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अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोत से तात्पर्य (Meaning of Sources of International Law)
अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोतों से तात्पर्य कानून को विकसित करने वाले तत्वों से माना जाता है। समाज के ऐतिहासिक विकास के ही साथ-साथ कुछ मूलभूत तथ्य जो कानूनों द्वारा क अस्तित्व में आते हैं, विधि को शक्ति प्रदान करते हैं।
स्टार्क के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोत से हमारा तात्पर्य उस वास्तविक सामग्री से है जो अन्तर्राष्ट्रीय विधिशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों के नियम निर्मित करने के लिए प्रयोग करता है।
एडवर्ड कालिन्स के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोतों से हमारा तात्पर्य उन तरीकों तथा प्रक्रिया से है जिनके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विधि का जन्म होता है।
प्रसिद्ध विद्वान रॉस के अनुसार, “विधि का उद्गम विशुद्ध रूप से उन स्रोतों की ओर इशारा करता है, जिनसे बनी हुई व्यवस्थाएँ विधिसम्मत स्वीकार की जाती हैं। “
अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रमुख स्रोत
(1) रूढ़ि (Custom) – रूढ़ि अन्तर्राष्ट्रीय विधि का मौलिक स्रोत होने के साथ-साथ इसका प्राचीनतम स्रोत भी है तथा किसी समय यह स्रोतों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधिकतर नियम रूढ़िजन्य (Customary) नियमों से ही निर्मित होता था। ओपेनहाइम के अनुसार, “रूढ़ि निश्चित कार्य को करने का स्पष्ट तथा निरन्तर स्वभाव है, जो इस विचार के अधीन विकसित हुआ है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार ये कार्य बाध्यकर हैं।” के अन्तर्राष्ट्रीय रूढ़ि का तात्पर्य ऐसी प्रथाओं से है, जो विधिक बाध्यताओं के कारण अन्य प्रथाओं या आचरणों से भिन्न है। ऐसी रूढ़ियों का निर्माण राष्ट्रों के अभ्यास तथा प्रथाओं से तथा राष्ट्रों के समुदाय द्वारा इनकी मान्यता से विकसित हुआ है। रूढ़िजन्य नियमों से तात्पर्य उन नियमों से हैं, जो बहुत समय से अधिकांश राज्यों द्वारा आचरण की भाँति अभ्यास में लाये जाते हैं। वेस्टलेक (Westlake) के अनुसार रूढ़ि आचरण की वह पद्धति है, जिन्हें समाज द्वारा बाध्यकारी रूप में माने जाने की सहमति दी जाती है। बाध्यता बहुत समय तक कई राष्ट्रों की सामान्य सम्मति पर आधारित है। इस प्रकार रूढ़ि सिर्फ अभ्यास या प्रथा (usage) नहीं है। प्रथा सामान्य अभ्यास है जिसमें विधिक बाध्यता परिलक्षित नहीं होती। किन्तु रूढ़ि मात्र प्रथा से अधिक है। रूढ़ि उन अभ्यासों को निर्दिष्ट करती है जो राज्यों पर बाध्यकारी माने जाते हैं। इस प्रकार, जब अभ्यास या प्रथा व्यवहार में लाने के लिए राज्य पर बाध्यकारी हो जाते हैं, तब इसे रूढ़ि माना जाता है, इसलिए स्टार्क ने कहा है कि “प्रथा रूढ़ि के प्रारम्भिक चरण का प्रतिनिधित्व करती है जहाँ प्रथा समाप्त होती है वहीं से रूढ़ि प्रारम्भ होती है।”
रूढ़िगत नियमों के प्रकार (kinds of Customary rules) – अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूढ़िगत नियम या तो सार्वभौमिक (universal) या विशिष्ट (particular) हो सकते हैं। सार्वभौमिक रूढ़िगत नियम वे नियम होते हैं, जो सभी राज्यों पर बाध्यकारी होते हैं, जैसे राजनयिक सम्बन्धों के नियम या समुद्रिक नियम या सन्धि के मूलभूत नियम। विशिष्ट रूदिगत नियम या स्थानीय रूढ़िगत नियम वे नियम होते हैं, जो केवल दो राज्यों पर बाध्यकारी होते हैं। विशिष्ट रूढ़िगत नियमों का सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्टैट्यूट के अनुच्छेद (38) के परिच्छेद (1) (ख) की शब्दावली पर आधारित है, जिसके अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय रूढ़ि विधि के रूप में स्वीकृत सामान्य प्रथा का साक्ष्य है।
