उत्तर प्रदेश के विशेष सन्दर्भ में शिक्षा का लअधिकार अधिनियम 2009 की व्याख्या कीजिए।
उत्तर प्रदेश भारत का एक महत्त्वपूर्ण राज्य हैं यहाँ प्राथमिक शिक्षा की दशा अत्यन्त दयनीय है। यदि आँकड़ो पर नजर डालें तो स्थितियाँ बहुत बुरी हैं। स्टेट एलीमेन्ट्री एजुकेशन रिपोर्ट कार्ड 2008-09 के अनुसार, राज्य में 152 भवन विहीन विद्यालय व उच्च प्राथमिक विद्यालय खुले आसमान के नीचे संचालित किए जा रहे है। 182 प्राथमिक व 911 उच्च प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षक ही नहीं हैं प्रदेश के 4229 प्राइमरी व 8884 उच्च प्राइमरी विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने के लिए सिर्फ एक शिक्षक तैनात हैं यहाँ तक कि जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान खुद संसाधनों की कमी का संकट झेल रहे हैं। अतः इन परिस्थितियों में यह कल्पना भी करना दुष्कर हैं कि शिक्षा का अधिकार कानून अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर पाएगा। क्योंकि प्रदेश में शिक्षा का अधिकार कानून को लागू करने के लिए 4596 नयें प्राथमिक स्कूल 2349 नये उच्च प्राथमिक विद्यालय व अन्य आवश्यक सुविधाओं का विकास करन होंगा, जिसका अनुमानित खर्च 3800 करोड़ रूपये हैं। इस महत्त्वकांक्षी कानून को अमली जामा पहनाने हेतु 3.35 लाख नये प्राथमिक शिक्षकों की तैनाती करनी होगी। वहीं उच्च प्राथमिक स्कूलों में 6700 नये नियमित शिक्षक और 44000 अंशकालिक शिक्षकों को नियुक्त करना होगा। इस पर भी हर साल राज्य सरकार पर 10,000 करोड़ रूपये का अतिरिक्त भार पड़ेगा।
गरीब व वंचित वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित 2.5 प्रतिशत सीटें होने की प्रतिपूर्ति के लिए हर साल 3000 करोड़ रूपये खर्च करने होगें। उत्तर प्रदेश राज्य सरकार का आकलन हैं कि शिक्षा के इस अधिनियम को लागू करने के लिए सलाना 18,000 करोड़ रूपये की आवश्यकता होगी। इसमें 45% अर्थात 8000 करोड़ रूपये की व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य पर डाली गई हैं।
उपरोक्त वर्णित समस्याओं के बावजूद भी ऐसा नहीं हैं कि हम शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 को सफल नहीं बना सकते। कुछ आवश्यक तैयारी तथा उनके उचित क्रियान्वयन द्वारा इसके लक्ष्य को अवश्य प्राप्त किया जा सकता हैं। जिसमें से प्रमुख हैं-
(1) सरकारी तथा गैर सरकारी विद्यालयों को मान्यता देने के क्रम में इस बात का समायोजन अवश्य किया जाये कि लगभग आस-पास के इलाकों में कई स्कूल होते हैं और दूर-दराज ग्रामीण इलाकों में मीलों दूर तक विद्यालय होते ही नहीं हैं।
(2) अधिनियम के लक्ष्य की प्राप्ति में सबसे बड़ी जटिलता संसाधनों की उपलब्धता है। यदि केन्द्र व राज्य सरकारें मिलकर इस संदर्भ में आपसी सहयोग व सामंजस्य का रूख अपनायें व केन्द्र सरकार निर्धन राज्यों को कुछ अतिरिक्त सहायता दें, तो कुछ सीमा तक इसे प्राप्त किया जा सकता हैं।
(3) इस बात पर कड़ाई से नजर रखी जाये कि शिक्षा के विकास हेतु जो धनराशि मुहैया कराई जा रही हैं उसका पूरा लाभ संभावितों को मिले। कमीशनखोरों तथा घूसखोरों को इस प्रक्रिया से अलग रखा जाये।
