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कबीर की भक्ति-भावना को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
अथवा
कबीर की भक्ति-भावना पर प्रकाश लिखिए।
कबीर के काव्य में भक्ति भावना
डॉ० रामकुमार वर्मा ने कबीर : एक अनुशीलन’ में लिखा है, “यद्यपि सन्त-सम्प्रदाय नाच सम्प्रदाय के विकास की एक स्वतन्त्र कड़ी थी और योग का अभ्यास ही उसकी साधना का अंग बन गया था, तथापि इस युग में भक्ति की जो धारा उत्तर भारत में लहरा उठी थी वह सन्त-सम्प्रदाय की साधना का अंग बनकर ही रही। यही नहीं, भक्ति का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया था कि योग की कष्टसाध्य क्रियाएँ नाममात्र के लिए साधना के अन्तर्गत रह गयी थीं। प्रेम की विश्वासमयी अनुभूति एकमात्र भक्ति उसके अन्तर्गत सम्प्रदाय – साधना की प्रमुख मान्यता बन गयी थी रामानन्द के प्रभाव से राम और उनकी भक्ति का प्रसार इतना अधिक था कि सन्त-सम्प्रदाय में भी राम और उनकी भक्ति का रूप स्वीकारा गया। यह दूसरी बात है कि राम का नाम ही सन्त-सम्प्रदाय से मान्य हुआ, राम का व्यक्तित्व नहीं। राम के ब्रह्म रूप को विस्तार देने के लिए एक और अवतार और मूर्ति का खण्डन किया गया और दूसरी ओर राम के इस भाव अनेकानेक नाम तथा उनके निर्गुण रूप पर बल दिया गया।”
कबीर ने सप्तद्वीप और नवखण्ड में भक्ति भावना का प्रचार किया था। इस आशय का पद को उजागर करता है-
भक्ति द्राविड़ी ऊपजी लाए रामानन्द।
परगट किया कबीर ने सप्तदीप नवखण्ड।।
कबीर बार-बार इस तथ्य का स्मरण दिलाते हैं कि मानव-जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। इस मानव जीवन को सार्थक बनाने हेतु वे हरिभजन तथा प्रभु-भक्ति का अवलम्ब ग्रहण करने को कहते हैं। कबीर स्पष्ट कहते हैं कि यह मानव-जीवन बार-बार नहीं प्राप्त होता है। इस योनि को प्राप्त करने के बाद भी यदि मानव न देता तो उससे बड़ा अभागा कोई और नहीं होगा। इसी आशय का एक पद इस प्रकार है-
नर देही बहुरि न पाइये, तार्थं हरषि हरषि गुण गाइये।
जो मन नहीं तजै विकारा, तौ क्यूँ तिरिये भी भारा।
जब मन छांड़े कुटिलताई, तब आइ मिले राम राई।
कबीर के सोचने का स्तर कुछ भिन्न था तुलसी की पंक्ति ‘पूजिय विप्र सकल गुन हीना’ का आदर्श कबीर को मान्य न था। वे रामभक्त चाण्डाल को श्रेष्ठ तथा अभक्त ब्राह्मण को नीच मानते हैं-
साकत बाँभन मति मिलै वैस्नो मिले चंडाल।
अंकमाल दै भेटिए मानो मिले गुपाल॥
कबीरदास जी वैष्णव भक्ति को उत्कृष्ट मानते हैं। वे उसे हजारा कापड़ा मानते करते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं। देखें कबीर की ‘शब्दावली’ में भक्तिपरक विचारावली-
भगत हजारा कापड़ा, तामै मल न समाइ।
साकत वाली कामरी, भावै तहाँ बिछाई॥
कबीर वैष्णव भक्ति को राम के तुल्य ही मानते हैं। वैष्णव भक्ति मोक्ष को प्रदान करनेवाली है। कबीर इसी तथ्य का उद्घाटन करते हैं-
मेरे संगी दोइ जनां, एक वैस्नी एक राम।
वो है दाता मुकुति का, वो सुमिरावै नाम॥
कबीर ने भक्ति को सर्वोपरि माना है। ज्ञान, कर्म, योग आदि सब भक्ति के दूसरे दर्जे हैं। जहाँ पर भक्ति की स्थापना है, वहाँ पर अन्य किसी भी तथ्य का नहीं है। भगवान् की अनुभूति को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि मानव भक्त बने, उसमें असीम ईश्वर के प्रति अनन्य सेवा का भाव उजागर हो। ज्ञान का मार्ग अति लम्बा है। वर्षों की सतत यातना, कष्ट का मार्ग है। योग को हठयोग भी कहा जाता है।
