उत्तर-उपनिवेशवादी विचारधारा पर प्रकाश डालिए अथवा उपनिवेशवाद की विवेचना कीजिए।
औपनिवेशवादी विचारधारा का उदय द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपनिवेश की उदारवादी और मार्क्सवादी समझ की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। उत्तर-उपनिवेशवादी सिद्धान्तकारों न प्राथमिक तौर पर उदारवादी विचार पद्धति के तर्कों की आलोचना की। इस विचार का मानना था के पूर्वी या प्राच्य (ओरिएन्ट) देश असभ्य, जंगली और खूंखार प्रवृति वाले है। उत्तर उपनिवेशवादी दृष्टिकोण ने ‘सभ्यता प्रसार मिशन, के नाम पर उपनिवेशों पर कबजा करने के औचित्य की आलोचना की। इस दृष्टिकोण के अनुसार ‘समय बनाने के मिशन’ के नाम पर उपनिवेशवाद को सही ठहराने का यह तर्क केवल एक स्वांग था, जोकि स्वजातीय उत्कृष्टता में विश्वास रखने वाले विचार से उपजा था। मूलतः एडवर्ड सईद ने उपनिवेशवादी देशों के सभ्याता प्रसार’ की इस पूरी परियोजना की आलोचना की और तर्क करते हुए कहा कि ‘सभयता प्रसार’ मिशन का प्रसार करतें हुए, साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने पूरब के देशों के पिछड़ेपन और प्राक आधुनिक दशा का चित्रण किया है। उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए कि इसके जरिए, वे पूरब के देशों (ओरिएन्ट) पर अपने शासन को वैधिक बता सकेंगे। एडवर्ड साईद ने ‘सभ्या बनाने के मिशन’ को ज्ञान और सत्ता’ के बीच सम्बन्ध के सन्दर्भ में देखने की कोशिश की। इस विचार पद्धति ने पश्चिमी रचनाओं और काग्रप्रणालियों का अध्ययन कर यह स्थापित करने का प्रयास किया कि पश्चिम द्वारा अपनी महानता के तथाकथित दावे के साथ कहा कि पूरब देशों पर कब्जे की बात कुछ नहीं थी। यह औद्योगिक क्रान्ति के प्रभावों में आई गिरवाट का असर था। उत्तर-उपनिवेशिक यूरोप में उपनिवेशवादी इतिहास लेखन में जानबूझकर पूरब के देशों के पिछड़ेपन के मिथक को गढ़ा गया। इस मिथक को गढ़ने से पूँजीपतियों को विश्वभर में निरंकुश बल या अपनी कुछ प्रणाली की तरक्की के जरिए उपनिवेश बनाने के औचित्य को सही ठहाराने में मदद मिली।
उत्तर-औपनिवेशिक राज्य – उत्तर-औपनिवेशक राज्य वे राज्य है जिन्होंने अपनी स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी और विश्व युद्ध के बाद स्वतन्त्रता हासिल की। यद्यपि उत्तर औपनिवेशक शब्द के विविध आयामों पर तर्क किये जा सकते है। सामान्य तौर पर उत्तर औपनिवेशिक से आशय द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात स्वतन्त्रता मिलने के बाद के समय से है। 1970 से इस शब्द का साहित्यिक आलोचना में प्रयोग किया जाता है। उत्तर-उपनिवेशिक शब्द को औपनिवेशिक समाजों की साहित्यिक जमातों के बीच हुई सांस्कृतिक अंतः क्रिया इंगित करने के लिए प्रयोग किया गया था। यद्यपि सामान्यतः उत्तर-उपनिवेशिक शब्द का प्रयोग यूरोपीय देशों की पूर्व में रही औपनिवेशिक बस्तियों के राजनीतिक, भाषायी और सांस्कृतिक अनुभवों को इंगित करने के सन्दर्भ में किया जाता है।
इस उध्ययन की परम्परा की नीव रखने का श्रेय एडवर्ड सईद की पुस्तक ‘ओरिएन्टलिज्म – 1978, को दिया जाता है। जिससे एक नए विमर्श ने उपनिवेशवाद की समझ को काफी बड़े स्तर पर प्रभावित किया है। साधारण रूप से उत्तर औपनिवेशिक विचार-शैली उत्तर- औपनिवेशिक राज्यों की संस्कृति व उनके समाज पर उपनिवेधवाद के प्रभावों से सम्बन्धित संरचना की व्याख्या करती है। इस विचार पद्धति से जुड़े, विद्वान उत्तर-आधुनिक उत्तर संरचनावादी विद्वानों की विमर्श विश्लेषण विधि को अपनाते है। उदाहरण के तौर पर एडवर्ड सईव ने फुको की शैली को अपनाया होमी भाभा की शैली उत्थयूसर और लांका से प्रभावित है। जबकि गायत्री स्वीवॉक ने देरिदा की विधि को अपनाया।
