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शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development During Infancy)
जन्म से पूर्व ही शिशु अप्रत्यक्ष रूप से समाज से प्रभावित होता है। जन्म लेने के पश्चात् भी समाज के अभाव में उसका अस्तित्व बना नहीं रह सकता। आरम्भ में वह केवल संवेदनात्मक और शारीरिक क्रियायें करता है किन्तु बाद में जैसे-जैसे उसकी आयु में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे सामाजिक प्रतिक्रियाएँ बढ़ जाती हैं। यहाँ पर हम पहले शैशवावस्था में अर्थात् जन्म से 2 वर्ष तक की आयु में शिशु की सामाजिक प्रतिक्रियाओं के विकास पर प्रकाश डाल रहे हैं।
जन्म से 2 माह तक – ढाई माह के पूर्व बालक जो प्रतिक्रियाएँ करता है, उन्हें यद्यपि सामाजिक प्रतिक्रियाएँ नहीं कहा जा सकता है किन्तु ये प्रतिक्रियाएँ सामाजिक प्रतिक्रियाओं के आधार का कार्य करती हैं। इस आयु में शिशु केवल गहन उद्दीपन; जैसे- तीव्र ध्वनि, तीव्र प्रकाश तथा प्रकाश और स्पर्श के प्रति ही अपनी प्रतिक्रियाएँ दिखाता है। इसी प्रकार रोने, मुस्कराने, सिर डुलाने, आँखों की पुतलियों को घुमाने आदि की क्रियाएँ यद्यपि सामाजिक नहीं होती हैं किन्तु ये दूसरे का ध्यान आकर्षित करने का साधन बन जाती हैं। इसी प्रकार शिशु को जो व्यक्ति दुग्धपान कराता, उठाता, नहलाता और वस्त्र पहनाता है उसे शिशु पहचानता नहीं है किन्तु उसे किसी वस्तु अथवा प्राणी की संवेदना होने लगती है।
2 से 5 माह तक – ढाई माह की आयु के पश्चात् शिशु में ‘सामाजिक अभिज्ञता’ आने लगती हैं। किसी व्यक्ति के मुस्कुराने पर वह भी मुस्कुराता है और आवाज सुनकर अपने कान खड़े कर लेता है। 3 माह का शिशु जो रोने और मुस्कुराने की ये प्रतिक्रियाएँ करता है वे उसकी सामाजिकता की परिचायक हैं जो व्यक्ति उसका पालन पोषण करता है और उसकी आवश्यकता की पूर्ति करता है उन्हें मुस्कराता देखकर वह भी मुस्कराने लगता है और जब वे उसे छोड़कर चले जाते हैं तो रोने और चीखने लगता है। जिस ओर से कोई ध्वनि सुनाई देती है या किसी के आने की आहट होती है उसी ओर ध्यान लगाकर देखने का प्रयास करता है। 4-5 माह की आयु में शिशु मैं इतनी समझदारी का विकास हो जाता है कि वह वयस्क व्यक्तियों की मुख मुद्रा पहचानने लगता है। किसी की प्रसन्न मुख मुद्रा देखकर वह मुस्कराने लगता है और क्रोधित मुख मुद्रा को देखकर रोने लगता है। 4-5 माह का शिशु अन्य शिशुओं को ध्यान से देखता है और उन्हें देखकर प्रसन्न होता है। इस समय वह व्यक्ति और वस्तु के भेद को समझने लगता है जिसे उसके सामाजिक विकास का प्रारम्भ कहा जा सकता है।
5-10 माह तक – इस आयु में शिशु दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए अनेक प्रकार की क्रियाएँ करता है; जैसे- हँसना, बबलाना, जोर-जोर से हाथ-पैर पटकना, उछलना आदि । इस समय उसकी गोद में जाने की तीव्र इच्छा होती है। यदि उसके पास कोई जाता है तो वह अपने दोनों हाथों से पकड़ने का प्रयास करता है। वह अपरिचित व्यक्तियों से डरने भी लगता है। सात माह की आयु में किसी के हाथ पकड़ने या मुँह या हाथ रखने पर वह हँसने लगता है। इस आयु में वह एक ही खिलौने से बहुत देर तक खेलता है। 