“केवल राज्य ही नहीं बल्कि व्यक्ति भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि के दीर्घकालीन इतिहास में यह विवाद का विषय रहा है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि का विषय सिर्फ राज्य है अथवा व्यक्ति भी है। इस पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रचलित है जिसमें निम्न प्रमुख हैं-
1. परम्परागत दृष्टिकोण- अन्तर्राष्ट्रीय विधि का पुराना सिद्धान्त है कि यह विधि केवल पूर्ण सत्ताधारी राज्यों के लिए ही है। यह राज्यों का कानून है, व्यक्तियों का नहीं। अतः अन्तर्राष्ट्रीय विधि जिन अधिकारों एवं कर्तव्यों की रचना करता है, वे केवल राज्यों पर ही लागू होते हैं। इस मत के समर्थकों में प्रमुख हैं- प्रो. ओपेनहाइम उन्होंने लिखा है- अन्तर्राष्ट्रीय विधि प्राथमिक रूप से राज्यों के बीच विधि है, अत: केवल राज्य ही उसके विषय हैं। इस मत को मानने वाले विधिवेत्ताओं के अनुसार, व्यक्ति इस मत के लक्ष्य हैं, विषय नहीं। दूसरे ये दृष्टिकोण दासों एवं समुद्री डाकुओं की स्थिति को स्पष्ट करने में असफल रहा है। परन्तु वे विधिशास्त्री जो यह कहते हैं कि राज्य ही एकमात्र इस विधि की विषय-वस्तु है, दासों एवं समुद्री डाकुओं को अपवाद स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय विधि की विषय-वस्तु मानते हैं।
2. वर्तमान दृष्टिकोण- अन्तर्राष्ट्रीय विधि का अविरल विकास हुआ तथा इस विकास ने नई चुनौतियाँ भी उत्पन्न की, परिणामस्वरूप परम्परागत दृष्टिकोण में भी परिवर्तन हुआ। आधुनिक युग में यह कहना कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून केवल राज्यों पर ही लागू होता है, गलत है। आधुनिक विधिवेत्ता इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून केवल राज्यों पर ही लागू होता है। अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के द्वारा उत्पन्न किये गये अधिकार एवं कर्त्तव्यों की विषय-वस्तु मात्र पूर्ण सत्ताधारी राज्य है। वर्तमान में इस विधि के विषय-वस्तु व्यक्ति, गैर-राज्य इकाइयाँ तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थायें भी होती है। वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय विधि सामान्य व्यक्तियों तथा पुरुषों के लिए भी अधिकारों एवं कर्त्तव्यों का सृजन करता है। उदाहरणार्थ अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन तथा विश्व बैंक ।
यदि हम निम्नलिखित तर्थ्यो पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि कोई व्यक्ति किस सीमा तक अन्तर्राष्ट्रीय विधि की विषय-वस्तु हो सकता है-
1. वास्तव में राज्य व्यक्तियों का एक समूह है तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि जो अधिकार राज्यों को देती है या जो कर्त्तव्य उस पर लगाती है, वे उन व्यक्तियों के ही अधिकार एवं कर्त्तव्य होते हैं जो उस राज्य में निवास कर रहे हों। प्रसिद्ध विद्वान केल्सन के अनुसार, राज्यों के अन्तर्गत उन व्यक्तियों के अस्तित्व का ही बोध होता है जो उसकी रचना करते हैं। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से राज्य के अधिकार एवं कर्तव्य उन व्यक्तियों के ही अधिकार एवं कर्तव्य हैं जो उसकी रचना करते हैं।
2. अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित भी कुछ अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियाँ की गयी हैं, जिनमें किसी राज्य के अल्पसंख्यकों को कुछ अधिकार प्रदान किये गये हैं। वसंजीज की सन्धि, सन् 1919 के अनुच्छेद 297 और 304 इसके उदाहरण हैं।
3. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने संयुक्त राष्ट्रसंघ को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति माना है। न्यायालय के अनुसार इसका अर्थ हुआ कि यह (संयुक्त राष्ट्रसंघ) अन्तर्राष्ट्रीय विधि का एक विषय है तथा यह अन्तर्राष्ट्रीय अधिकार तथा कर्तव्य रखने योग्य है तथा यह अपने अधिकारों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय दावे प्रस्तुत कर सकता है।
4. आधुनिक काल में राज्यों के विरुद्ध व्यक्तियों को प्राप्त कुछ अधिकार भी इस बात के महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं कि व्यक्ति को अन्तर्राष्ट्रीय विधि का विषय माना जाने लगा है।
5. संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर में भी व्यक्ति के अधिकार को महत्व दिया गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस चार्टर की प्रस्तावना में संयुक्त राष्ट्रसंघ के “व्यक्तियाँ” शब्दों का प्रयोग किया गया है। सन् 1948 में मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा द्वारा पारित किया गया। इस घोषणा में व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों तथा स्वतन्त्रता के विषय में विस्तृत उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त सन् 1948 में सामान्य सभा ने नरसिंह सन्धि (Genocide Convention) को स्वीकृति प्रदान की। इस सन्धि के अन्तर्गत नरसंहार के अपराध के दोषी व्यक्तियों को दण्ड देने का प्रावधान है। अत: यह स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के अन्तर्गत भी व्यक्तियों के अधिकारों को महत्व दिया गया है।
6. न्यूरेम्बर्ग के परीक्षण में व्यक्तियों को दण्डित किया गया था अतः उस परीक्षण ने यह स्पष्ट करा दिया है कि यदि साधारण व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध अपराध करेगा तो उसे दण्डित किया जायेगा। यह धारणा इस सिद्धान्त पर आधारित है कि युद्ध सम्बन्धी नियम राष्ट्रों के ही लिए नहीं वरन् उनके नागरिकों अथवा व्यक्तियों के लिए भी बाध्यकारी होंगे।
7. जासूसी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत एक अपराध है। अत: गुप्तचरों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत दण्ड दिया जा सकता है।
8. इसी प्रकार डाकुओं को पकड़कर कोई भी राज्य दण्ड दे सकता है।
9. सन् 1949 के युद्ध बन्दियों सम्बन्धी जेनेवा सन्धि द्वारा भी युद्धबन्दियों को कुछ अधिकार प्रदान किये गये थे।
निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि दिन प्रतिदिन व्यक्तियों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत नये-नये अधिकार तथा उत्तरदायित्व का विषय बनाया जा रहा है। वर्तमान समय में यह कहना उचित नहीं होगा कि व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय विधि के केवल लक्ष्य हैं। वास्तव में व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय हैं। जैसा कि प्रो० ओपेनहाइम ने कालान्तर में अपने मत में बदलाव लाते हुये कहा है कि – “यद्यपि राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के मुख्य विषय है फिर व्यक्तियों एवं के अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि का विषय माना जा सकता है।
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