अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विधिक स्वरूप की विवेचना कीजिए।
विधिशास्त्री स्टार्क ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्वरूप के बारे में कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि यथार्थ रूप में एक विधि है परन्तु यह मानना होगा कि यह एक दुर्बल विधि है। इसके नियम उतने प्रभावकारी नहीं हैं, जितने राष्ट्रीय विधि के नियम होते हैं। इसके कारण निम्नलिखित हैं-
(1) अन्तर्राष्ट्रीय विधि में प्रभावशाली विधायनी शक्ति की कमी है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियम, जो मुख्य रूप से अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों तथा रूढ़ियों के परिणामस्वरूप बने हैं, राज्य के नियमों से क्षमता में तुलनीय नहीं हैं। कभी-कभी सन्धियों के उपबन्धों का पक्षकार अपनी इच्छानुसार निर्वचन करते हैं।
(2) यद्यपि अन्तर्राष्टीय समुदाय में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय है, जिसे वर्ल्ड कोर्ट (World Court) के नाम से जाना जाता है, फिर भी इसको सभी राज्यों के विवादों को निपटारा करने की अधिकारिता प्राप्त नहीं है। इस न्यायालय में राज्यों की सम्मति से ही वाद दाखिल किया जा सकता है।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में प्राप्त प्रवर्तन तंत्र (enforcement machinery ) प्रभावशाली नहीं है। यदि कोई राज्य न्यायालय के निर्णय का पालन नहीं करता है, तो दूसरे पक्ष को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के पास निर्णय के अनुपालन के लिए ले जाने का अधिकार है, किन्तु सुरक्षा परिषद् एक राजनैतिक संस्था है, जिसके कारण उसके निर्णय राजनीति द्वारा प्रेरित होते हैं।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों का राज्यों द्वारा बार-बार उल्लंघन किया जाता है तथा अधिकारों के दावेदार विधि को अपने हाथ में ले लेते हैं। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र चार्टर ने आत्म-सहायता (Self-help) के क्षेत्र को कम कर दिया है, फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि को पूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।
(5) राष्ट्रीय विधि के प्रभावकारी होने का एक बहुत बड़ा कारण है कि उनकी इकाइयाँ अत्यधिक दुर्बल हैं। इस कारण इनके नियमों का उल्लंघन करने वाले के ऊपर प्रभावी ढंग से नियंत्रण किया जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय एक ऐसा समुदाय है, जहाँ कुछ इकाइयाँ छोटी और निर्बल हैं, किन्तु वहीं पर कुछ इकाइयाँ काफी शक्तिशाली हैं। इन शक्तिशाली इकाइयों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि की परिधि में लाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। जब तक अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय इन शक्तिशाली इकाइयों से अधिक शक्तिमान नहीं हो जाता, तब तक उसके द्वारा निर्मित नियम ऐसी इकाइयों की स्वेच्छा पर ही लागू होते रहेंगे।
उपर्युक्त कारणों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि एक दुर्बल विधि है। परन्तु एक दुर्बल विधि भी विधि ही कही जायेगी। आज, यदि अन्तर्राष्ट्रीय विधि दुर्बल है, तो यह केवल अपनी विशेषताओं और कुछ कमियों के कारण है। भविष्य में जब ये कमजोरियाँ दूर हो जायेंगी, तब अन्तर्राष्ट्रीय विधि भी राष्ट्रीय विधि की तरह प्रभावशाली हो जायेगी। यह सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि में कुछ कमियाँ हैं, और शायद यह विधि की किसी अन्य शाखा से अधिक हैं, किन्तु इससे अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिक स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्ति (Sanction) – अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्ति है या नहीं इस विषय पर विधिवेत्ताओं में दो मत है। एक मत के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्ति का अभाव है इसलिए वह विधि नहीं है जबकि दूसरे के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्ति का अभाव है, फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि को विधि की कोटि में शामिल किया जा सकता है; क्योंकि भय या अनुशास्ति विधि का आवश्यक तत्व नहीं है। यह सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि (राज्य विधि के मुकाबले) में अनुशास्तियाँ कम बन्धनकारी हैं, परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय विधि में भी अनुशास्तियाँ हैं। स्टॉर्क के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्ति के निम्नांकित उदाहरण दिये जा सकते हैं-
