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विकास को प्रभावित (निर्धारित) करने वाले तत्व
विकास को प्रभावित (निर्धारित) करने वाले तत्व विकास स्वयं में एक प्रक्रिया है और इसे अनेक कारक प्रभावित करते हैं। ये कारक निम्नलिखित हैं।
1. मानसिक योग्यता –
व्यक्ति के विकास में बुद्धि एक महत्पूर्ण प्रभावक तत्व है। बुद्धि जन्मजात कारक है। जिस व्यक्ति में कुशाग्र बुद्धि होती है, उसका शारीरिक तथा मानसिक विकास तेजी से होता है। टर्मन ने एक सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला कि कुशाग्र बालक 13 माह में, औसत बालक 14 माह में, मन्द बुद्धि बालक 25 माह में तथा मूर्ख बालक 30 माह में चलना सीखता है। इसी प्रकार बोलने, भाषा विकास, शब्द भण्डार तथा वाक्य निर्माण में भी औसत तीव्रता पायी जाती है।
हरलॉक के अनुसार, “उच्च स्तर की बुद्धि विकास को तीव्रगामी बनाती है और निम्न स्तर की पिछड़ेपन से सम्बन्धित होती है।”
2. यौन-भिन्नता –
यौन भिन्नता भी विकास को प्रभावित करती है। लड़के तथा लड़कियों की विकास प्रक्रिया के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि लड़कियों का विकास लड़कों की अपेक्षा शीघ्र हो जाता है। विवेक शक्ति भी शीघ्र जागृत हो जाती है। प्रजनन शक्ति भी उनमें शीघ्र हो जाती है।
3. अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ –
व्यक्ति के शरीर में कुछ ग्रन्थियाँ होती है। गल ग्रन्थि, उपगल ग्रन्थि, शीर्ष ग्रन्थि, ग्रीवा ग्रन्थि, प्रभुत्व ग्रन्थि, एड्रीनल ग्रन्थि तथा यौन ग्रन्थि में एक प्रकार का रस निकलता है। इन रसों की कमी या अधिकता से व्यक्तित्व में दोष उत्पन्न हो जाते हैं। यथा पुरुषों की आवाज स्त्रियों जैसी हो जाना, लड़कियों के दाढ़ी-मूछें आ जाना आदि। यौन ग्रन्थियों के अधिक सक्रिय होने से लैंगिक विकास शीघ्र होने लगता है।
4. प्रजाति या वर्ण-
प्रजातीय कारक भी व्यक्ति के विकास में सहायक होता है। श्वेत प्रजाति का विकास काली प्रजातिवालों की अपेक्षा शीघ्र होता है। भारत में प्रजाति की समस्या वर्ण के समानान्तर रही। ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र का विकास भिन्न गति से होता है। यद्यपि वर्ण व्यवस्था समाज व्यवस्था का मूल एवं उपयोगी अंग है किन्तु व्यक्ति के विकास को प्रभावित करने में इस व्यवस्था का विशेष योगदान है। देखा गया है कि उच्च कहे जाने वाले वर्णों के व्यक्तियों का सर्वागीण विकास शीघ्र होता है तथा निम्न वर्णों का विकास देर से होता है।
5. जन्म-क्रम –
एक परिवार में यदि बच्चों की संख्या अधिक है तो प्रत्येक बालक का विकास भिन्न गति तथा प्रकार से होता है। पहले बालक का विकास तेजी से होता है और शेष अनुक्रमवालों का धीमीगति से परिवार में सबसे छोटे बालक का विकास धीमी गति से होता है।
6. पोषण –
व्यक्ति के विकास के लिए सन्तुलित पोषण अत्यावश्यक होता है। जिन बालकों को सन्तुलित आहार नहीं मिलता, वे कुपोषण में पलतें हैं उनमें अनेक संवेग तथा विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जो बालक सन्तुलित आहार लेते हैं उनका शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार का विकास सन्तुलित रूप में होता है। विटामिन, प्रोटीन, कैल्शियम, कार्बोहाइड्रेट, फैट आदि शरीर के विभिन्न अंगों को विकसित करने में योग देते हैं। सूर्य का प्रकाश तथा शुद्ध वायु भी पोषण का महत्पूर्ण अंग है। जिन मकानों में सूर्य तथा वायु की पहुचें है, वहाँ के निवासी स्वस्थ रहते हैं।
7. आघात एवं रोग-
प्रायः देखा गया है कि गर्भ काल में उदरस्थ शिशु को लगी चोट उत्पन्न होने के बाद उसके विकास को अवरुद्ध कर देती है। शैशव या बाल्यावस्था में खेल-खेल में सिर आदि में लगी चोट मानसिक विकास को अवरुद्ध कर डालती है। इसी प्रकार लम्बी बीमारी, टाइफाइड, मलेरिया या अन्य सांघातिक रोग भी शारीरिक तथा मानसिक विकास को अवरुद्ध कर डालते हैं।
8. वातावरण-
व्यक्ति का विकास पारिवारिक तथा सामाजिक वातावरण में होता है। इसी वातावरण में उसका विकास होता है। पारिवारिक वातावरण में घर में बच्चों की संख्या, शिक्षा का स्तर, पारिवारिक सम्बन्ध, बच्चों का जन्म-क्रम प्रत्येक व्यक्ति के विकास को प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार सामाजिक वातावरण में यदि तनाव है तो व्यक्ति में कुण्ठाएँ, असुरक्षा की भावना आदि उत्पन्न होगी। विद्यालय में यदि पक्षपात आदि का वातावरण है तो बालक का शैक्षिक विकास अवरुद्ध हो जायेगा। उपर्युक्त वातावरण व्यक्ति में अनेक शीलगुणों को विकसित करता है।
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