प्राच्य और पाश् चात्य विवाद- प्राच्य ‘पूर्वदाश का मतलब पूरब से और पाश्चात्य का अर्थ पश्चिम से है। उदारवादी रचनाकारों ने पूरब के देशों की ‘असम्य’ जंगली और खूखार रूप से चित्रित किया है। जबकि एडवर्ड जैसे उत्र- औपनिवेशिक विद्वानों ने इस पहलू की यह कहते हुए आलोचना की है पूरब के देशों का इस तरह का चित्रण, पश्चिम के देशों द्वारा पूरब के देशों (पूर्वदेशीय) के बरक्स अपनी सांस्कृतिक महानता प्रदर्शित करने की कवायद है । सभ्य के बीच के इस दूवि विभाजन से ही ‘सभ्य बनाने के मिशन’ की तथाकथित जरूरत उभरती है।
पूरब को जानने की परियोजना का एडवर्ड सईद का आलोचनात्मक दृष्टिकोण- एडवर्ड सई को ओरिएन्टल्जिम उभर का आया। एडर्वड सईद ने अपने अध्ययन में बातया कि किस तरह से यूरोपिय शक्तियों ने पूरब का एक पिछड़े, असभ्य और जंगली समाज के रूप में चित्रण किया। एडवर्ड सईद ने पूर्वदेशीय/प्राच्यवाद (ओरिएन्टलिज्म) को पश्चिम की पूरब पर “प्रभुत्व कायम करने, “वहाँ की संस्कृति की पुनर्सरचना करने और सत्तासीन होने” की शैली के रूप में परिभाषित किया। पूरब का इस तरह का चित्रण पश्चिम के देशों का ‘पूरब को जानने की परियोजना’ का ही हिस्सा रहा है। यह एडवर्ड की बुनियादी रचना है। जिसने उत्तर औपनिवेशिक साहित्यों पर खासा प्रभाव डाला है। सईद तर्क कहते है। कि पश्चिम के देशों ने किस तरह एक मिथक गढ़कर पूरब के देशों के पिछड़ेपन और जंगलीपन की तस्वीर की। बुनियादी रूप से उन्होंने किताब में यूरोप की अपनी आत्मकेंद्रित महानता के विचार के चलते विशेष रूप से अरब इस्लामिक देशों के खिलाफ उपजे पूर्वाग्रह पर जोर देकर बातें रखी है उत्तर औपनिवेशक विचार पद्धति का तर्क है कि देशों द्वारा किया गया। ‘पूरब का पूरब को लेकर किया गया’ सही विमर्श नहीं है। वास्तव में यह विमर्श पूरब और पाश्चात्य के बीच प्रभुत्व, शक्ति और अधिपत्य के सम्बन्ध की जमीन पर उभारता है। पूर्वदेशीयता / प्राच्यवाद तमाम तरह की संस्थानगत संरचानाओं को जन्म देकर उपनिवेशों में रह रहें लोगों की ” दूसरी लोग” या अन्य रूप में दर्शता है। उपनिवेशों में रह लोगों को ‘पुरातनवादी’ और ‘आदमखोर संस्कृति’ के विमर्शो जरिए या विभिन्न लोगों के रूप में चिन्हित किया जाता है। इसी के जरिए एक-दूसरे से भिन्न दिखने वाले द्विविआधारी विभाजन ‘उपनिवेश में रह रहें लोग’ और ‘उपनिवेश बनाने वाले लोग के बीच अन्तर किया जाता है। इस प्रकार से यह पद्धति उपनिवेश बनाने की पूरी संस्कृति को ही ‘स्वाभाविकता’ और श्रेष्ठाता’ के पैमाने में दिखाने का प्रयास करती है।
इस तरह की संरचनाएँ पुनर्जागरण के मूल्यों से पैदा होती है। इसलिए वे दावा करते है कि उनका भारत या अन्य किसी देश पर शासन ‘सभ्य बनाने के मिशन’ के रूप में श्रेष्ठ कार्य को अंजाम देने के लिए था। अपने शासन को वैधानिकता देने के लिए पश्चिमी शक्तियों ने तर्किकक-अतार्किक, मस्तिष्क, शारीरिक आर्थिक, स्व-अन्य, सभ्य-देशज, व्यवस्था, उथल पुथल जैसे अनेक दविआधारी तैयार किए है।