(1) संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अध्याय 7 के अन्तर्गत यदि विश्व-शान्ति तथा सुरक्षा को ख़तरा होता है या कहीं आक्रमण होता है तो सुरक्षा-परिषद् को यह अधिकार है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा बनाये रखने के लिए या फिर से स्थापित करने के लिए कार्यवाही कर सकती है और इस प्रकार कुछ हद तक अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन रोका जा सकता है।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय भी किसी मामले के सम्बन्धित पक्षकारों पर बाध्यकारी होते हैं। चार्टर के अनुच्छेद 94 में यह भी प्रावधान है कि यदि कोई पक्षकार अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय का पालन नहीं करता है तो दूसरे पक्षकार की प्रार्थना पर सुरक्षा-परिषद् इस विषय में कार्यवाही कर सकती है। परन्तु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि सामान्य रूप से अन्तर्राष्ट्रीय विधि को लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र चार्टर में कोई अलग से प्रावधान नहीं है।
(3) चार्टर के अनुच्छेद 2(4) के अनुसार संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने संकल्प लिया है कि वे एक-दूसरे के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे तथा प्रादेशिक स्वतन्त्रता का सम्मान करेंगे। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सदस्य केवल एक परिस्थिति में शक्ति का प्रयोग अपनी आत्मरक्षा में कर सकते हैं, जब कि पहले उन पर आक्रमण हुआ हो। इस प्रकार का प्रावधान चार्टर के अनुच्छेद 51 में है।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अध्याय 7 में वर्णित अनुशास्तियों का प्रयोग जहाँ कहीं आवश्यक हो, किया जाना चाहिए। परन्तु लम्बी अवधि में इन पर अधिक भरोसा करना असम्भव है क्योंकि व्यवहार में इनके प्रयोग में बाधायें (जैसे निषेधाधिकार के प्रयोग द्वारा) हैं तथा बहुत कम प्रभावशाली सिद्ध होता है परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय विधि की प्राथमिकता का अनुमोदन करना प्रत्येक राज्य का राष्ट्रीय स्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व है तथा इस कार्य को प्रत्येक राज्य द्वारा राजनीतिक आकांक्षा के ऊपर समझा जाना चाहिए।
उपर्युक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्ति है। हाल का खाड़ी युद्ध (1991) इस बात का जाज्वल्यमान प्रतीक है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि में न केवल अनुशास्तियाँ हैं वरन् उन्हें कड़ाई से लागू करवाया जा सकता है। इराक के विरुद्ध हैं अनुशास्तियों को बल के प्रयोग द्वारा लागू करना तथा कुवैत को स्वतन्त्र करवाना इस कथन की सत्यता को सिद्ध करता है। परन्तु यह अनुशास्ति सामान्य रूप से अन्तर्राष्ट्रीय विधि को लागू करने के लिए नहीं है। यह अनुशास्ति अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को स्थापित रखने के लिए है जो प्रत्यक्ष रूप में अन्तर्राष्ट्रीय विधि से सम्बन्धित है। इसके अतिरिक्त यदि हम अनुशास्ति को विस्तृत रूप में लें तो अनुशास्ति के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इन तथ्यों के बावजूद यह सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के पास कोई ऐसी सुव्यवस्थित शक्ति नहीं है जिसके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विधि को मनवाया जा सके। परन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि में कुछ हद तक अनुशास्तियाँ हैं और उनका प्रभाव राज्यों पर पड़ता है। फासेट (Fawcett) के शब्दों में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था पूर्ण नहीं है। इसमें अनुशास्तियाँ हैं, परन्तु वे बहुधा शक्ति या आदेश द्वारा कार्यान्वित नहीं की जा सकती हैं, क्योंकि यह स्वाभाविक अनुशास्तियाँ जो मन्दगति से परिपक्व होती हैं तथा इनका प्रभाव धीरे-धीरे होता है, परन्तु बदले हुए विश्व की आत्मनिर्भरता के परिणामस्वरूप ये बाध्यकारी हो गयी हैं।
स्टॉर्क के अनुसार यदि अनुशास्ति को व्यापक अर्थों में लिया जाय तो उपर्युक्त वर्णित अनुशास्तियों के अतिरिक्त भी अनुशास्तियाँ हैं, जिसमें निम्न प्रमुख हैं-
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संहिता के प्रावधान, मादक द्रव्य अभिसमय 1961 का अनु० 14, पूँजी सम्बन्धी विवादों के निस्तारण का अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय 1965, आदि ।
उपर्युक्त अनुशास्तियों के अतिरिक्त जनमत (public opinion) आर्थिक अनुशास्तियों की सम्भावना, राजनीतिक सम्बन्धों के निलम्बन या टूटने का भय, संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता से निलम्बन या निष्कासन, युद्ध-अपराधों के लिए सजा का भय, मुआवजा देने का भय आदि भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि की अनुशास्तियाँ हैं।
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