अराजकतावाद के विकास पर प्रकाश डालिए।
अराजकतावाद वह सिद्धान्त है जो मानव समाज की सारी बुराइयों को दूर करने के लिए अराजकता अर्थात् राज्य या राज्य शक्ति के अंत का समर्थन करता है। टॉमस हॉब्स (1588-1679) ने राज्य के निर्माण से पहले जिस प्राकृतिक दशा का उल्लेख किया है, उसे ‘अराजकता’ का उपयुक्त विवरण माना जाता है। हॉब्स ने लिखा है कि इस दशा में मनुष्य का जीवन ‘एकाकी, दीन-हीन, घृणित, पाशविक और क्षणभंगुर’ होता है। हॉब्स के विचार से मनुष्य अपने स्वभाव से स्वार्थी और निर्दर्य प्राणी है। अतः प्राकृतिक दशा में-जब किसी पर किसी का कोई अंकुश नहीं होता-निरंतर लड़ाई-झगड़े और छीना-झपटी का बोलबाला रहता है तो यह आराजकता की स्थिति होती है, परन्तु आराजकतावाद के समर्थक ऐसा नहीं मानते, वे अराजकता की कल्पना दूसरे ही रूप में करते है। देखा जाए तो अराजकतावाद कोई नियत-निश्चित सिद्धान्त नहीं है। मोटे तौर पर, सारे अराजकतावादी राज्य की सत्ता का विरोध करते हैं।
अराजकतावाद का विकास- अराजकतावादी विचारधारा के आरम्भिक संकेत तो प्राचीन रोम के स्तोइक दर्शन में ढूंढ़े जा सकते हैं, परन्तु इस दिशा में व्यवस्थित चिंतन औद्योगिक क्रांति के बाद ही शुरू हुआ। इसके विकास में विलियम गॉडविन, पी. जे. प्रूदों, कार्ल मार्क्स, मिखाइल बाकूनिन, पीटर क्रॉपॉटकिन, जार्ज सॉरेल, लियो ताल्स्ताय, महात्मा गांधी और रॉबर्ट के विचारों का विशेष महत्व है।
गॉडविन के विचार- विलियम गॉडविन (1756-1836) ने अपनी प्रसिद्ध कृति एंक्वायरी कंसनिंग पोलिटिकल जस्टिस'(1793) में समाज और सरकार में अंतर करते हुए यह तर्क दिया कि समाज तो मनुष्य के लिए वरदान है, परन्तु सरकार उसके लिए अभिशाप है। सरकारें | छल-वल, अत्याचार और भ्रष्टाचार का प्रयोग करके मनुष्य-मनुष्य को आपस में लड़ाती हैं। पर | चूंकि मनुष्य स्वयं विवेकशील प्राणी है, और सर्वगुणसम्पन्न बनने की क्षमता रखता है, इसलिए | समय के साथ समाज धीरे-धीरे प्रबुद्ध होता गया है और उसने सरकार की चालबाजियों को नहीं | चलने दिया है। मनुष्य जैसे-जैसे नैतिकता और राजनीति का ज्ञान प्राप्त करता है, वह सरकार की निरंकुश सत्ता के आगे झुकने से इनकार कर देता है। इस तरह संसार में जैसे-जैसे नैतिकता का ज्ञान बढ़ेगा, सरकार धीरे-धीरे नि:शक्त होती जाएगी और अंततः लुप्त हो जाएगी। तब स्त्री-पुरुषों का ऐसा प्राकृतिक समाज बच जाएगा जो स्वतंत्र चर्चा और वाद-विवाद के माध्यम से एक-दूसरे के विचारों और भावनाओं को समझेंगे और मिल-जुलकर रहेंगे।
गॉडविसन ने विशेष रूप से यह विचार रखा कि नृशंसतंत्रीय सरकार और सम्पत्ति का विषमतामूलक स्वामित्व ऐसी व्यवस्था को जन्म देते हैं जिसमें एक मनुष्य दूसरे का शोषण करने लगता है। गॉडविन ने इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदल डालने का आह्वान किया। इसके लिए उसने मनुष्यों को क्रांति के लिए तो उत्प्रेरित नहीं किया, परन्तु उसने यह आशा व्यक्त की कि लोग धीरे-धीरे यह अनुभव करना सीख जाएंगे कि जब तक राज्य को हटाकर स्वैच्छिक प्रबंधों का जाल नहीं बिछाया जाता, तब तक समाज में न्याय स्थापित करना संभव नहीं होगा।