( 2 ) सन्धियाँ (Treaties) – आधुनिक काल में संधियों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि का सर्वाधिक प्रमुख स्रोत माना जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के स्टेट्यूट के अनुच्छेद 38 (1) (क) के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय (international conventions) चाहे वे साधारण (हमदमांस) हों या विशिष्ट (particular) न्यायालय द्वारा लागू किये जायेंगे। ऐसा इसलिए है कि सन्धियों में राज्यों की सम्मति अभिव्यक्त (express) रूप से होती है और इसमें राज्य वर्णित | नियमों का पालन करने की स्वीकृति प्रदान करते हैं।
सन्धियाँ दो या अधिक राज्यों के मध्य या अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्य विषयों के मध्य करार है, जिनके द्वारा वे अपने सम्बन्धों को स्थापित करते हैं। इन सम्बन्धों को कभी-कभी | अभिसमय (Convention), नयाचार (Protocol) या एकार्ड (Accord) के नामों से पुकारा जाता है। इन शब्दों में भिन्नता है, किन्तु सभी का वास्तविक अर्थ एक ही है। सन्धियों में प्रतिपादित नियम या नियमों के प्रति पक्षकारों की अभिव्यक्त सम्मति होती है। इसलिए रूढ़िजन्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि (customary international law) को अभिसमय-उद्भूत विधि (conventional law) में परिवर्तित किया जा रहा है क्योंकि रूढ़िजन्य नियमों में पक्षकारों की विवक्षित सम्मति रहती है। उदाहरणार्थ, राजनयिक तथा कौंसलीय सम्बन्धों से सम्बन्धित रूढिजन्य विधि को क्रमशः राजनीतिक सम्बन्ध वियना कन्वेंशन, 1961 (The Vienna Convention on Diplomatic Relations, 1961) तथा कौंसलीय सम्बन्ध वियना कन्वेंशन, 1963 (The Vienna Convention on Consular Relations, 1963) में परिवर्तित कर दिया गया है। इसी तरह, कई अन्य रूढ़िजन्य नियमों को सन्धिजात नियमों में परिवर्तित कर दिया गया है।
(3) सभ्य राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त विधि के सामान्य सिद्धान्त (General Principles of Law Recognised by Civilized Nation)- अन्तर्राष्ट्रीय रूढ़ियों, प्रथाओं और सन्धियों के अतिरिक्त विधि के सामान्य सिद्धान्त भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रमुख स्रोत हैं। सभ्य राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त विधि के सामान्य सिद्धान्तों से अभिप्राय उन सिद्धान्तों से है जो, विश्व समुदाय के अधिकतर या सभी राज्यों द्वारा अपने राष्ट्रीय विधि के विनियमन में प्रयोग में लाये जाते हैं तथा ये अपने विकसित होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय विधि में भी प्रयोग में लाये जा सकते हैं। यह बात उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 38 (1) (ग) के अधीन प्रयोग किया गया शब्द “सभ्य” अनावश्यक तथा अर्थहीन है तथा इसका कोई अभिप्राय नहीं है। इस शब्द के प्रयोग होने से ऐसा आभास होता है कि कुछ राज्य असभ्य भी हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। किसी राज्य को असभ्य कहना अनुचित ही होगा। यहाँ तक कि विश्व युद्ध की धुरीशक्ति ( गपे च्चूमत) से सम्बन्धित राज्य भी असभ्य नहीं कहे जा सकते क्योंकि यदि वे असभ्य ही होते तो वे संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य न बन पाते। मान्यता प्राप्त सामान्य सिद्धान्तों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोतों में इसलिए शामिल किया गया है क्योंकि इनको सभ्य विधिक प्रणाली द्वारा सामान्य रूप से स्वीकृत पाया गया है तथा इनको भी प्रणाली में न्याय को बनाये रखने के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। इस प्रकार सामान्य राष्ट्रीय विधि के सिद्धान्त को अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा लागू किया जा सकता है। ऐसे नियमों को निर्णय के लिए उस समय प्रयोग में लाया जाता है, जब अन्य स्त्रोत अर्थात रूढ़ि और सन्धियाँ अनुपयोगी सिद्ध हो जाती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय विधि में प्रयोग में लाये गये ऐसे कई नियम हैं, जैसे सद्भाव (good-faith), पारस्परिकता (reciprocity), उपधारणा (presumption) विबन्ध (estoppel) तथा पूर्व-न्याय (res-judicata) । यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि राज्यों द्वारा मान्यता प्राप्त सिद्धान्त स्वतः अन्तर्राष्ट्रीय विधि के सिद्धान्त नहीं हो जाते। इन नियमों का अनुमोदन विश्व न्यायालय के द्वारा होना आवश्यक है। संयुक्त राष्ट्र बनाम स्कूनर के वाद में न्यायाधीश स्टोरी ने दास प्रथा के परीक्षण में कहा कि व्यक्तियों से सम्बद्ध अधिकार एवं न्याय के सामान्य सिद्धान्तों पर सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय कानून को प्रवर्तित किया जाना चाहिये।