युग्मक तैयार करने के इस पूरे मुद्दे की जड़ हमें शक्ति और ज्ञान के विमर्श में देखने को मिलती है। एडवर्ड तर्क देते है कि ‘पूरब को जानने की परियोजना का पूरा मामला ही पूरब के जनसमुदाय का संस्कृति को यूरोपिय संस्कृति की तुलना में कमतर बताते हुए इस जनसमुदाय पर नियंत्रण स्थापित करने का था। एडवर्ड सई का इस संदर्भ में कहना था “काफी लम्बे समय से अन्य लोगों के बारे में जानने का काम राजनीतिक और आर्थिक नियन्त्रण में मददगार साबित होता आया है। क्योंकि इसे जानने के काम में साम्राज्यवादी प्रभुत्व को सही साबित काने की जमीन तैयार की और यह एक तरह का तौर-तरीका बन बैठा, जिसने ‘अन्य’ के रूप में पहचाने जा रहे लोग भी खुद को यूरोप का अधीनस्य समझकर उसी तरह से जानने की विधि का हिस्सा बनने के लिए राजी किये जाने लगे। “इससे आशय है कि उपनिवेशों में रह रहें लोगों को यह विश्वास करने के लिए राजी किया गया अथवा यह सिखाया गया कि उपनिवेशवाद या साम्राज्यवाद की निरन्तरता और उसका टिकाउपन उनके द्वारा प्राप्त ‘अन्य’ के ज्ञान पर आधारित था।
इस तरह से उपनिवेशवाद का आर्थिक कया राजनीतिक विश्लेषण करने वाले अध्ययनों से इतर सईद ने ‘शक्ति और ज्ञान’ के सम्बन्ध वाले पहलू पर प्रकाश डाला। एडवर्ड सईद उपनिवेशवादी शक्तियों के स्वार्थ से मुक्त ज्ञान की विचारात्मक मान्यता को चुनौती देने में सफल हुए और उन्होनें बताया कि उपनिवेशवादी शक्तियों की यह मान्यता उनके प्रभुत्व स्थापित करन की परियोजना का हिस्सा थी। एडवर्ड सईद के अनुसार, “पूर्व देशीय संस्कृति की अन्य रूप में उपस्थित ‘पश्चिमी ज्ञानमीमांसा और उपनिवेशवादी शक्ति परियोजना’ की उपज थी।
प्रतिनिधित्व की समस्या और गायत्री स्पीवाक के विचार- प्रतिनिधित्व की समस्या को लेकर गायत्री स्पीवाक ने उत्तर-उपनिवेशिक सिद्धान्त के विकास में विशेष योगदान दिया गायत्री स्पीवाक ने 1999 में प्रकाशित पुस्तक A Critigue of Postcolonial Reason और कैन सबआल्टर्न स्पीक (Can Subaltarm Speak) में निम्न वर्ग के लोगों के स्वायत्त रूप से बोलने पर सवालिया निशान लगाती है। वह पूछती है कि क्या यह बोलना मुख्यधारा की आवाज से स्वतन्त्र हो सकता है, वह ‘प्रतिनिधित्व की समस्या’ का सहारा लेकर तर्क करती है ‘प्रतिनिधित्व कमजोर नहीं पड़ रहा है। वह निम्न वर्ग की बोलने की पारदर्शिता के नामुमकिन होने की तरफ इशारा करते हुए कहती है कि विशेषज्ञ, न्यायाधीश, साम्राज्यवादी, प्रशासक और ऐसे कई तरह के बिचौलियों को हटाकर जो इस तरह से पारदर्शी रूप से बोलने की उपेक्षा करते हैं, वे इस तथ्य को पहचान कर, अनुभवों पर आधारित प्रामाणिक सत्य और कुछ नहीं बस काल्पनिक होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सत्ता हर जगह स्थिल है यहाँ तक कि स्वयं में भाषा की संरचना में भी सत्ता मौजूद है और इसलिए पारदर्शिता और प्रामाणिकता जैसी चीजें नामुमकिन हैं। स्पीवाक मूल रूप से निम्न वर्ग के बारे में एंटोनियो ग्राम्शी के दृष्टिकोण पर सवालिया निशान लगाती है। ग्राम्शी का मानना है कि निम्न वर्ग अन्य लोगों से स्वतन्त्र होकर स्वायत्त होकर बोलने की अपनी स्थिति में होते हैं।
शक्ति की संस्कृति और भाषा- स्पीवाक प्रभुत्व वाली शक्ति संस्कृति और भाषा के द्वारा मुख्यधारा की आवाज में, निम्न और हाशिए के लोगों के लिए कोई जगह नहीं होती है। औपनिवेशिक रचनाओं की व्याख्या वाली परम्परा में इस कड़ी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
