किशोरावस्था में शारीरिक विकास तथा इसे प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
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किशोरावस्था में शारीरिक विकास (Physical Development During Adolescence)
किशोरावस्था सामान्यतया 12 से 18 वर्ष तक होती है। किशोरावस्था में बालकों में तीव्रतम विकास का समय 14 से 15 वर्ष तथा बालिकाओं में 11 से 13 वर्ष होता है। किशोरावस्था में शारीरिक विकास निम्न प्रकार से होता है-
1. भार- किशोरावस्था में, किशोरों का भार किशोरियों की अपेक्षा अधिक बढ़ता है। इस अवस्था के अन्त में किशोर का भार किशोरी से 26 पौण्ड अधिक होता है।
2. ऊँचाई – किशोरावस्था में 15 वर्ष की आयु में किशोर तथा किशोरियों की ऊँचाई लगभग समान रहती है। 18 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते किशोरों की लम्बाई किशोरियों से 6-7 सेमी. अधिक हो जाती है। किशोरी 16 वर्ष की आयु में अपनी अधिकतम ऊँचाई प्राप्त कर लेती हैं. किशोरों की लम्बाई 18 वर्ष के बाद भी बढ़ती रहती है।
3. सिर व मस्तिष्क- सिर एवं मस्तिष्क का विकास इस अवस्था में भी होता रहता है। । 15 या 16 वर्ष की आयु तक सिर का लगभग पूर्ण विकास हो जाता है। मस्तिष्क का भार 1200 और 1400 ग्राम के बीच होता है।
4. हड्डियाँ – इस अवस्था में अस्थिकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। कुछ छोटी- मोटी अस्थियाँ आपस में जुड़ जाती हैं।
5. दाँत- किशोरावस्था के आरम्भ तक बालकों और बालिकाओं के सभी स्थायी दाँत निकल आते हैं। प्रज्ञादन्त भी इस अवस्था के अन्त में अथवा प्रौढ़ावस्था के प्रारम्भ में निकलते हैं।
6. माँसपेशियाँ- किशोरावस्था में माँसपेशियों का विकास तीव्रता से होता है। 12: वर्ष की आयु में माँसपेशियों का भार शरीर के कुल भार का 33% और 16 वर्ष की आयु लगभग 44% होता है। माँसपेशियों के गठन में दृढ़ता आ जाती है। सभी अंग सुडौल और पुष्ट दिखाई देने लगते हैं।
शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
इसे प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन निम्नलिखित है-
1. वंशानुक्रम- वंशानुक्रम या आनुवंशिकता शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाला सर्वप्रमुख कारक है। बेन्डिक्ट के अनुसार- “आनुवंशिकता माता-पिता के जैविक गुणों का सन्तति हस्तान्तरण है।”
प्राणी की उत्पत्ति माता-पिता के बीज कोशों के संयोग से होती है। जैव वैज्ञानिकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने अपने विभिन्न अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि माता-पिता के शील- गुणों का उनकी संतान पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। स्वस्थ माता-पिता की संतान प्रायः स्वस्थ होती है और रोगी तथा निर्बल माता-पिता की संतान प्रायः निर्बल और रोगी होती है। वंशानुक्रम या आनुवंशिकता को शारीरिक विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है।
फ्रांसिस गाल्टन के अनुसार- “मानव विकास में पोषण की अपेक्षा आनुवांशिकता सर्वाधिक सशक्त करक है।”
2. वातावरण- मनोवैज्ञानिक रॉस के अनुसार- “कोई बाह्य शक्ति जो हमें प्रभावित करती है, वातावरण है।”
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किसी व्यक्ति का पर्यावरण वातावरण उन सब उत्तेजनाओं का योगफल है जो उसे गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त प्राप्त होती है। वातावरण में मुख्यतः तीन आयाम होते हैं- भौगोलिक वातावरण, सामाजिक वातावरण तथा मानसिक वातावरण अनुकूल वातावरण शारीरिक विकास पर अनुकूल प्रभाव डालता है, जबकि प्रतिकूल वातावरण का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में जलवायु, पर्याप्त प्रकाश, स्वच्छ मनोरम वातावरण बालक-बालिकाओं के शारीरिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।
3. पौष्टिक भोजन- बालक का स्वस्थ एवं स्वाभाविक विकास विशेष रूप पौष्टिक तथा संतुलित आहार पर निर्भर होता है। इस सम्बन्ध में सोरेन्सन ने कहा है- “पौष्टिक भोजन थकान का प्रबल शत्रु और शारीरिक विकास का परम मित्र हैं।”
4. नियमित दिनचर्या – बालक के शारीरिक विकास पर नियमित दिनचर्या का प्रभाव पड़ता है। उसके खाने, पीने, पढ़ने, लिखने, सोने आदि के लिए समय निश्चित होना चाहिए। अतः स्वस्थ एवं स्वाभाविक विकास के लिए बालक में आरम्भ से ही नियमित जीवन बिताने की आदत डालनी चाहिए।
5. निद्रा व विश्राम- शरीर के स्वस्थ विकास के लिए निद्रा और विश्राम आवश्यक है। अतः शिशु को अधिक-से-अधिक सोने देना चाहिए। तीन या चार वर्ष के शिशु के लिए 12 घंटे की निद्रा आवश्यक है। बाल्यावस्था और किशोरावस्था में क्रमशः 10 और 8 घंटे की निद्रा पर्याप्त होती है। बालक को इतना विश्राम मिलना आवश्यक है, जिससे कि उसकी क्रियाशीलता से उत्पन्न होने वाली थकान पूरी तरह से दूर हो जाए, क्योंकि थकान उसके विकास में बाधक सिद्ध होती है।
6. व्यायाम, खेलकूद व मनोरंजन- सदैव काम करते रहना तथा खेलकूद न करना, मनोरंजन के अवसर न मिलना बालक के विकास को मन्द कर देता है। इस प्रकार शारीरिक विकास के लिए व्यायाम और खेलकूद अपरिहार्य होते हैं। इसके साथ मनोरंजन एवं मनोविनोद भी शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
7. प्रेम- बालक के शारीरिक विकास पर माता-पिता तथा अध्यापक के व्यवहार का भी काफी असर पड़ता है। यदि बालक को इनसे प्रेम और सहानुभूति नहीं मिलती है तो वह काफी दुःखी रहने लगता है जिससे उसके शरीर का संतुलन और स्वाभाविक विकास नहीं होता है। उसका विकास कुंठित हो जाता है।
8. सुरक्षा- शिशु या बालक के सम्यक विकास के लिए उसमें सुरक्षा की भावना अति आवश्यक है। इस भावना के अभाव में वह भय का अनुभव करने लगता है और आत्म- विश्वास खो बैठता है। ये दोनों बातें उसके विकास को अवरुद्ध कर देती हैं।
9. पारिवारिक परिवेश- परिवार ममता का स्थल होता है। ममता, मैत्री, वात्सल्य, प्रफुल्लता, स्नेह, सहयोग, संरक्षण, सहानुभूति परिवार में ही सुलभ होते हैं। अतः उपयुक्त शारीरिक विकास के लिए उपयुक्त पारिवारिक परिवेश नितान्त आवश्यक हो जाता है।
शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ अन्य कारक भी हैं, जैसे- गर्भवती का स्वास्थ्य, रोग अथवा दुर्घटना के कारण उत्पन्न शारीरिक विकृतियाँ, जलवायु, सामाजिक परम्पराएँ, परिवार की आर्थिक स्थिति, परिवार का रहन-सहन तथा शैक्षिक व राजनैतिक विकास आदि।
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