वह अत्यन्त दुरूह तथा किसी योग्य गुरु के अभाव में नितान्त असम्भव है। ऐसी हालत में भक्ति अति सरल, सहज तथा सर्वसुलभ है। भक्ति का भाव जिस पल साधक को अपने में समेट ले, जिस समय साधक अपने अस्तित्व को मिटा दे, भगवान्, वह विराट् ब्रह्म तो उसके हृदय से उपजेगा ही। अतः भक्ति का मार्ग अवलम्ब है। कबीरदास ने इसीलिए बार-बार हरिभजन को मोक्ष का कारण माना है।
कबीर ने ब्रह्म की भक्ति को अवगाह्य बताया है। वे राम, कृष्ण, रघुपति, माधव, हरि का नामोल्लेख नहीं करते हैं। वे अवतारों में भी विश्वास नहीं करते हैं।
कबीर पुनः सावधान करते हैं। वे स्पष्ट बताते हैं कि लोक राम को नहीं जानता है। वह असमञ्जस की स्थिति में है, भुलावे में है। वह दशरथ सुत राम की महिमा का गुणगान करता है। वे (कबीर) बार बार परब्रह्म राम का जाप करने को कहते हैं। उनकी अनेक पंक्तियों में लगभग इसी भाषा तथा विचार का प्रतिपादन हुआ है—–(1) निर्गुन राम जपहु रे भाई। (2) राम नाम का मरम है आना, दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
कबीर का ब्रह्म विशाल है। ज्योति का असीम पुञ्ज है। उसकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता है
पारब्रह्म के तेज को कैसा है उनमान।
कहिबे कूं सोभा नहीं, देख्यां इ परवान ॥
आश्चर्य है, कबीर का ब्रह्म बड़ा ही पेचीदा तथा क्लिष्ट है। वह वही है। उसको समझना अति कठिन है। तभी तो कबीरदास जी उसे सगुण तथा निर्गुण दोनों ही से परे मानते हैं-
निर्गुण की सेवा करो सर्गुण का धरो ध्यान।
निर्गुण सर्गुण से परे तहाँ हमारो ज्ञान॥
कबीरदास जी बार-बार इसी तथ्य को दुहराते हैं कि वह जैसा कहा जाता है वैसा तो कदापि नहीं है। और कैसा है इसकी जानकारी किसी को नहीं हो पाती है। सृष्टि नियन्ता को कोई न जानता है और न कोई जान सकता है। वह वही है- जस कहिए तस होत नहीं जस है वैसा सोइ उसको वही जानता है। कोई भी अलग उसको नहीं समझ सकता है- ‘वोहे जैसा वोही जाने, ओही आदि आदि नहीं जाने।”
कबीर का राम निरुपाधि, निर्विकार, निर्विशेष ब्रह्म का पर्याय है। वहीं इस विशाल-विराट् सृष्टि का कर्त्ता-धर्ता हैं, सब-कुछ वही करता है। उसके अलावा यह इन्सान कुछ भी नहीं कर पाता है। तभी तो मानव को सचेत करते हुए कबीरदास कहते हैं-
साई सँ सब होत है, बन्दे तें कछु नाहिं।
राई तें परबत करै, परबत राई माहिं॥
यहाँ पर उपासना तथा भक्ति दोनों के अर्थों को समझना उचित होगा। कुछ विद्वानों ने उपासना को भयमूला और भक्ति को प्रेममूला माना है। लेकिन उन दोनों का अभीष्ट ईश्वरानुरक्ति की है। श्रद्धा तत्व की कुछ समानता अवश्य ही दिखायी पड़ती है। भवन को उपासक कहा जा सकता है और उपासक को भी भक्त माना जा सकता है। दोनों की क्रिया-पद्धति में अन्तर हो सकता है, लेकिन शेष सब वही है।
राम का नाम सभी लेते हैं लेकिन हर किसी का प्रयास अलग-अलग होता है। एक सती होनेवाली नारी भी नाम लेती है और दूसरी ओर वही नाम एक ठग द्वारा भी लिया जाता है। देखें- व्यंग्यात्मक भाव में कवि का कथन कितना सहज है-
सोई आँसू साजना सोई लोग बिडोह।
जौ लोइन लोही चुवै ती जानों हेतु हियोहं॥
कबीर सच्चाई से राम का नाम लेने को महत्त्व देते हैं। कारण कि राम के शरणागत हो जाने पर सब-कुछ ठीक हो जाता है। साधक का कार्य है कि वह राम के दरवाजे पर पड़ा रहे। उसकी खबर राम स्वयं लेंगे। देखें कबीर का भक्तिपरक दोहा-
कबीर कूता राम का मोतिया मेरा नाउँ।
राम नाम की जेवड़ी जित खँचे तित जाउँ॥
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