्तर की शिक्षा के बाद वह विशिष्ट शिक्षा की व्यवस्था पर बल देता है और इसकी पाठ्यचर्या बहुत विस्तृत बनाने पर बल देता है, जिसमें से बच्चे अपनी-अपनी रुचि, रुझान, योग्यता, क्षमता और आवश्यकताओं के अनुसार विषयों तथा क्रियाओं का चयन कर सकें। इसे हम विशिष्ट शिक्षा की विस्तृत पाठ्यचर्या का सिद्धान्त कह सकते हैं। आज स्थिति यह है कि अमेरिका में शिक्षा की पाठ्यचर्या में 300 से अधिक विषय और इतनी ही प्रकार की क्रियाओं को स्थान है।

2. क्रियाशीलता का सिद्धान्त – लोकतन्त्र मनुष्य को वास्तविक जीवन के लिए तैयार करने में विश्वास रखता है और इसीलिए शिक्षा की पाठ्यचर्या में उसके अपने जीवन से सम्बन्धित क्रियाओं को स्थान देता है। इसके अतिरिक्त वह इस बात पर भी बल देता है कि मनुष्य को जो कुछ भी सिखाया जाए, उसे वास्तविक परिस्थितियों में सिखाया जाए तथा क्रियाओं के माध्यम से सिखाया जाए। अतः पाठ्यचर्या में जो भी विषय सामग्री रखी जाए वह ऐसी हो, जिसे क्रिया द्वारा पूरा किया जा सके। इसे पाठ्यचर्या निर्माण का क्रियाशीलता का सिद्धान्त कहते हैं।

3. आधारभूत समान पाठ्यचर्या का सिद्धान्त – लोकतन्त्र शिक्षा को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार मानता है, इसलिए वह सर्वप्रथम प्रत्येक बच्चे के लिए एक निश्चित आयु तक की निश्चित स्तर की शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य तथा निःशुल्क रूप से करने पर बल देता है। इस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों को सामान्य जीवन जीने की योग्यता एवं क्षमता प्रदान करना होता है। साफ जाहिर है कि इस स्तर तक की शिक्षा की पाठ्यचर्या समान तथा अनिवार्य होगी। इसे हम आधारभूत समान पाठ्यचर्या का सिद्धान्त कह सकते हैं।

4. लचीलेपन का सिद्धान्त- लोकतन्त्र एक प्रगतिशील विचारधारा है। यह शिक्षा द्वारा बच्चों और युवकों को देश-विदेश “के अद्यतन ज्ञान-विज्ञान तथा तकनीकों से परिचित कराने पर बल देती है। वह इस बात पर बल देती है कि शिक्षा की पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए, जिसमें व्यष्टि, समाज अथवा राष्ट्र की तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अद्यतन ज्ञान-विज्ञान तथा तकनीकी को सरलता से स्थान दिया जा सके। इसे ही पाठ्यचर्या निर्माण का लचीलेपन का सिद्धान्त कहते हैं।

5. उपयोगिता का सिद्धान्त- लोकतन्त्र मनुष्य की भौतिक सुख-सुविधा का हामी है। वह शिक्षा की पाठ्यचर्या  में उन सब विषयों एवं क्रियाओं को स्थान देने के पक्ष में हैं, जिन्हें सीखकर मनुष्य अपना, समाज का तथा राष्ट्र का हित कर सकें, अपने लिए सुख-सुविधा जुटा सके, समाज के लिए सुख-सुविधा जुटा सके और राष्ट्र का विकास कर सके। इसे पाठ्यचर्या निर्माण का उपयोगिता का सिद्धान्त कहते हैं।

लोकतन्त्र तथा शिक्षण विधियाँ की लोकतन्त्र स्वतन्त्रता, क्रियाशीलता तथा प्रगतिशीलता का पोषक है। शिक्षा के क्षेत्र में वह पाठ्यचर्या के निर्माण में भी इन्हें स्थान देता है और शिक्षण विधियों को चुनाव भी इसी दृष्टि से करता है। लोकतन्त्र में अन्धविश्वासों को कोई स्थान नहीं होता। लोकतन्त्र अपने नागरिकों से यह आशा करता है कि वे अपने समाज की सांस्कृतिक धरोहर को अपने समाज से ग्रहण तो करें पर उसे अपने अनुभवों की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करें। लोकतन्त्र के नागरिकों में इस दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए यह आवश्यक होता है कि बच्चे जो कुछ भी सीखें स्वयं करके सीखें। उसके लिए स्वयं निरीक्षण करें, स्वयं प्रयोग करें तथा स्वयं निर्णय निकालें। इस दृष्टि से लोकतन्त्रीय देशों में निरीक्षण, प्रयोगशाला और अन्वेषण विधियों का महत्व अधिक होता है। लोकतन्त्र ज्ञान को एक इकाई मानता है और उसे व्यवहार से अलग करके नहीं देखता, इसलिए वह सह-सम्बन्ध विधि के प्रयोग को बढ़ावा देता है। ये सब गुण प्रोजेक्ट, डाल्टन, माण्टेसरी, किण्डरगार्टन और बेसिक शिक्षण विधि में पाए जाते हैं, इसलिए लोकतन्त्रीय देशों में इन और इसी प्रकार की अन्य शिक्षण विधियों का प्रयोग होता है।