भारतीय सन्दर्भ में उत्तर-उपनिवेशिक सिद्धान्त- भारतीय उपनिवेश के प्रति ब्रिटिश नीति पर नजर डालें तो हम पायेंगे कि औपनिवेशिक कब्जे के दौरान अंग्रेजी द्वारा निर्मम तरीके से भारत के सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवहारों के दमन में उनके पूरब के लोगों के असभ्य होने वाले विचार की झलक मिलती है। सती प्रथा को खत्म करने (1829) या विधवा पुनर्विवाह (1856) से सम्बन्धित कानून लाने जैसे तथाकथित ‘सामाजिक सुधार ऐसे सुधार थे, जो उपनिवेशी प्रशासकों की खुद की श्रेष्ठता मनोग्रन्थी के विचार से आये थे उनके लिए इन सुधारों कोक लागू करते समय स्थानीय मान्यताओं और आस्था के लिहाज से सोचना एकदम निरर्थक था। वास्तव में, स्त्रोतों और राजनीतिक संस्थाओं पर कब्जे की कवायत तो बाद में शुरू हुई। उनके लिए शिक्षा में नियन्त्रण स्थापित करने की नीति में रणनीति का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी। अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत का उद्देश्य हम मैकाले के इस कथन में देख सकते हैं जहाँ वह कहता है कि यह शिक्षा “गरीब और असभ्य’ भारतीय नैतिक मूल्यों और बुद्धिमत्ता में अंग्रेजी की तरह होगा।
शैक्षिक प्रभाव- इससे आशय है कि औपनिवेशिक प्रशासकों के लिए शिक्षा अंग्रेजी बोलने वाले बाबुओं का एक वर्ग खड़ा करने का प्रमुख माध्यम थी, जिससे कि ये बाबू लोग अंग्रेजी शासन की जरूरतों की सेवा दे सके। एक तरह से अपनी शैक्षिक नीति के जरिए उन्होंने भारतीयों के दिमाग पर भी औपनिवेशिक कब्जा जमा लिया और धीरे-धीरे अंग्रेजी के ज्ञान को आधुनिकता के अर्थों में देखा जाने लगा। इसके अलावा उनकी ‘पूरब को जानने की परियोजना’ ने भी भारत में साम्राज्य के संघटन में मदद की।
सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तार- विलियम जोंस द्वारा 1984 में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना कर ‘पूर्वदेशीय संस्कृति’ को जानने का कदम इसी ‘पूरब को जानने की परियोजना का हिस्सा था। एशियाटिक सोसाइटी में भारतीय संस्कृति और समाज को जानने के लिए कई धार्मिक रचनाओं का फारसी और बाद में अंग्रेजी में अनुवाद किया गया।
उपनिवेशिक विद्वानों के विचार- उपनिवेशिक विद्वानों ने प्रचीन भारतीय निरंकुश राजशाही के विचार की यह कहते हुए आलोचना की कि यहाँ लोगों को राजशाही के खिलाफ कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे।
इस तरह उपनिवेशवादियों ने प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति को अमान्य करार देने के प्रयास किए। यद्यपि बाद में राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा भारतीय इतिहास से सम्बन्धित उपनिवेशवादी आख्यान के जवाब में निरंकुश राजशाही की धारणा की आलोचना की गई। उपनिवेशवादी आख्यान के ठीक उलट राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने दिखाया कि प्राचीन भारत में राजशाही निरंकुश नहीं थी। कई जगहों पर राजशाही सीमित थी क्योंकि राजा अपने धर्म का पालन करने की शर्त से बंधा था। केवल इतना ही नहीं, वरन जनगणना भी अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज को जानने का महत्त्वपूर्ण माध्यम बनी। इस तथ्य की स्पष्ट झलक अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज (जाति व्यवस्था) के बारे में ज्ञान का उपयोग करके बनाई गई उनकी नियुक्तियों की नीतियों में मिलती है इस तरह से ‘पूर्वदेशीय’ लोगों के बारे में उनके ज्ञान ने भारतीय साम्राज्य के सुदृढीकरण में मदद की।
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