हिन्दी काव्य

तुलसी महान् समन्वयवादी कवि थे। इस उक्ति की विवेचना कीजिए।

तुलसी महान् समन्वयवादी कवि थे। इस उक्ति की विवेचना कीजिए।

अथवा

तुलसी समन्वयवादी कवि हैं। निबन्ध लिखिए।

अथवा

‘तुलसी का काव्य समन्वय की विराट् चेष्टा है।” इस कथन की सोदाहरण पुष्टि कीजिए।

अथवा

तुलसी की समन्वय भावना पर एक निबन्ध लिखिए।

 

तुलसी अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण के कारण लोकनायक कहे जाते हैं और बुद्धदेव के पश्चात् उन्हें लोकनायकत्व का महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। लोकनायक ही समन्वयवादी हो सकता है और समन्वयवादी ही लोकनायक, अतः तुलसी के लोकनायकत्व पर विचार कर लेने के लिए उनकी समन्वयवादी भावना पर विचार कर लेना आवश्यक है। तुलसी की समन्वयवादी विचारधारा का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है-

1. धार्मिक क्षेत्र में समन्वय

तुलसी मूलतः मानवतावादी कवि थे। धर्म मानव जीवन की एक अमूल्य वस्तु है। एक लोकनायक आत्मा का अपने समय के धार्मिक जीवन पर दृष्टिपात करना स्वाभाविक ही था, अतः लोकनायक तुलसी ने देखा कि धार्मिक दृष्टि से भारतीय समाज में बड़ी विशृंखलता है। धर्म के नाम पर बने विभिन्न सम्प्रदाय, जैसे- शैव, वैष्णव, शाक्त आदि परस्पर वैमनस्य और भेदभाव की अग्नि में जलते रहते हैं। फलस्वरूप हिन्दू धर्म पतन की ओर उन्मुख हो रहा था। धर्म की इस शोचनीय अवस्था का अवलोकन करके तुलसी ने उनके विरोधों को दूर करने का सफल प्रयत्न किया। उन्होंने विविध धार्मिक सम्प्रदायों में निम्न प्रकार से समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया-

(क) शैव और वैष्णवों का समन्वय- शिव को अपना सर्वस्व माननेवाले भक्त शैव कहलाते हैं और विष्णु को अपना सर्वस्व माननेवाले वैष्णव की संज्ञा पाते हैं। तुलसी के समय के दोनों सम्प्रदायों के अनुयायी एक-दूसरे को हेय और तुच्छ समझते थे। तुलसी ने एक समन्वयवादी कलाकार होने के नाते दोनों मतों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया। इसलिए उन्होंने शैवों और वैष्णवों की कटुता को दूर करने के लिए अपने काव्य में विविध स्थानों पर शिव को राम और राम को शिव का उपासक बताया है। उन्होंने राम के मुख से शिव के लिए कहलवाया है-

संकर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास।

ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक महुँ वास।।

इसी प्रकार शिव से राम के लिए कहलवाया है-

सोइ मम इष्ट देव रघुबीरा सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥

(ख) राम सम्प्रदाय और पुष्टिमार्ग का समन्वय- तुलसी ने अपनी अलौकिक प्रतिभा से राम सम्प्रदाय और पुष्टि सम्प्रदाय में समन्वय स्थापित किया। पुष्टिमार्ग में ब्रह्म की कृपा अथवा अनुग्रह ही सब कुछ होता है। उसकी कृपा के बिना कुछ नहीं हो सकता है। तुलसी ने राम का ब्रह्म के रूप में चित्रण करते हुए पुष्टिमार्ग के अनुसार ब्रह्म की कृपा अथवा अनुग्रह को ही सर्वोपरि बताया। इसलिए उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है-

राम भगति मनि उर बस जाके। दुख लवलेस न सपनेहु ताके।

चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥

2. दार्शनिक समन्वय

द्वैत-अद्वैत का समन्वय- तुलसी के समय दार्शनिक विवाद जोरों पर था। अद्वैतवादी माया को मिथ्या और द्वैतवादी सत्य मानते हैं। गोस्वामी जी ने माया के दो रूपों-विद्या माया तथा अविद्या माया की कल्पना की। द्वैतवादियों के अनुसार विद्या माया सत्य है और अद्वैतवादियों की तरह उन्होंने अविद्या माया को असत्य माना है। जीव के पाप प्रभु-कृपा से नष्ट हो जाते हैं। ईश्वर एक है, वही विविध रूपों में दृष्टिगत होता है। वैसे तो संसार ‘असत्य है किन्तु भगवान् की लीला-स्थली होने के कारण सत्य है। मुक्ति का साधन भक्ति है, जिससे परम पद प्राप्त होता है।

3. मानव संस्कृति में समन्वय

तुलसी के काव्य में विभिन्न संस्कृतियों का अभूतपूर्व समन्वय उपलब्ध होता है। इस तथ्य पर डॉ0 उदयभान सिंह के विचार उल्लेखनीय हैं- “तुलसी साहित्य में पाँच भिन्न जातियों के पात्रों का चित्रण हुआ है- देव, दानव, नर, वानर और तिर्यक् उनकी अपनी संस्कृति है। इनकी संस्कृति को तुलसी ने अंकित किया है।” इसके अतिरिक्त तुलसी के साहित्य में मानव संस्कृति में भी समन्वय की भावना के दर्शन होते हैं जैसे राजन्य वर्ग, वन पथ के जन-साधारण और कोल-किरातों की जीवन पद्धति में विषमता है। तुलसी ने राम के सम्बन्ध के द्वारा उन सभी का समन्वय प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त तुलसी ने हिन्दू संस्कृति के साथ मुस्लिम संस्कृति का समन्वय भी स्थापित किया है।

4. राम काव्यधारा और कृष्ण काव्यधारा में समन्वय

तुलसी ने अपनी उच्चतम प्रतिभा से राम काव्यधारा और कृष्ण काव्यधारा में भी समन्वय स्थापित किया है। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि तुलसी स्वयं राम काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि थे, परन्तु फिर भी उन्होंने कृष्ण के चरित्र को लेकर ‘कृष्ण गीतावली’ की रचना की।

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि तुलसी श्रेष्ठतम समन्वयवादी कवि थे। भारत में बुद्धदेव के पश्चात् तुलसी से बड़ा कोई समन्वयवादी नहीं हुआ। वास्तव में तुलसी सच्चे लोकनायक थे। उन्होंने जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समन्वय का सफल प्रयोग किया। तुलसी को अपने इस लक्ष्य में इस कारण सफलता मिली कि वे नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों का जीवन भोग चुके थे। उनका सम्पूर्ण साहित्य समन्वय की उज्ज्वल भावना से ओत-प्रोत है। डॉ0 हजारीप्रसाद द्विवेदी के मतानुसार, “उनका सारा काव्य समन्वय की विराट् चेष्टा है जैसे लोक और शास्त्र का समन्वय, गृहस्थ और वैराग्य का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय कथ्य और तत्त्व ज्ञान का समन्वय, ब्राह्मण और चाण्डाल का समन्वय, पाण्डित्य और अपाण्डित्य का समन्वय रामचरितमानस शुरू से आखीर तक समन्वय का काव्य है।”

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Anjali Yadav

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