(4) आज देश भर में बड़ी संख्या में शिक्षक प्रशिक्षण केन्द्र खुले हुए हैं। इन प्रशिक्षण केन्द्रों में प्रशिक्षित युवाओं की एक बड़ी फौज अपनी नियुक्ति हेतु प्रतीक्षारत हैं। अतः सरकार को चाहिए कि नवीन विद्यालयों की स्थापना के साथ शिक्षकों की नियुक्ति की प्रक्रिया भी तेजी से आरम्भ करे।
(5) स्वैच्छिक समाज सेवी संस्थाओं की सीधे तौर पर प्राथमिक शिक्षा से जोड़कर भी देश में एक ऐसा माहौल बनाया जा सकता हैं। जिसमें शिक्षा के बाजारीकरण की बजायें सेवा का भाव जाग्रत हो सके।
(6) विविध प्रकार के जागरूकता कार्यक्रमों द्वारा अभिभावकों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाये कि वे अपने बच्चों को विद्यालय भेजें।
(7) प्राइवेट स्कूल शिक्षा के विकल्प हेतु अच्छे स्त्रोत हैं। इनमें समस्या केवल मोटी फीस वसूलने की हैं। यदि सरकार निजी विद्यालयों की इस लूट पर आवश्यक प्रतिबन्ध लगा सके तो भी इस समस्या पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता हैं।
(8) बच्चों को मिले इस अधिकार को उनकी रोजी-रोटी से भी अवश्य जोड़ा जाये। 6-14 वर्ग के बीच प्राप्त की जाने वाली इस पूरी शिक्षा प्रक्रिया का विद्यालयी पाठ्यक्रम में ऐसे प्रयोजन अवश्य हों जो बच्चों को अक्षर ज्ञान, अंको का ज्ञान तथ विभिन्न विषयों की सैद्धान्तिक जानकारी देने के साथ ही एक ऐसा हुनर, ऐसी कला अवश्य सिखाये, जो आगे चलकर उनके रोजगार का साधन बन सकें।
(9) निर्धन तथा अशिक्षित अभिभावकों के बच्चों के लिए स्कूलों में विशेष कक्षायें चलाया जाना भी इस दिशा में लाभप्रद हो सकता हैं। इससे इस वर्ग के बच्चे कक्षा के अन्य बच्चों के साथ न केवल उचित सामंजस्य बिठा सकेंगे बल्कि कक्षा में पिछड़ेपन से भी बच सकेंगें।
(10) दूर-दराज के ग्रामीण अंचलों में विद्यालय खोले जाने पर विशेष ध्यान दिया जाये।
(11) विद्यालयों में शिक्षकों की कमी आवश्यकता की त्वरित पूर्ति हेतु अवकाश प्राप्त व्यक्तियों को इस क्षेत्र से जोड़ा जाना भी लाभप्रद हो सकता हैं।
(12) विद्यालय में शिक्षा की गुणवत्ता तथा उसे रूचिकर बनाने के प्रयास किया जाये।
इस प्रकार स्पष्ट हैं कि शिक्षा का अधिकार विधेयक 2009, भारत सरकार की एक सार्थक पहल हैं किन्तु इस अधिनियम की सफलता आवश्यक तैयारी के अभाव में संदिग्ध है। एन.सी.ई.आर.टी. के पूर्व निदेशक जगमोहन सिंह राजपूत इस बात की आशंका व्यक्त करते हैं कि आवश्यक तैयारी के अभाव में शिक्षा के अधिकार का यह कानून, केवल कानून ही न बना रह जाये। उनका मानना हैं कि इसे लागू करने के पहले कुछ तैयारियाँ जैसे कार्यरत स्कूलों को क्रियाशील बनाना, उनका स्तर उठाना, उन्हें उचित संख्या में अध्यापक देना, सामग्री देना, पीने का पानी तथा शौचालयों जैसी मूलभूत सुविधाओं की पूर्ति करना आदि की जा सकती थी। शिक्षा का अधिकार एक व्यावहारिक मुद्दा हैं जिसे सिर्फ नियम, कानून बना देने से प्राप्त करना संभव नहीं हैं। देश के सभी बच्चों को विद्यालय की परिधि में लाने का लक्ष्य तभी साकार होगा जब हम युद्ध स्तर पर एकजुट होकर सदुभाव से इस दिशा में क्रियाशील हों। तभी हम शिक्षा के इस अधिगमन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
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