शैशवावस्था में बालक के शारीरिक विकास का वर्णन कीजिए।
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शैशवावस्था में शारीरिक विकासः इस अवस्था में शारीरिक विकास (Development of External Organs)
शरीर के बाह्य अंगों का वर्णन निम्न हैं-
(1) लम्बाई (Length) – जन्म के प्रथम दो वर्षो में शारीरिक विकास की गति अति तीव्र होती है। हरलॉक के अनुसार जन्म के प्रथम चार माह में शिशु सामान्यत: तीन इंच बढ़ता है। 8 माह की अवस्था में वह लगभग 25 से 27 इंच लम्बा हो जाता है। दूसरे वर्ष में लगभग 4 इंच और लम्बा होकर 32 इंच लम्बा हो जाता है।
(2) भार (Weight) – जन्म के तुरन्त बाद नये वातावरण से समायोजन न कर पाने के कारण बालक के जन्म के भार में कमी आ जाती है किन्तु जन्म के चौथे माह से पुनः उसके भार में वृद्धि होने लगती है। जन्म के चौथे सप्ताह में वह लगभग जन्म से दो गुना भार प्राप्त कर लेता है। फलस्वरूप चार माह के शिशु का वजन लगभग 6.5 से 7.0 किलोग्राम हो जाता है और इसी क्रम में वृद्धि करते हुए 1 वर्ष के शिशु का भार जन्म के भार का तिगुना हो जाता है।
दूसरे वर्ष में भार की वृद्धि धीमी गति से होती है। क्योंकि बालक की ऊर्जा चलने-फिरने, उठने-बैठने और खलेने में व्यय होती रहती है।
(3) शारीरिक अनुपात (Physical Proportion) – जन्म के पश्चात् बच्चे का शरीर केवल आकार में ही नहीं बढ़ता अपितु शरीर के विभिन्न अंगों का अनुपात भी बढ़ता रहता है। किसी निश्चित आयु पर पहुँचने पर ही शरीर के अंग अपना निश्चित अनुपात ग्रहण कर पाते हैं-
सिर का आनुपातिक विकास (Development of the Head) – जब शिशु जन्म लेता है उस समय उसके सिर की लम्बाई का 25 प्रतिशत होती है। 2 वर्ष के बालक के सिर का विकास बहुत तीव्र गति से होता है। लेकिन दो वर्ष का पूरा होने पर यह विकास रुक जाता है।
चेहरे का आनुपातिक विकास (Development of Face) – जन्म के समय शिशु का चेहरा सिर की अपेक्षा छोटा होता है। क्योंकि इस समय बालक के दाँत नहीं होते हैं। 5-6 माह बाद जब दूध के दाँत निकलना प्रारम्भ हो जाते हैं तो चेहरे का निचला हिस्सा भरा हुआ दिखायी देता है।
अस्थियों का विकास (Development of Bones) – शरीर के आकार की भाँति अस्थियों का विकास भी प्रारम्भिक दो वर्षों में तेजी से होता है और उसके बाद धीमा हो जाता है। जन्म के समय अस्थियाँ लचीली हो जाती है क्योंकि कार्टिलेज की बनी होती है किन्तु बाद के विकास क्रम में जब इन पर कैल्शियम फास्फेट संग्रहीत होने लगता है तो ये मजबूत हो जाती हैं। | इसलिए अस्थियों की मजबूती के लिए शिशु आहार में कैल्शियम, फास्फोरस तथा विटामिन ‘डी’ की आवश्यकता होती है। जन्म के समय शिशु शरीर में लगभग 270 अस्थियाँ होती हैं। एक वयस्क व्यक्ति के शरीर में कुल 206 अस्थियाँ होती है।
धड़ आनुपातिक विकास (Development of Trunk) – जन्म के समय शिशु की छाती गोलाकार, गर्दन छोटी तथा कन्धे ऊँचे होते हैं परन्तु बचपनावस्था के विकास क्रम में सिर व धड़ के बीच गर्दन और अधिक स्पष्ट होने लगती है और छाती चौड़ी हो जाती है।
हाथ व पैरों का आनुपातिक विकास (Development of Arm and Legs) – नवजात शिशु के हाथ पैर छोटे व मुड़े हुए होते हैं, उंगलियाँ छोटी तथा कोमल होती हैं क्योंकि अस्थियाँ पूरी तरह विकसित नहीं होती है। जन्म के बाद हाथ पैरों का विकास तीव्र गति से होता है। दो वर्ष की अवस्था तक पैर जन्म की अपेक्षा 4% विकसित हो जाते हैं। जन्म के समय शिशुओं की टांगे बाहों की तुलना में छोटी होती है किन्तु बाद में टांगों का विकास तीव्र गति से होता है और बांहों का मन्द पड़ जाता है।
(4) माँसपेशियाँ तथा वसा ऊतक (Muscles and Adipose Tissue) – नवजात शिशु की माँसपेशियाँ कोमल, अविकसित तथा अस्थियों से चिपकी रहती हैं, फलस्वरूप शिशु की क्रियाओं में शिथिलता पायी जाती है और उनमें सन्तुलन का आभाव रहता है किन्तु धीरे-धीरे इनकी लम्बाई और मोटाई का विस्तार होने लगता है। माँसपेशियों की मोटाई जितनी अधिक होती है, शारीरिक शक्ति का विस्तार उतना ही अधिक होता है।
