राजनीति विज्ञान / Political Science

उदारवाद का आलोचनात्मक मूल्यांकन | Critical Appraisal of Liberalism in Hindi

उदारवाद का आलोचनात्मक मूल्यांकन | Critical Appraisal of Liberalism in Hindi
उदारवाद का आलोचनात्मक मूल्यांकन | Critical Appraisal of Liberalism in Hindi

उदारवाद का आलोचनात्मक मूल्यांकन | Critical Appraisal of Liberalism in Hindi

उदारवाद का मूल्यांकन- उदारवाद का समर्थन निम्न तर्कों के आधार पर किया गया है-

1. नैतिक आधार- जॉन स्टुअर्ट मिल, काण्ट, हम्बोल्ट तथा ह्यूम ने नैतिक आधार पर उदारवाद का समर्थन किया है। इनके अनुसार, व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास राज्य के न्यूनतम हस्तक्षेप पर ही सम्भव हो सकता है। हम्बोल्ट के शब्दों में, “राज्य का उद्देश्य प्रत्येक नागरिक का पूर्ण विकास होना चाहिए। इसलिए उसे सुरक्षा की छोड़कर जिसका वह स्वतः प्रबन्ध नहीं कर सकता, अन्य किसी तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए। ” मिल ने भी कहा है, “शासन का अत्यधिक हस्तक्षेप जब किसी को अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करने अथवा वांछनीय रूप से अपने विवेकानुसार क्रियाशील होने से वांछित करता है तो शारीरिक, मानसिक गुणों का कुछ भाग विकास से वांचित रह जाता है। “

2. आर्थिक आधार- एडम स्मिथ ने आर्थिक आधार पर व्यक्तिवाद का समर्थन किया है और बेन्थम मिल तथा स्पेन्सर ने उसका अनुकरण किया है। इन लोगों ने तर्क दिया है। कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ के अनुसार कार्य करता है। स्वतंत्र प्रतियोगिता के अन्तर्गत ही अत्यधिक आर्थिक प्रगति संभव है।

3. वैज्ञानिक आधार- हरबर्ट स्पेन्सर इस तर्क का हिमायती है। उन्होंने कहा है कि प्रकृति के प्रत्येक क्षेत्र में निरंतर जीवन-संघर्ष चलता रहता है जिसमें योग्यतम ही बच पाता है और कमजोरों तथा दुर्बलों का नाश हो जाता है। इस सिद्धान्त को ‘योग्यतम को जीवित रखने’ का सिद्धान्त कहते हैं।

4. अनुभव का आधार – व्यक्तिवादियों ने इतिहास द्वारा प्राप्त अनुभव के आधार पर इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। उनका कहना था कि जब कभी राज्य ने सामाजिक या आर्थिक जीवन को नियंत्रित और नियमित करने का प्रयत्न किया, वह अपने प्रयत्नों में बुरी तरह असफल रहा, बर्क ने बताया है कि शासनाधिकारी प्राय: भूल करते आए हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि उनके बिना कोई व्यापार समृद्ध नहीं हो सकता।

5. व्यावहारिक आधार- उदारवादियों के विचार में राज्य बहुत से कार्य करने में अयोग्य है। वह सभी कार्यों का सफलतापूर्वक संचालन नहीं कर सकता। सरकार के निरंतर हस्तक्षेप से समय तथा धन की बरबादी होती है। समाज में स्वार्थ और भ्रष्टाचार बढ़ जाता है। अतः, अनेक रूपों में व्यक्तिगत व्यवस्था और नियंत्रण सरकारी व्यवस्था की अपेक्षा अधिक सफल रहती है।

आलोचनाएँ- निम्नांकित तर्कों के आधार पर उदारवाद की आलोचनाएँ की गई हैं-

1. उदारवादी राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते हैं। लेकिन, यह विचार भ्रामक है, क्योंकि राज्य की उत्पत्ति मानव-जीवन की आवश्यकताओं से हुई है।

2. यह सही है कि व्यक्ति की आत्मनिर्भरता आवश्यक है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि राज्य का कार्यक्षेत्र अत्यधिक सीमित होना चाहिए। आज की परिस्थितियाँ इतनी भयावह हैं कि व्यक्ति अकेला बिना राज्य की सहायता के उन पर विजय नहीं पा सकता। व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए आज राज्य की आवश्यकता है। डॉ० आशीर्वादम ने लिखा है, “विशुद्ध व्यक्तिवाद प्रतिभाशाली व्यक्तियों के निर्माण करने की अपेक्षा व्यक्तित्वहीन मनुष्य का निर्माण करता है।

3. उदारवाद मानव-प्रकृति का गलत चित्रण करता है। वह मनुष्य को मौलिक रूप में स्वार्थी मानता है। यह आलोचना उचित इसलिए नहीं है, क्योंकि मनुष्य में स्वार्थ और परमार्थ दोनों भावनाएँ साथ-साथ काम करती हैं। वह अपनी भलाई के अलावा दूसरों की भलाई भी चाहता है।

4. उदारवाद की यह मान्यता मिथ्यापूर्ण है कि मनुष्य अपना हित भलीभाँति समझता है। कुछ व्यक्तियों के सम्बन्धों में यह बात सही हो सकती है, लेकिन अधिकांश व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह सही नहीं है।