(4) न्यायिक विनिश्चय (Judicial decisions) – न्यायिक विनिश्चय अन्तर्राष्ट्रीय विधि के गौण अथवा सहायक स्रोत माने जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि न्यायालय के निर्णय किसी पूर्ण निर्णय (precedent) का सृजन नहीं करते। न्यायिक विनिश्चयों का किसी भी विवाद के पक्षकारों के अतिरिक्त इनकी कोई बाध्यता नहीं होती। “न्यायिक विनिश्चय” शीर्षक के अन्तर्गत निम्नलिखित न्यायालयों के विनिश्चयों को शामिल किया जाता है-
(A) अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice) – आज के समय में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय न्यायिक अधिकरण है। तथापि, इसके निर्णय केवल मामले के पक्षकारों पर ही बाध्यकारी होते हैं। ये अन्तर्राष्ट्रीय विधि के बाध्यकारी नियम को सृजित नहीं करते। न्यायालय के स्टेट्यूट के अनुच्छेद 59 में यह स्पष्ट किया गया है कि न्यायालय के विनिश्चय, विवाद के पक्षकारों के अतिरिक्त किसी अन्य पर बाध्यकर नहीं होंगे। अनुच्छेद 59 को उल्लिखित करने का प्रयोजन आबद्ध न्यायिक पूर्व-निर्णय की पद्धति को समाप्त करना था। यह उल्लेखनीय है कि न्यायालय के विनिश्चयों का अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विद्यमान नियमों पर व्यापक प्रभाव रहा है तथा इनकी उपेक्षा न तो स्वयं न्यायालय द्वारा और न ही अन्य अधिकरणों द्वारा किया जाता है।
(B) अन्तर्राष्ट्रीय अधिकरणों के पंचाट (Awards of International Tribunals) – अन्तर्राष्ट्रीय अधिकरणों, जैसे स्थायी माध्यस्थम् न्यायालय (Permanent Court ‘of Arbitration) तथा अन्य अधिकरणों तथा ब्रिटिश-अमेरिकी मिश्रित दावा अधिकरण ( British American Mixed Claims Tribunal) एवं अन्य अधिकरणों के पंचाटों (awards) ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विकास में काफी योगदान दिया है।
(C) राष्ट्रीय न्यायालयों के विनिश्चय (Decisions of the Municipal Courts) – राष्ट्रीय न्यायालयों के निर्णय अन्तर्राष्ट्रीय विधि में विशेष महत्व नहीं रखते और इसलिए राष्ट्रीय न्यायालयों के निर्णय को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोत के रूप में नहीं माना है। किन्तु कई राज्यों के न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णय यदि एक समान (uniform) होते हैं तो वे अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूढ़िगत नियम बनने की प्रवृत्ति रखते हैं। ऐसा विशेषतः अन्तर्राष्ट्रीय विधि के उस क्षेत्र में पाया जाता है जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय विधि और राष्ट्रीय विधि एक दूसरे में गुथित हैं, जैसे राष्ट्रीयता (Nationality), प्रत्यर्पण (extradition) और राजनयिक उन्मुक्तियाँ ( diplomatic immunities) आदि। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के स्टेट्यूट का अनुच्छेद 38 (1) (घ) न्यायालय के न्यायिक निर्णयों को सहायक स्रोत के रूप में प्रयोग करने का अधिकार देता है, ताकि विधि के नियम निर्धारित किये जा सकें। यह अनुच्छेद राष्ट्रीय निर्णयों को अन्तर्राष्ट्रीय स्रोत में अनुकूल बना देता है। मार्शल के अनुसार प्रत्येक राज्य के न्यायालय के निर्णय जहाँ तक वे एक ऐसे कानून पर आधारित हैं जो प्रत्येक राष्ट्र के लिये समान है उसे प्रमाणित नहीं करते, बल्कि उन्हें सम्मान की दृष्टि से स्वीकार किया जाता है।