लोकतन्त्र तथा अनुशासन लोकतन्त्र में अनुशासन बाहरी भय द्वारा कायम की गई व्यवस्था नहीं होती, अपितु प्रेम, सहानुभूति और सहयोगपूर्ण जीवन के आधार पर विकसित की गई एक अन्त प्रेरणा होती है, जिसके कारण मनुष्य सामाजिक व्यवहार करता है। विद्यालयों में इसका प्रशिक्षण देने के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालयों को पर्यावरण प्रेम, सहानुभूति तथा सहयोगपूर्ण हो, यहाँ सभी अध्यापक बच्ची को पग-पग पर सहायता करें। ऐसे पर्यावरण में बच्चे समाज सम्मत आचरण ही करेंगे। लोकतन्त्र तथा शिक्षक लोकतन्त्र का विश्वास है कि यदि समाज को योग्य तेता मिल जाएँ और उसके नागरिक प्रेम व सहयोग से कार्य करें तो वह समाज तीव्र गति से प्रगति करता है। यही कारण है कि लोकतन्त्र में अध्यापक को बच्चों का नेता तथा सहयोगी माना जाता है। उससे यह आशा की जाती है कि वह बच्चों के व्यष्टित्व का आदर करे, उनका मार्गदर्शन करे और उनकी प्रगति में सहायक हो। लोकतन्त्र में अध्यापक को एक चिराग माना जाता है, जिसकी रोशनी में बच्चे अपने गन्तव्य तक पहुँचते हैं। कहना न होगा कि एक लोकतन्त्रीय देश के अध्यापक की लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था में पूर्ण आस्था होनी चाहिए। प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, दया, क्षमा, सहनशक्ति, कर्त्तव्यनिष्ठा तथा क्रियाशीलता आदि सामाजिक गुणों से पूर्ण एवं परहित में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही लोकतन्त्रीय देश का सच्चा अध्यापक हो सकता है।

लोकतन्त्र तथा शिक्षार्थी

लोकतन्त्र मानव को संसार की अमूल्य वस्तु मानता है और उसके व्यष्टित्व का आदर करता है। शिक्षा के क्षेत्र में वह प्रत्येक बच्चे के व्यष्टित्व का आदर करता है और शिक्षा की उसकी रुचि रुझाने तथा आवश्यकतानुसार नियोजित करता है। इस प्रकार लोकतन्त्र में बालक शिक्षा का केन्द्र होता है, उसे अपनी रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकतानुसार विषय तथा क्रियाओं का चुनाव कर अपने वैयष्टिक विकास की सुविधा प्रदान की जाती है। लोकतन्त्रीय समाज का यह कर्त्तव्य होता है कि वह अपने देश के सभी बच्चों के लिए समान रूप से शैक्षिक सुविधाएँ सुलभ कराए लोकतन्त्र तथा विद्यालय विद्यालय एक औपचारिक शिक्षा संस्था है, जिसका निर्माण समाज अपने आदर्शों की पूर्ति के लिए करता है। लोकतन्त्र में विद्यालयों का निर्माण बच्चों को लोकतन्त्रीय आदर्शों के अनुसार विकसित करने के लिए किया जाता है। लोकतन्त्र में विद्यालयी जीवन तथा सामाजिक जीवन के बीच कोई खाई नहीं होती। विद्यालयों से यह आशा की जाती है कि वे प्रत्येक बच्चे के व्यष्टित्व का आदर करें और उनकी रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकतानुसार उन्हें विषय तथा क्रियाओं के चुनाव की सुविधाएँ प्रदान करें और उनकी व्यष्टिगत योग्यताओं को इस रूप में विकसित करें कि उनसे उनका अपना, समाज का, राष्ट्र का और अन्ततोगत्वा समूचे संसार का कल्याण हो। इसके लिए विद्यालयों को विस्तृत पाठ्यचर्या की व्यवस्था करनी होती है, शिक्षण विधियों में स्वतन्त्रता, क्रियाशीलता तथा स्वयं करके सीखने की सुविधाएँ प्रदान करनी होती हैं, सहपाठ्यचारी क्रियाओं का आयोजन करना होता है, अपने समस्त कार्यों को सहयोग के साथ चलाना होता है, बच्चों को विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता देनी होती है और एक ऐसा सामाजिक पर्यावरण देना होता है, जिसमें व्यक्ति स्वार्थ से उठकर अपने हित के साथ-साथ समाज हित को भी सामने रखता है। इन आदर्शों की प्राप्ति के लिए विद्यालयों का एक बड़ा उत्तरदायित्व होता है, जिसका निर्वाह वे तभी करते हैं जब-

