अराजकतावाद के प्रमुख लक्षणों (सिद्धान्तों) का उल्लेख कीजिए।
अराजकतावाद के प्रमुख लक्षण का सिद्धान्त
( 1 ) राज्य का विरोध (Opposition of State) – अराजकतावादियों ने राज्य का प्रबल विरोध किया। वे उसे वर्ग-संघर्ष को बढ़ावा देने वाली, व्यक्ति की उन्नति और स्वतन्त्रता में बाधक मानते हैं। इसका आधार दयाकारी कारक होते हैं। इस प्रकार राज्य व्यक्ति के विकास के लिए भी तरह सहायक नहीं है, अतः राज्य को समाप्त करना ही श्रेयस्कर है। राज्य को समाप्त करके ही स्वस्थ समाज की स्थापना हो सकती है। अराजकतावादियों ने विभिन्न कारणों से राज्य का विरोध किया जिनका अध्ययन निम्न शीर्षक में विस्तार से कर सकते हैं
(क) ऐतिहासिक कारण से राज्य का विरोध (Opposition of state due to historical cause)- ऐतिहासिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो भी राज्य से एक सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें लोग पारस्परिक प्रेम, सहयोग से संगङ्गित होकर रहते थे। इस समय निर्णय, न्याय पारस्परिक समझौते के आधार पर किया जाता था। वर्तमान व्यवस्था में भी ऐसा ही किया जा सकता है। क्रॉपोटकिन जैसे अराजकतावादियों ने इसी आधार पर राज्य का विरोध किया। अराजकतावादियों की यह सोच कि राज्य व्यक्ति के विकास में सहायक नहीं और सदैव ही रचनात्मक विचारों की उपेक्षा की गयी है। यह प्राचीन दार्शनिक प्लेटो के गुरु सुकरात को राज्य के संचालक राजा द्वारा प्राण दण्ड दिये जाने पर सही सिद्ध हो जाता है।
(ख) स्वतन्त्रता के आधार पर राज्य का विरोध (Opposition of state by the point of man’s freedom) – राज्य व्यक्ति की स्वतन्त्रता की राह में बाधक का कार्य करता है जिससे व्यक्ति का श्रेष्ठतम विकास अवरुद्ध हो जाता है। अतः ऐसे में थोरो जैसे विद्वान का कथन ही उचित प्रतीत होता है, वह शासन सबसे अच्छा है जो कि सबसे कम शासन करता है।ङ्ग इसी प्रकार विचारक लाओत्से ने भी कहा है कि लोग इतने परेशान क्यों हैं? क्योंकि उन पर शासन बहुत अधिक है।
(ग) राज्य अनावश्यक है (State is not necessary) – अराजकतावादियों का मानना है कि राज्य अवांछनीय व अनावश्यक संस्था है। राज्य से पहले भी समाज में व्यवस्था कायम थी। लोगों को पास उस समय अधिक स्वतन्त्रता थी, अतः वे शिक्षा, उद्योग, व्यवसाय, सामान्य जन-जीवन से जुड़े अन्य कार्यों का भली-भाँति निर्वाह किया करते थे। राज्य को इसलिए महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ ताकि सामान्य जन-जीवन से जुड़ी जैसे न्याय व्यवस्था, कानून आदि का पालन कराया जा सके और देश की विदेशी आक्रमणों से रक्षा की जा सके लेकिन लोगों के बीच प्रेम हो, समाज में अच्छा वातावरण हो तो अपराध अधिक घटित ही नहीं होगें जिससे कानून और न्याय को लागू करने वाली संस्था की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। दूसरे, राज्य का काम विदेशी आक्रमणों से रक्षा करना है तो यदि देश में राष्ट्र-प्रेम की भावना होगी तो लोग स्वतः ही अपने देश की रक्षा कर लेंगे।
(घ) आर्थिक आधार पर (Due to Economic Causes) – आर्थिक आधार पर अराजकतावादी मार्क्सवादियों के विचार से सहमत है कि राज्य एक शोषण की संस्था है जिसमें सत्ता की बागडोर अमीर धनाढ्य लोगों के हाथों में होती है। अतः निर्धनों का शोषण करते हुए अपने हितों को ध्यान में रखकर राज्य के कानून बनाते हैं। इस प्रकार राज्य व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के शोषण पर ही आधारित संस्था है, इसका अन्त कर देना चाहिए।
(ङ) राज्य ने कोई उत्तम कार्य नहीं किया (State the no good work) – राज्य का कोई न्याय, समानता की स्थापना करना है किन्तु जब रक्षा करने वाला स्वयं ही भक्षक बन जाये तो ऐसे संगङ्गन को समाप्त कर देना ही उचित है। राज्य में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो सत्ता और धन के लालच में समाज के अन्य लोगों का शोषण ही नहीं करते हैं, वरन् ऐसा करने में वे एक-दूसरे का पूर्ण साथ भी देते हैं जैसा कि क्रॉपोटकिन ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है, खराज्य जमींदार, सैनिक, नेता, न्यायाधीश, पुरोहित और पूंजीपति का एक-दूसरे के हितों को सुरक्षित बनाए रखने वाला ऐसा समाज है जिसमें ये सब जनता पर अपनी सत्ता बनाए रखने, उनका शोषण करने तथा स्वयमेव धनी बनने के लिए एक-दूसरे का समर्थन करते हैं।
