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गर्भकालीन विकास की विभिन्न अवस्थाएँ कौन-सी है?
गर्भधारण के तुरन्त बाद शारीरिक विकास प्रारम्भ हो जाता है। भिन्न-भिन्न विकास अवस्थाओं में शारीरिक विकास भिन्न-भिन्न गति से चलता है। अन्य विकास अवस्थाओं की अपेक्षा गर्भकालीन अवस्था से शारीरिक विकास की गति अपेक्षाकृत अधिक तीव्र होता है। गर्भकालीन अवस्था 280 दिन की होती है। जीववैज्ञानिक इस अवस्था में 24 दिन के दस चन्द्र महीन मानते हैं। बोलचाल की भाषा में इस अवधि में 9 महीने कहे जाते हैं। इस अवस्था के अधिकांश परिवर्तन शारीरिक होते हैं। कारमाइकेल (L. Carmichael, 1954) के अनुसार, गर्भकालीन अवस्था कम से कम 180 दिन तथा अधिक से अधिक 334 दिन की हो सकती है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इस अवधि के निम्न तीन उपभाग किये गये हैं-
1. डिम्ब अवस्था गर्भधारण से 2 सप्ताह तक-
यह अवस्था बीजावस्था भी कहलाती है, जिसकी अवधि गर्भधारण से दो सप्ताह तक होती है। इस अवस्था के प्राणी, जो अण्डे की शक्ल का होता है, युक्ता कहलाता है। इसका आकार पिन की हेड के बराबर होता है। इसके आकार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता है; क्योंकि इसे माँ से कोई आहार प्राप्त नहीं होता है। आवेग में पाया जाने वाला योक (Yolk) नामक पदार्थ ही इसका आहार होता है। कोष्ठ-विभाजन की क्रिया युक्ता के अन्दर चलती रहती है परन्तु युक्ता में बाहर से कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता है। यह गर्भधारण के बाद गर्भाशय में लगभग एक सप्ताह तक तैरता रहता है। लगभग 10 दिन में ही यह गर्भाशय की दीवार से चिपक जाता है और आहार के लिए यह माँ के शरीर से इस प्रकार सम्बन्धित हो जाता है, परन्तु माँ के गर्भाशय की दीवार से यह उस समय चिपक नहीं पाता हैं जब उसकी थॉयराइड और पिट्यूटरी ग्रन्थियाँ अनुपयुक्त ढंग से कार्य करती है। इस अवस्था में कुछ (Zygote) मृत हो जाता है। ही दिनों में योक पदार्थ, युक्ता से समाप्त हो जाता है और युक्ता
2. भ्रूण अवस्था (2 सप्ताह 2 महीने )-
इस अवस्था की अवधि दो सप्ताह से दो माह तक होती है। इस अवस्था में भ्रूण में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। इस अवस्था के अन्त तक भ्रूण की आकृति मानव के शक्ल की हो जाती है और शरीर के मुख्य-मुख्य अंगों का निर्माण हो जाता है। भ्रूण की संरचना को यदि देखा जाय तो इसका निर्माण तीन पर्तों से होता हुआ दिखाई देता है—प्रथम पर्त बहिः स्तर कहलाती है जिससे त्वचा, दाँत, नाखून, बाल और नाड़ीमण्डल आदि का विकास होता है। नाड़ीमण्डल में मस्तिष्क का विकास तीव्र गति से होता हैं द्वितीय पर्त मध्य स्तर कहलाती है जिससे त्वचा का भीतरी भाग और माँसपेशियों का निर्माण होता है। तृतीय पर्त अन्तः स्तर कहलाती है जिससे सम्पूर्ण पाचन प्रणाली का निर्माण होता है। फेफड़े, ग्रन्थियों और यकृत आदि का निर्माण भी इसी पर्त से होता है।
दूसरे मास के अन्त तक भ्रूण की लम्बाई 1 1/4 इंच से 2 इंच तक हो जाती है तथा इसका भार लगभग 2/3 औंस हो जाता है। इस अवस्था के भ्रूण को सरलता से पहचाना जा सकता है। शरीर के अंग और भागों का विकास काफी कुछ हो जाता है। सिर का आकार शरीर के अन्य अंगों की अपेक्षा काफी बड़ा होता है। नाक के केवल एक छिद्र होता है। मुँह बिना दाढ़ी (Chin) का होता है। कान और आँखों आदि का विकास प्रारम्भ हो जाता है। इसके हाथ पैर बहुत दुर्बल होते हैं। इससे हड्डियों के स्थान पर Cartilage होती है। हृदय, यकृत और आँतों का विकास होने लगता है। इस अवस्था में गर्भ गिरने के कई कारण हो सकते हैं, जैसे—संवेगात्मक आघात, माँ का दुर्बल आहार, ग्रन्थियाँ, असन्तुलन आदि।
इस कारण से यदि स्वतः गर्भ गिर जाता है, तो उसे स्वतः गर्भपात (Spontaneous Abortion) कहते हैं। इस अवस्था में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न होने पर भ्रूण में विकासात्मक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। विकृतियों के उत्पन्न होने का एकमात्र यही कारण प्रतीत होता है कि इसी अवस्था में शरीर के विभिन्न अंगों का निर्माण प्रारम्भ होता है। अतः गर्भित महिलाओं को चाहिए कि वह अपने को धक्का लगने, मानसिक तनाव, दुर्बल आहार, गिरने, झटका लगने और शारीरिक दुर्बलता आदि से अपने आप को बचाएँ।