1. वे सभी बच्चों को उनकी रुचि, रुझान, योग्यता तथा आवश्यकता के अनुसार विकास के पूरे अवसर प्रदान करें। इसके लिए विद्यालयों को बच्चों के पर्यावरण, उनके परिवार तथा उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को समझना होता है तथा उनकी रुचियों एवं योग्यता की परख करनी होती है। यह कार्य वे तभी कर सकते हैं, जब उनके पास इन क्रियाओं में प्रशिक्षित अध्यापक हों। इसके लिए विद्यालयों में मनोवैज्ञानिक केन्द्र होने चाहिएँ ।

2. वे सभी बच्चों के लिए शिक्षा को सुलभ करें। इसके लिए उनके पास पर्याप्त भवन, शिक्षण सामग्री, खेल के मैदान और योग्य अध्यापक आदि होने आवश्यक होते हैं।

3. उनका पर्यावरण लोकतन्त्रात्मक हो। उनके सभी सदस्य प्रेम, सहानुभूति और सहयोग से कार्य करते हों। इसके लिए समाज, सरकार और विद्यालयों के बीच सहयोग होना चाहिए। विद्यालयों में भी प्रबन्धकों, प्रधानाध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों के बीच प्रेम होना चाहिए और वे सहयोग से कार्य करें। यह भी आवश्यक है कि वे सभी बच्चों के साथ प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें।

4. अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे से बँधे होते हैं। बच्चे सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन तभी कर सकते हैं, जब उन्हें सामाजिक अधिकार भी प्राप्त हों। इसके लिए बच्चों के व्यष्टित्व के आदर की बात हम पहले ही कह चुके हैं और इस दृष्टि से बच्चों के विकास के लिए समान सुविधाएँ प्रदान करने पर विशेष बल दे चुके हैं।

5. उनका जीवन, सामाजिक जीवन को अंगीकार करे। इसके लिए उनमें केवल पुस्तकीय ज्ञान की ही व्यवस्था न हो, अपितु खेल-कूद, व्यायाम, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक क्रियाओं का भी आयोजन हो, जिनमें बच्चे मिल-जुलकर कार्य करें और लोकतन्त्रीय जीवन का प्रशिक्षण प्राप्त करें। स्वसरकारों का निर्माण कर बच्चों को अपनी व्यवस्था अपने आप करने का प्रशिक्षण भी देना आवश्यक होता हैं।

लोकतन्त्र और शिक्षा के अन्य पहलू

लोकतन्त्र की सफलता का मूल आधार शिक्षा होती है, इसलिए लोकतन्त्र जन शिक्षा पर सबसे अधिक बल देता है। इसके लिए वह सर्वप्रथम एक निश्चित आयु तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करता है। वह पुरुष तथा महिलाओं में भेद नहीं करता, इसलिए दोनों के लिए समान शिक्षा की व्यवस्था करता है।

परन्तु देखा यह गया है कि लाख प्रयत्न करने पर भी कुछ बच्चे इस अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा को प्राप्त नहीं करते और बड़े होकर वे निरक्षर प्रौढ कहलाते हैं। शिक्षा के अभाव में ये प्रौढ़ अपने जीवन में वह सफलता प्राप्त नहीं करते, जो वे शिक्षा प्राप्त करने के बाद कर सकते थे। वे अपने मताधिकार का भी सही प्रयोग नहीं करते। इसी कारण से लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली वाले देशों में स्त्री शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

देश के प्रत्येक नागरिक को तभी साक्षर एवं शिक्षित किया जा सकता है, जब उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्रदान किए जाएँ। शैक्षिक अवसरों की समानता लोकतन्त्र का नारा है। अतः यहाँ उस पर अलग से प्रकाश डालना आवश्यक है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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