“वुड का घोषणा-पत्र भारतीय शिक्षा का महाधिकार पत्र है।” इस कथन के संदर्भ में घोषणा-पत्र का मूल्यांकन कीजिए।
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भारतीय शिक्षा का महाधिकार पत्र क्यों?
जेम्स महोदय ने इस घोषणा पत्र को “भारतीय शिक्षा महाधिकार पत्र” कहकर अलंकृत किया है। “महाधिकार पत्र” उस राजकीय पत्र को कहते हैं जो नागरिकों को कुछ अधिकार तथा विशेषाधिकार प्रदान करता है। यहाँ पर अब हम लोगों को देखना चाहिए कि वुड के घोषणा पत्र ने जनता को कौन-कौन से शैक्षिक अधिकार तथा सुविधाएँ प्रदान की, जिसके कारण हम इसे शैक्षिक अधिकार-पत्र कह सकते हैं-
(1) सरकार की शिक्षा नीति की यह प्रथम अधिकार पूर्ण घोषणा है। इसके द्वारा सरकार जन-शिक्षा के लिए जिम्मेदार हो गयी।
(2) इस घोषणा पत्र में धर्म निरपेक्ष शिक्षा की उदार नीति अपनायी गयी। अतएव प्रत्येक धर्म का छात्र शिक्षा संस्थाओं में बिना किसी प्रकार के भेद-भाव के शिक्षा ग्रहण कर सकता है। सहायता अनुदान उन्हीं विद्यालयों को दिया जायेगा जो धार्मिक तटस्थता की नीति अपनायेंगे।
(3) इस घोषणा पत्र ने पहली बार शिक्षा छनाई के सिद्धांत को ठुकराया और जनसाधारण की शिक्षा पर बल दिया।
(4) निरीक्षकों की नियुक्ति तथा सहायता अनुदान प्रणाली द्वारा घोषण-पत्र ने न केवल शिक्षा के विकास में ही योग दिया बल्कि उसे सुदृढ़ तथा उत्कृष्ट बनाया।
इस घोषणा पत्र की प्रशंसा करते हुए एस०एन० मुकर्जी का कथन है कि “यह घोषणा पत्र भारतीय शिक्षा का शिलाधार है। भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का शिलन्यास इसी ने किया।”
एक दूसरे स्थान पर उन्होंने कहा है कि “इसके द्वारा शिक्षा की व्यवस्था संगठित एवं सुव्यवस्थित रूप को प्राप्त हुई। शिक्षा का उद्देश्य निर्धारित हुआ, धर्म के प्रति सरकार की धारणा निश्चित की गयी, जन-शिक्षा, औद्योगिक शिक्षा तथा स्त्री शिक्षा के प्रसार को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया।” एच०आर० जेम्स महोदय का कथन है कि 1854 में घोषणा पत्र का भारतीय शिक्षा के इतिहास में सर्वोत्कृष्ट स्थान है। जो कुछ इसके पूर्व हुआ वह इसकी ओर संकेत करता है और जो कुछ इसके बाद हुआ इससे निकला है।”
शिक्षा का यह घोषणा पत्र ऐतिहासिक प्रलेखों के प्रक्रम में अन्तिम सीढ़ी है जिसके अन्तर्गत ग्रान्ट के विचार, 1813 के आज्ञा-पत्र की 43वीं धारा, लार्ड मिन्टो, लार्ड म्योरा, सर चार्ल्स मेटकाल्फ, एलफिस्टन, मुनरो, मैकाले तथा आकलैंड के विवरण पत्र सम्मिलित हैं। यह भारतीय शिक्षा के इतिहास के द्वितीय युग का समापन है, जिसमें आधुनिक शिक्षा प्रणाली का शिलान्यास हुआ है। यह एक मंच प्रदान करता है जहाँ से अतीत के ऊपर हम दृष्टि डाल सकते हैं और जैसा कि परांजपे का कथन है कि यह हमको शैक्षिक उद्देश्य की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है, को जानने तथा पता लगाने के योग्य बनाता है।
घोषणा पत्र को महाधिकार पत्र कहना उचित नहीं
किन्तु इतना सब होते हुए भी हमें घोषणा-पत्र के प्रणेताओं के विषय में किसी प्रकार की भ्रांत धारणा नहीं रखनी चाहिए। निःसंदेह घोषणा-पत्र ने तत्कालीन आदर्शों के अनुसार सुन्दर शैक्षिक योजना के विकास में सराहनीय प्रयत्न किया। किन्तु ये आदर्श अब इतने पुराने हो चुके है कि अब इनके द्वारा निर्देशित होने में भारत को अधिक सहायता नहीं मिल सकती। इसलिए इस घोषणा-पत्र को शिक्षा का महाधिकार पत्र कहना अतिश्योक्ति पूर्ण होगा। नूरल्लाह तथा नायक ने ठीक कहा है, इमें इन अतिश्योक्तिपूर्ण शब्दों में, जिनमें कुछ इतिहासकारों ने घोषणा पत्र का वर्णन किया है और इसे भारतीय शिक्षा का महाधिकार-पत्र कहा है, कोई औचित्य नहीं दिखायी देता है।”
इस घोषणा पत्र को हम निम्नलिखित न्यूनताओं के कारण भारतीय शिक्षा को महाधिकार-पत्र नहीं कह सकते-
(1) यह घोषणा पत्र सार्वजनिक शिक्षा के आदर्शों तक की भी बातचीत नहीं करता, यद्यपि यह आशा अवश्य करता है कि शिक्षा का प्रसार सहायता अनुदान प्रणाली के कारण भारत के विस्तृत भागों में होगा।
(2) यह राज्य को एक निश्चित अवस्था के नीचे के सभी बालकों को शिक्षित करने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराता।
(3) यह इस बात की घोषणा नहीं करता कि गरीबी प्रतिभाशाली बालकों की शिक्षा में बाधा न होगी।
(4) यद्यपि डिस्पैच के अनुसार शिक्षा का ध्येय सरकारी नौकरी ही प्राप्त करना नहीं है, तथापि इसके प्रणेतागण नेतृत्व के लिए शिक्षा, भारत के औद्योगिक विकास के लिए शिक्षा, मातृभूमि की रक्षा के लिए शिक्षा आदि की चर्चा भी नहीं करते।
(5) सन् 1854 में इस घोषणा पत्र का महत्त्व चाहे जो कुछ भी रहा हो, किन्तु सन् 1972 ई० में इसे महाधिकार पत्र कह करके सम्मानित करना हास्यास्पद है।
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