घनानन्द के प्रेम-वर्णन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
“घनानन्द का प्रेम स्थूल नहीं सूक्ष्म है। उसमें अश्लीलता एवं काम-वासना नहीं अपितु दिव्यता एवं पवित्रता है।” इस कथन के सन्दर्भ में घनानन्द के प्रेम-वर्णन की समीक्षा कीजिए।
अथवा
“घनानन्द प्रेम की पीर के कवि हैं।” उपयुक्त उदाहरणों द्वारा इस कथन की पुष्टि कीजिए।
रीतिकाल के कवियों में शृंगार का वर्णन प्रमुख रूप से उभरकर सामने आया है, इसी कारण उस काल को श्रृंगार काल के नाम से भी कुछ विद्वान् जानते हैं। उन कवियों की अपरिमेय कल्पना शक्ति नायिका के अंग-प्रत्यंग से लिपट गयी और उनके सौन्दर्य के स्थूल वर्णन से लेकर भावों के सूक्ष्म वर्णन तक में अपनी लेखनी का भरपूर प्रयोग किया जहाँ इतने प्रयत्नों के बाद उन्हें नायिका-भेद के वर्णन में काफी सफलता मिली वहीं उनके शृंगार-वर्णन में प्रेम का अभाव भी रहा। नारी केवल भोग्या बनकर रह गयी, प्रेमिका या जीवन-सहचरी नहीं, किन्तु रीतिकाल के रीतिमुक्त कवियों में घनानन्द-जैसे कुछ प्रमुख कवि हुए जिन्होंने प्रेम का वर्णन एक सतही रूप में न करके उसकी अथाह गहराई को नापने का प्रयास किया। प्रेम के लौकिक पक्ष के साथ-साथ इन्होंने अलौकिक पक्ष का भी निरूपण किया है। घनानन्द के प्रेम के सम्बन्ध में डॉ0 बच्चन सिंह ने लिखा है-“उनकी प्रेम-वेदना में सूफियों-जैसी ‘प्रेम की पीर’ थी, फिर भी वह उनसे भिन्न थी। मीरों का अनिर्वचनीय दर्द भी उनको मिला था पर वह भक्त का भगवान् के प्रति दर्द नहीं था। बोधा और ठाकुर की वैयक्तिक अनन्यता उनकी भी अनन्यता थी लेकिन उसके अतिरिक्त कुछ और भी था।”
घनानन्द का अकृत्रिम प्रेम, घनानन्द का प्रेमी ऐसे कठोर सिद्धान्तवाला है जो मन तो लेता है। लेकिन उसके बदले, शतांश भी स्नेह नहीं जताता। घनानन्द उससे पूछते हैं, “तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो लला मन लेहु पै देहु छटांक नहीं।” लेकिन इसका जवाब देना तो दूर वह अनसुना किये चला जाता है। घनानन्द न जाने कितनी बार उसकी निर्दयता की शिकायत उससे करते हैं, न जाने कितना अनुनय, विनय करते हैं फिर भी वह नहीं सुनता-
जासों प्रीति ताहि निठुराई सों निपट नेह,
कैसे करि जिय की जरीन सो जताइयै
यहाँ निरदई दई कैसे के जिवाऊँ जीव
वेदन को बढ़वारि कहाँ लौं दुराइयै ।
घनानन्द का यह प्रेम विचित्र है। उसमें भीगना और जलना दोनों है। सबसे बड़ी बात उनकी ‘मूक लौं कहनि है’ विरह में मरने पर आ बनी है, फिर भी न जाने किस धातु का बना है कि वह जरा भी नहीं पिघलता-
अंतर उदेग-दाह आँखिन प्रवाह आँसू
देखि अटपटी चाह भीजनि दहनि हैं।
सोइबो न जागओ हो, हँसिबो न रोइबो हूँ
खोय खोय आप ही मैं चेटक-लहनि हैं।।
जान प्यारे प्राननि बसत पै आनंद घन
विरह-विषम-दसा मूक लौ कहनि है।
जीवन मरन, जीव मीच बिना बन्यौ आज