5. उदारवादियों की यह धारणा भी गलत है कि राज्य के कार्य-कलाप में विस्तार हो जाने से स्वाधीनता नष्ट होती है तथा सामान्य कल्याण में राज्य के हस्तक्षेप का परिणाम स्वतंत्रता का अपहरण होता है।

6. उदारवादियों का प्रमुख आधार स्वतंत्र प्रतियोगिता है, लेकिन आलोचकों की राय में स्वतंत्र प्रतियोगिता केवल बलवानों के लिए लाभप्रद हो सकती है, दुर्बलों के लिए नहीं। समाज में दासता, भूख, अस्वस्थता तथा योग्यता स्वतंत्र प्रतियोगिता के ही परिणाम हैं।

7. जहाँ तक ‘योग्यता की विजय’ का प्रश्न है, यह एक भ्रामक तथा अमानवीय धारणा है। यह सिद्धान्त निम्नकोटि के जीवों के लिए भले ही सही हो, सृष्टि के श्रेष्ठतम प्राणी मनुष्य पर इसे लागू नहीं किया जा सकता। हैलोवेल ने कहा है, “स्पेन्सर ने एक बहुत बड़ी भूल की है और बहुत से लोग वही भूल अब तक करते आ रहे हैं। “

8. ऐतिहासिक आधार पर उदारवाद का समर्थन गलत है। यदि किसी सरकार ने कोई गल्ती की है, तो इसका अर्थ नहीं कि अन्य सरकार भी वैसी ही गल्तियाँ करेगी। सरकार से अधिक भूल तो स्वतंत्र व्यक्ति करते हैं।

9. नैतिक दृष्टि से भी उदारवाद अपूर्ण है। लॉस्की ने कहा है, “इसका अर्थ है- क्षीण स्वास्थ्य, अविकसित मस्तिष्क, सोचनीय निवास-स्थान और ऐसे काम जिनमें अधिकांश व्यक्तियों को कोई रुचि न हो। “

10. एक अन्य आलोचना इस आधार पर भी की गई है कि आज लोकतंत्र की उन्नति के चलते उदारवाद के व्यक्त्विादी रूप की आवश्यकता लगभग समाप्त हो गई है। लोकतंत्र की सफलता के लिए स्थानीय शासन तथा नगरीकरण एक प्रमुख शर्त है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि विगत चार शताब्दियों में उदारवाद का बोलबाला रहा है और एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में इसने विश्व के लोकतांत्रिक देशों की राजनीति को प्रभावित कर उन्हें नई दिशा प्रदान की है। 19वीं सदी में यह अपनी सफलता की चरम सीमा पर पहुँच गया, लेकिन पुन: 20वीं सदी में इसे समाजवादी और फाँसीवादी विचारधाराओं की चुनौतियों का सामना करना पड़ा और इस प्रकार इसका पतन प्रारम्भ हुआ। विश्व के विभिन्न देशों में आज सैनिक सरकारें हैं। विश्व का एक बड़ा भाग साम्यवाद को अपना चुका है और उदारवादी देशों में सरकारें लड़खड़ा रही हैं। ऐसी परिस्थिति में उदारवाद के भविष्य के आगे एक बहुत बड़ा प्रश्न-चिन्ह (?) खड़ा है। यह सही है कि उदारवाद आज भी विश्व की सबसे अधिक प्रभावशाली विचारधारा है, फिर भी इसमें दृढ़ता का अभाव है। साम्यवादी राज्य जहाँ निश्चित और दृढ़ विचारों पर अपने समाज को गठित कर रहे हैं, वहाँ उदारवादी देश अनिश्चितता की दिशा में बढ़ रहे है। पिछड़े हुए विकासशील राष्ट्र इस उलझन में हैं कि किन राजनीतिक विचारधाराओं को अपनाकर वे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कर सकेंगे। इस उलझन के चलते वे तानाशाही या साम्यवाद के शिकार होते जा रहे हैं।

आज उदारवाद का सबसे बड़ा खतरा विकासवादी समाजवाद से है। समाजवाद प्रगतिशील आर्थिक और सामाजिक नीतियों को अपनाकर कमजोर या गरीब वर्गों को प्रभवित कर रहा है और सरकार धीरे-धीरे उत्पादन और वितरण के साधनों का समाजीकरण कर रही है। भारत में भी एक समाजवादी समाज की स्थापना की उम्मीद की गई है। उदारवाद का एक अन्य खतरा मानव-स्वतंत्रता पर आवश्यकता से अधिक जोर देने के कारण भी उत्पन्न हो गया है। कभी-कभी इसका नाजायज फायदा उठाकर जनता मनमानी करने लगती है और इस प्रकार अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे देश की प्रगति रुकती है।

यदि उदारवाद अपने को उपर्युक्त खतरों से बचा पाने में समर्थ हो जाता है तो इसका भविष्य उज्जवल हो सकता है। इसके लिए पिछड़े हुए अविकसित देशों के आर्थिक विकास में तेजी लानी होगी। मजदूर और कमजोर वर्गों के विकास के लिए प्रयास को तेज करना होगा। जनता को उनके अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों पर भी ध्यान रखना होगा। इन शर्तों की पूर्ति के बाद ही उदारवाद अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है।

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Anjali Yadav

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