8-9 या 10 माह का शिशु कुछ ध्वनियों का उच्चारण करने लगता है। वह प्रायः बालालाप (Babbling) करता है। 9 माह की आयु में दूसरों के वस्त्रों को खींचकर अथवा अपने शरीर को घुमा-फिरा कर दूसरों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करता है। 10 माह में वह अपने सामान अन्य शिशुओं या बड़ को अपना खिलौना देकर उनके साथ खेलने की चेष्टा करता है। दूसरों के सामने वह सिर हिलाता है, उनसे हाथ मिलाता और नमस्ते करता है।
11 से 14 माह तक- 12-14 माह की आयु में शिशु में पहले-पहल सहयोग और मित्रता का व्यवहार दिखाई देता है। वह सहयोगी खेलों में भाग लेने लगता है। वह अपने सामाजिक व्यवहार का परिचय अनेक रूपों में देता है। वह रेंगकर दूसरे व्यक्तियों के पास पहुँच जाता है और चलने का प्रयास करने लगता है। खेलने में वह अनेक प्रकार की क्रियाएँ करने लगता है। वह अनेक वस्तुओं को जानने लगता है तथा उनमें रुचि लेने लगता है। 13-14 माह में वह स्वयं अपनी कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति करने की चेष्टा करता है। हाथ के संकेत पाकर वह कई आदेशों का भी पालन करने लगता है। अन्य बच्चों से उनकी वस्तुएँ छीनने लगता है। न देने पर लड़ने और रोने लगता है।
15-24 माह तक – इस आयु में बच्चा अन्य बच्चों के साथ खेलने में अधिक रुचि लेता है किन्तु यदि उसकी कोई वस्तु या उसका खिलौना किसी अन्य बालक द्वारा छीन लिया जाता है तो वह उस बालक को मारने, दाँतो से काटने और नोंचने का प्रयास करता है वह क्रोधित होता है और उसमें लड़ने का भाव अंकुरित होने लगता है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि इस आयु में बालक में स्वतन्त्रतापूर्वक हँसने का सामर्थ्य का विकास हो जाता है। प्रायः इस आयु में बालक अकेले अकेले अधिक हँसा करता है। थोड़ी-थोड़ी बात में खिल-खिलाकर हँसना उसके लिए सरल बात है। इस आयु में यद्यपि बालक में झगड़े का भाव उत्पन्न हो जाता है किन्तु इस भावना की अपेक्षा उसमें सहयोग और मित्रता का भाव अधिक रहता है।
इस अवस्था में लड़के-लड़कियों के सामाजिक विकास में विशेष अन्तर नहीं होता। लड़कियाँ गुड़ियों से खेलती हैं। लड़के अनुकरणात्मक खेल खेलते हैं। नकारात्मक प्रवृत्ति उत्पन्न होने के कारण उनमें क्रोध करना, रूठना आदि की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। अक्सर वह लड़ भी बैठते हैं परन्तु यह लड़ाई क्षणिक होती है। शैशवावस्था में सामाजिक विकास का रूप अलग होता है। शिशु का अपना समाज होता है। हरलॉक के अनुसार, “शिशु दूसरे बच्चों के सामूहिक जीवन को अनुकूलन, उनसे लेन-देन करना, अपने-अपने खेल के साथियों को अपनी वस्तुओं में साझीदार बनाना सीख जाता है। वह जिस समूह का सदस्य होता है उसके स्वीकृत प्रतिमान के अनुसार अपने को बनाने की चेष्टा करता है।”
वास्तविकता यह है कि बालक के सामाजिक विकास से तात्पर्य उसका समाजीकरण है। वह असहाय से समर्थ होने लगता है और यह सामर्थ्य ही समायोजन की ओर दिशाबोध देती है।
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