आय कौन विधी रची नेही की रहनि है।
घनानन्द के प्रेम की व्यापकता— घनानन्द के इस तीखे और गहरे दर्द के पीछे उनका एकनिष्ठ एकान्तिक प्रेम है, जो विषम होते हुए भी उनके लिए सर्वोपरि है। एकनिष्ठता ने उनके प्रेम को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया, जहाँ वे प्रेमी की कठोरता भूलकर भी उसकी सुधि में तन्मय हैं। उसके रूप पर न्योछावर हैं। उसके नेह में पागल हैं। उनका यह प्रेम तुलसीदास के उस चातक की भाँति है—
उपल बरसि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर।
चितव की चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर ॥
घनानन्द की प्रेम-साधना इसीलिए एक विषम साधना है। इसके पीछे भक्ति सम्प्रदायों की प्रेम साधना की पृष्ठभूमि है। उन्हीं की तरह प्रेमभाव को ये महाभाव मानते हैं और उसे ज्ञान से ऊँची पदवी दे डालते हैं—
ज्ञानहूँ ते आगे जाकी पदवी परम ऊँची,
रस उपजावै तामे भोगी भोग जात है।
जान घनआनंद अनोखे यह प्रेमपंथ,
भूलते चलत रहै सुधि के थकित है।
घनानन्द के प्रेम का आदर्श- घनानन्द का यह प्रेम शुद्ध है। इस प्रेम का आदर्श चातक है। वे तड़प-तड़पकर मर जायँगे लेकिन उस प्रिय को हृदय से नहीं निकालेंगे, जो एक बार उनके हृदय में बस गया है। चातक तो कुछ चाहता भी है लेकिन घनानन्द प्रतिदान में कुछ नहीं चाहते। इसलिए उनके प्रेम में गाम्भीर्य और गहराई है। सचमुच घनानन्द प्रेम के पपीहे हैं।
घनानन्द के आहत प्राणों की पुकार दिगन्तव्यापी है। यह पुकार इतनी मार्मिक है कि सुननेवाले का कलेजा दहक उठे। यह पुकार आर्त्त पपीहे की अनवरत चलनेवाली पुकार है। इसकी पुकार सुनकर पवन गलियों में हू-हू करता है और मेघ आँसुओं की वर्षा करता है लेकिन यह प्रिय न मालूम कैसा है जो बार बार इस सरल और निःस्वार्थ प्रेम को भी ठुकरा देता है-
पूरन प्रेम का मन्त्र महा पन, जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यो।
ताहि के चारु चरित्र विचित्रनि यो पचि के रचि राखि बिसेख्यो।
एसो हियो हित-पत्र पवित्र जो आन-कथा न कहूँ अवरेख्यो ।
सो घनआनन्द जान, अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यो।
घनानन्द ने अपनी पीर-भरी कहानी लिखकर सचमुच अपने प्रेम को अमर कर दिया है। जिस प्रेम के लिए वे निरन्तर विरह की आँच में तपते रहे, जिसके प्रेम में उन्मत्त हो उन्होंने अनिर्वच को भी शब्द कर डाला, जिस प्रेम कहानी के एक-एक छन्द में उन्होंने अपना हृदय उड़ेल दिया वह अमर क्यों न हो-
हेतु-खेत धूरि चूर-चूर है मिलैगो,
तब चलैगो कहानी घनआनन्द तिहारे की।
निष्कर्ष- घनानन्द का प्रेम ऐसा है जिसमें उनके पल्ले सिवाय वेदना और बेचैनी के कुछ नहीं पड़ा। उनको प्रेम में संयोग का सुख नहीं है, बल्कि वियोग में उन्हें परम आनन्द मिलता है।
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