(2) पूँजीवाद का विरोध (Opposition of Capitalist) – जिस प्रकार से अराजकतावादी राज्य के प्रबल विरोध हैं उसी प्रकार से वे पूँजीवादी व्यवस्था के भी विरोधी हैं क्योंकि इसमें समाज शोषक व शोषणकर्त्ता इन दो वर्गों में विभक्त हो जाता है। अतः ऐसी व्यवस्था का अन्त करना चाहिए जिसमें निर्धनों का शोषण होता हो।”
( 3 ) लोकतन्त्र एवं प्रतिनिधि शासन का विरोध (Opposition of Democratic and representative rule) – अराजकतावादियों ने किसी भी प्रकार के शासन को अच्छा नहीं माना है फिर चाहे वह लोकतन्त्र हो या निरंकुश तन्त्र। उनका कहना है निरंकुश तन्त्र तो दबाव पर आधारित व्यवस्था है ही लेकिन लोकतन्त्र भी केवल एक दिखावा मात्र है। यह जनता का प्रतिनिधियात्मक शासन नहीं है बल्कि जनता के साथ केवल छल मात्र है। सत्ता का लाभ प्राप्त करने के लिए भोली-भाली जनता को चुनाव के समय में जो दृश्य दिखाया जाता है वह सच नहीं होती है। चुनाव के समय जो प्रत्याशी जनता के आगे तथा जोड़ते हैं वे आगे चलकर या चुनाव में विजय प्राप्त कर लेने के बाद वे भी भूल जाते हैं कि उन्होंने जनता से कोई वादा किया भी था। हर पाँच साल बाद ये ही कहानी दोहरायी जाती है। असल में तो जो प्रत्याशी चुनाव में खड़े होते हैं उनका सम्बन्ध धनिक वर्ग से होता है इसलिये वह पहले ही निर्धन जनता को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर वोट खरीद लेते हैं। खरीदे गये वोटों से सरकार गङ्गित जो जाती है और इसी को जनता की आवाज, जनता का शासन कहा जाता है। प्रतिनिधियात्मक शासन के बारे में जोड़ ने कहा है कि प्रतिनिधिमूलक सरकार ऐसे व्यक्तियों की सरकार है जो प्रत्येक कार्य को खराब ढंग से करने के लिए सबके विषय में थोड़ा-थोड़ा ज्ञान रखते हैं किन्तु जिन्हें लीक ढंग से कार्य करने के लिए किसी भी वस्तु का ज्ञान नहीं होता है। ऐसे प्रतिनिधिमूलक शासन की कोई उपयोगिता नहीं है।ङ्ग इस अराजकतावादियों ने प्रजातन्त्र या उससे जुड़े शासन में भी कोई रुचि नहीं दिखायी बल्कि इसका इसे जनता के शोषण के रूप में आसीन सत्ता का नाम देकर इसका विरोध ही किया है।
( 4 ) केन्द्रीकरण का विरोध (Opposition of Centralization) – अराजकतावादियों ने केन्द्रीकरण के स्थान पर विकेन्द्रीकरण का समर्थन किया है। विकेन्द्रीकृत व्यवस्था को स्वतन्त्रता का परिचायक मानते हुए उसे लागू करने के लिए समाज में स्वतन्त्र संघों की स्थापना पर बल दिया है।
(5) व्यक्तिगत सम्पत्ति का विरोध (Opposition of private property) – अराजकतावादियों ने निजी सम्पत्ति को हर प्रकार की बुराई की जड़ माना है। समाज इससे शोषक व शोषणकर्त्ता दो वर्गों में विभक्त हो जाता है। एक तरह वह पूँजीपति वर्ग होता है जो निर्धनों का शोषण कर उनका मालिक बन जाता है जिसके पास धन की कोई सीमा नहीं होती है और दूसरी तरह एक ऐसा निर्धन वर्ग होता है जिसके पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी वन नहीं होता है। समाज में व्यापक असमानता की स्थिति हो जाती है।
पूँजीपति वर्ग श्रमिकों का स्वामी बन जाता है और निर्धन वर्ग उनका दास इस प्रकार व्यक्तिगत सम्पत्ति शोषण का यन्त्र है। प्रोधां ने तो व्यक्तिगत सम्पत्ति को चोरी कहा है। ये पूँजीपति वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग को उनके उत्पादन के बदले में दी जानी चाहिए लेकिन पूँजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग श्रमिकों को उनकी मेहनत का उचित पारिश्रमिक नहीं देते हैं और अपने पास रख लेते हैं। अतः यह एक प्रकार की चोरी है जो कि समाज विरोधी है राष्ट्र विरोध है।
( 6 ) धर्म का विरोध (Opposition of religion) – अराजकतावादियों ने सम्पत्ति, राज्य, धर्म आदि सभी का विरोध किया है। लौकिक या पारलौकिक किसी भी प्रकार की सत्ता का समर्थन नहीं करते हैं। उनका मानना है चाहे राज्य की सत्ता हो या ईश्वर की सत्ता सबका उद्देश्य स्वयं का हित करना है इसके लिए वे तानाशाही प्रवृत्ति को भी अपनाते हैं जिसके सामान्यजन का शोषण होता है। धर्म तो वैसे भी अन्धविश्वास और ईश्वरीय कल्पनाओं पर आधारित है। धर्म किसी तार्किक या प्रत्यक्षदर्शी धारणाओं पर आधारित नहीं है। अतः इस पर वे ही लोग आस्था रखते हैं जो विवेक शून्य है, मूर्ख है, कायर है और बाह्य आडम्बरों में विश्वास रखते हैं। ईश्वर में विश्वास करना पाखण्ड को बढ़ावा देना है। धार्मिक सत्ता पर आसीन व्यक्ति अपने को ईश्वर का उत्तराधिकारी बताकर सामान्यजन का शोषण करते हैं। धार्मिक संस्थाओं व संगङ्गनों का भी विरोध करना चाहिए।
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