पियरे-जोसेफे प्रूदों (1809-65) 19वीं शताब्दी का फ्रांसीसी विचारक था जिसने सोच समझकर पहले-पहल ‘ अराजकतावादी’ कहलाना पसंद किया। उसने तर्क दिया कि ‘मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत और सरकार का अंत एक ही बात है। ” सम्पत्ति की स्थिति प्रूदों ने अपनी विख्यात कृति ‘स्वाट इज़ प्रॉपर्टी’ (1840) में यह प्रसिद्ध सूक्ति प्रस्तुत की : ‘सम्पत्ति चोरी है।’ कार्ल मार्क्स ने प्रूदों की इस कृति की प्रशंसा करते हुए इसे ‘महान् वैज्ञानिक उपलब्धि’ बताया जिसने ‘ राजनीतिक अर्थशास्त्र के यथार्थ विज्ञान’ की नींव रखी। प्रूदों ने सम्पत्ति के ऐसे बहुत सारे अधिकारों पर प्रहार किया जो 19वीं शताब्दी के फ्रांस में प्रचलित थे।
पीटर क्रॉपॉटकिन (1842-1921) रूसी क्रांतिकारी विचारक था जिसने साम्यवादी अराजकतावाद के सिद्धान्तों का प्रभावशाली विवेचन प्रस्तुत किया है। उसे अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण दो बार कारावास भुगतना पड़ा। इसके बाद वह करीब तीस वर्ष तक इंग्लैंड में रहा। बोल्शेविक क्रांति के अवसर पर वह रूस लौटा, परन्तु लेनिनवाद से उसका मोहभंग हुआ, और उसकी मृत्यु एक हताश व्यक्ति के रूप में हुई।
जार्ज सॉरेल (1847-1922) ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘रिफ्लैक्शन्स ऑन वायरलेंस’ (1908) के अंतर्गत अराजकतावाद का विचार एक नए ढंग से प्रस्तुत किया। उसने न तो मनुष्य की ‘उत्तम प्रकृति’ को सराहा, न वैयक्तिक स्वतंत्रता पर बल दिया। उसका मुख्य मुद्दा यह था कि कामगार वर्ग किस तरह पूंजीवादी राज्य को धराशायी कर सकता है? इसके लिए उसने ‘आम हड़ताल’ के तरीके को मुख्य अस्त्र के रूप में प्रस्तुत किया। उसने तर्क दिया कि यह सर्वहारा वर्ग में जागृति लाने का तरीका है जिससे वे पूंजीवादी व्यवस्था का ‘चक्का जाम’ कर देंगे। क्रॉपॉटकिन जैसे अराजकतावादियों के विपरीत सॉरेल ने वर्तमान मजदूर संघों को क्रांति के वाहन के रूप में मान्यता दी। सारेल के इस दृष्टिकोण को अराजकतवादी श्रमाधिपत्यवाद की संज्ञा दी जाती है।
तॉल्स्तॉय का नैतिक अराजकतावाद- रूसी कथाकार एवं सामाजिक सिद्धान्तकार निकोलायेविच लियो तॉल्स्टॉय 1828-1920 ने मानव-जीवन के नैतिक पक्ष को महत्व देते हुए राज्य और उसकी समस्त संस्थाओं का विरोध किया। उसने मसीही चिंतन के सार-तत्व को इस सूक्ति के रूप में व्यक्त किया : “ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है।” इसलिए ईश्वर के साक्षात्कार के लिए बाहर की सारी संस्थाएँ निरर्थक हो जाती हैं। समाज-सुधार की दिशा में कोई भी कार्यक्रम व्यक्ति से आरम्भ होना चाहिए। व्यक्ति स्वयं नैतिक नियमों का पालन करते हुए अपने और अपने सहचरों का जीवन सार्थक कर सकता है। तॉल्स्तॉय ने मानव-प्रेम की शिक्षा देते हुए बुराई का मुकाबला भलाई के साथ करने का रास्ता दिखाया। राज्य तो पुलिस और सैन्य शक्ति के बल पर बुराई से लड़ना चाहता है, और निजी सम्पत्ति इने-गिने लोगों को दूसरों के परिश्रम के बल पर विलासिता का जीवन बिताने का साधन प्रदान करती है। ये दोनों संस्थाएँ नैतिक जीवन के विरुद्ध हैं। हैं। मानव-जीवन की सार्थकता के लिए इन दोनों को समाप्त करना जरूरी है।
गांधीजी का राज्यहीन समाज- भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (1869-1948) ने सत्य और अहिंसा को सामाजिक जीवन के मार्गदर्शक सिद्धान्त मानते हुए यह तर्क दिया कि राज्य संस्था ‘बल-प्रयोग’ पर आधारित है, अत: वह ‘हिंसा’ के साथ जुड़ी है। आदर्श समाज के अंतर्गत जब सभी व्यक्ति अहिंसा की भावना से प्रेरित होकर एक-दूसरे के साथ सहज-स्वाभाविक रूप से समायोजन कर सकेंगे, तब कोई किसी पर बल-प्रयोग नहीं करेगा; बलवान् निर्बल को नहीं सताएगा; धनवान निर्धन का शोषण नहीं करेगा। ऐसी हालत में राज्य और राजनीतिक शक्ति का अस्तित्व निरर्थक और अनावश्यक हो जाएगा। इस तरह गाँधीजी ने राज्यहीन समाज’ की वकालत करके नैतिक आधार पर अराजकतावाद की पुष्टि की है।