3. गर्भस्थ शिशु की अवस्था ( 3 महीने जन्म तक ) –
यह तीसरे महीने के प्रारम्भ से और जन्म लेने तक की अवस्था है। यह अवस्था सर्वाधिक लम्बी है। इस अवस्था में शरीर के उन अंगों में वृद्धि होती है; जो इससे पहले की अवस्था में निर्मित हुए थे। तीसरे महीने के अन्त तक गर्भस्थ शिशु का भार 3/4 औंस, व लम्बाई 3 1/2 इंच होती है। पाँचवें महीने के अन्त तक उसका भार 9-10 औंस व लम्बाई 10 इंच तक हो जाती है। आठवें महीने के अन्त तक लम्बाई 16-18 इंच तथा भार 4-5 पाउण्ड तक हो जाता है। दसवें चन्द्र मास के अन्त तक लम्बाई 20 इंच तक तथा भार 7 से 7 1/2 पाउण्ड तक हो जाता है। इस अवस्था में सिर का विकास भी छठे माह तक तीव्र गति से होता है। सिर तीसरे महीने के अन्त तक सम्पूर्ण शरीर का 1/3 होता है, छठे महीने के अन्त तक सम्पूर्ण शरीर का 1/2 भाग होता है और दसवें चन्द्र मास के अन्त तक इसका आकार इसी प्रकार का रहता है बल्कि यह सम्पूर्ण शरीर का 1/4 से अवश्य हो जाता है। स्पष्ट है कि छठे से दसवें माह तक सिर की अपेक्षा शरीर का विकास बहुत तीव्र गति से होता है। त्वचा सिकुड़ी हुई होती है। इस अवधि के अन्त तक त्वचा लाल हो जाती कुछ कम है। त्वचा पर बाल बहुत मुलायम होते हैं। सातवें से नवें महीने के मध्य धड़ में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। तीसरे महीने तो पैरों की अपेक्षा हाथ अधिक लम्बे होते हैं। चौथे महीने अंगुलियों के पौरों (Toes) का निर्माण और विकास प्रारम्भ हो जाता है।
चौथे महीने के अन्त तक हृदय की धड़कने सुनी जा सकती हैं। पाँचवें महीने के अन्त तक इस अवस्था के शिशु के आन्तरिक अंग उसी प्रकार से कार्य करने लगे जाते हैं, जैसे वयस्क लोगों में। ई. ईखोम के अनुसार, पाँचवें महीने के अन्त तक थाइमस, थॉयराइडे और एड्रीनल ग्रन्थियों में महत्त्वपूर्ण होते हैं। तीसरे महीने के अन्त तक गुर्दे भी अपना कार्य प्रारम्भ कर देते हैं। मार्टिन के अनुसार, तीसरे महीने में मस्तिष्क में जो विकास होते हैं, उनमें उन क्षेत्र का विकास अधिक तीव्र गति से होता है, जो गत्यात्मक क्रियाओं को नियन्त्रित करते हैं।
इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रियों के विकास के सम्बन्ध में सरलता से यह नहीं कहा जा सकता है कि किस ज्ञानेन्द्रियों का विकास किस सीमा तक हो चुका है। आँख का विकास गर्भधारण के दूसरे या तीसरे सप्ताह से प्रारम्भ हो जाता है। लगभग आठ महीने की अवस्था तक रेटिना का प्रबन्ध लगभग उसी प्रकार का हो जाता है जैसे कि वयस्क व्यक्तियों का सम्पूर्ण गर्भकालीन अवस्था में शिशु आंशिक रूप से बहरा होता है, क्योंकि उसके कान बन्द होते हैं। जन्म के कुछ समय बाद तक भी बालक आंशिक रूप से बहरा होता है। जब उसके कान की Eustachian Tube खुल जाती है और मध्य कान में भरा द्रव्य बाहर निकल जाता है, जब उसे स्पष्ट सुनाई पड़ने लग जाता है। वरनार्ड ने अपने प्रयोगात्मक अध्ययनों में देखा कि माँ के पेट पर यदि एक विशिष्ट प्लेट लगाई जाय और घण्टी की तीव्र ध्वनि की जाय, तो गर्भस्थ शिशु नवें महीने के अन्त में इस प्रकार की ध्वनि के प्रति अनुक्रिया करता है। स्पर्श-संवेदना नाक और मुँह के क्षेत्र में सर्वप्रथम विकसित होती है और जो शरीर के अन्य भागों में फैल जाती है। ताप और पीड़ा संवेदना बहुत कम विकसित होती है। गर्म उद्दीपकों के प्रति ठण्डे उद्दीपकों की अपेक्षा गर्भस्थ शिशु शीघ्र अनुक्रिया करता है। इस अवस्था के अन्त तक घ्राणेन्द्रियों का विकास काफी पूर्ण हो जाता है। परन्तु घ्राण संवेदना तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि नाक की नली में हवा न भर जाये।
पाँचवें माह तक गर्भ के गिरने की सम्भावना रहती है परन्तु इसके बाद बहुत कम। सामान्यतः सातवें महीने के अन्त तक गर्भस्थ शिशु का शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक अंगों का विकास इतना हो जाता है कि यदि इस अवस्था के शिशु का जन्म हो जाये तो वह जीवित रह सकता है। आठवें और नवें महीने में यदि जन्म होता है तो गर्भस्थ शिशु के जीवित रहने के अवसर बढ़ जाते हैं और दसवें महीने में जन्म होने के अवसर सर्वाधिक होते हैं।
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