सम्पूर्ण शरीर की माँसपेशियों पर वसा की तह जमी रहती है जो शरीर को सुडौलता प्रदान करती है। किसी भी बालक में वसा की मात्रा उसके वंशानुक्रम, शरीर रचना तथा आहार पर निर्भर करती है। जन्म से दो वर्ष तक वसा की मात्रा बढ़ती है फिर घट जाती है।
(5) दाँत (Teeth) – प्रत्येक बालक के जीवन में दाँतों का विकास दो बार होता है। पहली बार दाँत जन्म के 6-7 माह बाद निकलना प्रारम्भ होते हैं। 2-21/2 वर्ष की अवस्था तक 20 दाँत निकल आते हैं। ये दाँत दूध के दाँत या अस्थायी दाँत कहलाते हैं। इन दाँतों की संख्या 20 होती है। ये 6-7 माह बाद मसूड़ों से बाहर निकलते हैं। इन दाँतों की प्रकृति अस्थायी होती है। अतः ये 6-7 वर्ष की आयु से गिरना प्रारम्भ हो जाते है जिनका स्थान स्थायी दाँत लेते हैं।
(6) नाड़ी संस्थान का विकास (Development of the Nervous System) – वैज्ञानिकों के अनुसार जन्म के समय शिशु का मस्तिष्क वयस्क का 1/4 होता है और नौ माह का पूर्ण होते-होते यह भार वयस्क भार का 1/2 हो जाता है और दूसरे वर्ष के अन्त तक यह भार 3/4 हो जाता है। मस्तिष्क की यह तीव्र गति से वृद्धि मस्तिष्क के दोनों भागों सेरीब्रम और सेरीबिलम दोनों में होती है। सैरीबिलम जो कि शरीर के सन्तुलन को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसका भार जन्म के प्रथम वर्ष में 300 गुना बढ़ जाती है।
(7) ज्ञानेन्द्रियों का विकास (Development of Sense Organs) – वास् मैं ज्ञानेन्दियों का विकास भी तीव्र गति से होता है। साथ ही सभी ज्ञानेन्द्रियों और प्रभावी ढंग से अपना कार्य प्रारम्भ भी कर देती हैं :
दृष्टि – तीसरे माह में आँखों की माँसपेशियों में पूर्ण परिपक्वता आ जाती है जिसमे बच्चा आसानी से विभिन्न वस्तुओं को साफ साफ देख सकता है। तेज प्रकाश तथा गहरे रंग को वस्तु को देखने पर दृष्टि वस्तु की गति का अनुसरण करती है।
श्रवण – शैशवावस्था में सुनने की शक्ति का भी पर्याप्त मात्रा में विकास हो जाता है। 2 माह की अवस्था में ही बालक विभिन्न आवाजों को पहचानने लगता है और 3-4 माह का शिशु आवाजों के प्रति आकर्षित होकर उनके प्रति प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है।
स्वाद, गंध और पीड़ा – स्वाद, गंध, पौड़ा ये तीनों ही संवेदनायें जन्म के समय पूर्ण रूप से विकसित होती हैं और शैशवावस्था में इनका विकास और अधिक हो जाता है।
आन्तरिक अवयवों का विकास
(1) पाचन तन्त्र (Digestive System) – शैशवावस्था में बच्चों का पाचन तंत्र पूरी तरह परिपक्व नहीं होता है। इसके कारण से बच्चों की पाचन शक्ति वयस्कों के समान नहीं होता है। बच्चों के पेट का आकार छोटा होता है। इसलिए भोजन ग्रहण करने की क्षमता कम होती है। अतः थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल पर कई बार भोजन देना पड़ता है। जन्म के समय बालक के पेट की क्षमता 1 औंस होती हैं। 2 सप्ताह में बढ़कर 21/2 औस और एक माह का पूर्ण होने तक यह क्षमता 3 औंस हो जाती है।
(2) श्वसन तन्त्र (Respiratory System) – जन्म के समय शिशु के फेफड़े हो तथा अविकसित होते हैं। शिशु के प्रथम क्रन्दन से ही फेफड़ों का विकास और श्वसन किया प्रारम्भ होता है। जन्म के समय सिर की परिधि छाती की परिधि छाती की परिधि से बड़ी होती है। किन्तु दो वर्ष की अवधि में सिर और छाती की परिधि बराबर हो जाती है और फेफड़ों के आकार में भी वृद्धि होती जाती है। फेफड़ों का आकार बढ़ने से साँस लेने की क्षमता बढ़ जाती है और श्वसन दर कम हो जाती है।
(3) रक्त परिसंरचण तन्त्र (Circulatory System) – रक्त परिसंचरण तन्त्र के अन्तर्गत हृदय तथा रक्तवाहिनी नलिकायें सम्मिलित रहती हैं। जन्म के समय रक्त वाहिका छोटो तथा पतली होती हैं। हृदय छोटा तथा छाती में ऊँची स्थिति में रहता है किन्तु शारीरिक अनुपात में यह अधिक भारी तथा बड़ा होता है। जन्म के बाद हृदय तथा रक्त वाहिनियों का विकास तीव्र गति से होता है।
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