नॉजिक का अर्ध – अराजकतावाद-समकालीन अमेरिकी दार्शनिक रॉबर्ट नॉजिक (1938) ने अपनी चर्चित कृति ‘एनार्की, स्टेट एवं यूटोपिया’ (1947) के अंतर्गत यह तर्क दिया है कि सामाजिक जीवन की धुरी ‘व्यक्ति’ है; समाज, राज्य या अन्य कोई समष्टि व्यक्ति के अधिकार और कर्तव्य निर्धारित नहीं कर सकती। कोई भी समष्टि केवल स्वैच्छिक समूहन के रूप में विधिसम्मत हो सकती है, इसलिए नहीं कि वह अपने सदस्यों के जीवन को उन्नत करने का दावा करती है। इस तर्क के आधार पर नॉजिक ने केवल ‘न्यूनतम राज्य-शक्ति’ के प्रयोग को उचित ठहराया है। यह दृष्टिकोण आधुनिक स्वेच्छाक्तांवाद की मान्यताओं के अनुरूप है।
नए समाज की रूपरेखा- अराजकतावादी के नाते क्रॉपॉटकिन वर्तमान’राज्य’ का अंत कर देना चाहता हैं परन्तु राज्य के अंत के बाद नए समाज का रूप क्या होगा। इस बारे में उसने कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्त ही प्रस्तुत किए हैं। मनुष्य जाति ने अपने शताब्दियों के प्रयत्न के बाद जो उत्पादन के साधन विकसित किए हैं, वे सम्पूर्ण मानव जाति की सम्पत्ति हो जाएंगे। अराजकतावादीसमाज में विषमता और निजी सम्पत्ति के लिए कोई स्थान नहीं होगा। उत्पादन के साधनों का प्रशासन और नियंत्रण उत्पादक संघों और कम्युनों के हाथों में रहेगा। जितने माल का उत्पादन होगा, वह सारा एक सामूहिक कोष में रखा जाएगा जहाँ से सब मनुष्य अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार ग्रहण कर सकेंगे। आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं और सेवाओं का निःशुल्क वितरण उस सिद्धान्त के अनुसार किया जाएगा जिसके अनुसार आधुनिक राज्य में पुलिस और अग्नि-शमन सेवा का वितरण किया जाता हैं क्रॉपॉटकिन का सुझाव है कि अंततः भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, शिक्षा, मनोरंजन, इत्यादि प्रत्येक वस्तु और सेवा का वितरण इसी ढंग में किया जाएगा। इस तरह मुद्रा की दासता समाप्त हो जाएगी, और उसके साथ मजदूरी प्रणाली का भी अंत हो जाएगा। क्रॉपॉटकिन के विचार से, अराजकतावादी समाज में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह का श्रम करने वाले कामगार मिल-जुलकर रहेंगे, और उनकी एक-जैसी देखरेख की जाएगी।
नवीन प्रवृत्तियाँ- पिछले कुछ दशकों में प्रतिसांस्कृतिक आन्दोलन के अंतर्गत अराजकतवाद के प्रति नया आकर्षण पैदा हुआ है। मरे बुकचिन ने अपनी चर्चित कृति ‘पोस्ट-स्केयर्सिटी एनार्किज्म (अभावोत्तर अराजकतावाद) (1974) के अंतर्गत यह तर्क दिया है कि समकालीन समाज में प्रौद्योगिकी की अपूर्व उन्नति के कारण ऐसे अभाव का युग बीत चुका है जो समाज में कलह और संघर्ष का कारण था। अत: अब राज्य और अर्थव्यवस्था दोनों का विकेंद्रीकरण सम्भव हो गया है। वैसे भी केन्द्रीकृत राजय का संगठन मानव-प्रकृति के अनुरूप नहीं है। इसे जान-बूझकर जटिल और कृत्रिम बनाने की कोशिश की गई है। मानवता के भविष्य को सँवारने के लिए छोटे-छोटे आत्मनिर्भर और स्वाधीन समुदायों का गठन करना चाहिए जिनमें लोग मिल-जुलकर रहेंगे और मिल बांटकर खाएंगे। इनके संगठन में सत्तावाद, श्रेणीतंत्र और अधिकारतंत्र के प्रयोग की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए।
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