(5) विधिवेत्ताओं के लेख (Writings of jurists) – अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के अनुच्छेद 38(1) (घ) के अनुसार विभिन्न देशों के प्रसिद्ध विधिवेत्ताओं के लेख एवं किताबें अन्तर्राष्ट्रीय विधि के निर्धारण में सहायक होते हैं। इसके अन्तर्गत विधिवेत्ताओं के लेखों को विधि के नियमों का निर्धारण करने के लिए गौड़ साधन (subsidiary means for the determination of rules of law) माना गया है। अत: इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय विधि के मान्य स्रोत की श्रेणी में नहीं रखा गया है। फिर भी सुयोग्य एवं प्रख्यात विधिवेत्ताओं के ग्रन्थ व लेख के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के निर्माण में सहायता मिलती है। उपरोक्त से स्पष्ट होता है कि सुयोग्य एवं प्रख्यात विधिवेत्ताओं के ग्रन्थ पर स्वतन्त्र रूप से एक स्रोत की तरह विचारण नहीं किया जायेगा।
(6) साम्या (Equity) – अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोत के रूप में “साम्या” शब्द का प्रयोग विधि के स्थापित नियमों की निष्पक्षता (fairness), युक्तियुक्ता (reasonableness) तथा नीति (policy) को ध्यान में रखकर किया जाता है। साम्या का उल्लेख अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के स्टेट्यूट में विधि निरूपणकारी अभिकरण (law determining agency) के रूप में भी नहीं किया गया है क्योंकि इसके शामिल किये जाने से न्यायालय को असीमित अधिकार प्राप्त हो जाते। वास्तव में साम्या को न्यायालय द्वारा प्रयोग में नहीं लाया जाता। इसके आधार पर किसी भी मामले को निर्णीत नहीं किया जाता और इसीलिए इसको अन्तर्राष्ट्रीय विधि का स्रोत नहीं कहा जा सकता। फिर भी उन क्षेत्रों में इसका विशेष महत्व है, जहाँ नियम आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं। ऐसे मामलों में न्यायालय स्वयं को विधिशून्य मानकर निर्णय देने से रोक नहीं सकते। विधिक नियम के अभाव में न्यायालय न्याय तथा साम्या के सामान्य सिद्धान्तों के आधार पर विनिश्चय करने के लिए बाध्य हो जाते हैं क्योंकि इन सिद्धान्तों में साम्यापूर्ण परिणाम उत्पन्न करने की क्षमता है।
साम्यापूर्ण सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा हाल में गल्फ आफ मेन बाउण्डरी (संयुक्त राज्य बनाम कनाडा) वाद (Gulf of maine Boundary (United State Vs Canada), दि कान्टीनेन्टल शेल्फ (लीबिया बनाम माल्टा) वाद (The Continental Shelf (Libya Vs Malta) तथा फ्रन्टियर डिस्प्यूर बर्किना फासो बनाम रिपब्लिक आफ माली) वाद (Frontier Dispute Burkina Faso Vs Republic of Mali) में स्वीकार किया गया है। दि कान्टीनेन्टल शेल्फ (ट्यूनिशिया बनाम लीबियन अरब जमाहीरिया) वाद (concerning the Continental Shelf (Tunisia Vs Libyan Arab Jamahiria) में न्यायालय ने वर्णन किया था कि “विधिक अवधारणा (legal concept) के रूप में साम्या न्याय के विचार की प्रत्यक्ष उत्पत्ति है। न्यायालय जिसका कार्य परिभाषा द्वारा न्याय का प्रशासन करना है, इसे लागू करने के लिए आबद्ध है।”
(7) महासभा के संकल्प (Resolutions of the General Assembly) – महासभा के संकल्पों का विधिक प्रभाव न होने के कारण ये राज्यों पर बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखते हैं। ये अपने सदस्यों पर किसी भी विधिक बाध्यता को सृजित नहीं करते चाहे वे एकमत से या बहुमत से स्वीकार किये गये हों या इनके विषय सभी राज्यों के समान हित के विषय हों। फिर भी यदि संकल्प निर्विरोध हो या सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से स्वीकार किया गया हो, तथा यदि किसी संकल्प को बाद के कई संकल्पों में दुहराया गया हो, तो इसे अर्थहीन नहीं समझना चाहिए। रोसलीन ह्यगिन्स ने प्रतिपादित किया है कि ऐसे संकल्पों का संचयी प्रभाव (cummulative effect) सामान्य रूढ़िगत विधि की तरह प्रतीत होता है। उनके अनुसार समान विषय के संकल्प को बार-बार दुहराने से तथा भारी बहुमत प्राप्त करने से ओपिनियों ज्यूरिस (opinio juris) का सृजन होता है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनेक रूढ़िगत नियमों का निर्माण महासभा के संकल्प द्वारा ही हुआ है।
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