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घनानन्द के विरह-वर्णन की प्रमुख विशेषताओं का सोदाहरण विवेचन कीजिए।
अथवा
“घनानन्द मुख्य रूप से विरह के कवि हैं।” सप्रमाण विवेचन कीजिए।
अथवा
“घनानन्द का विरह अनुभूति की गहराई और प्राणों की आकुलता से सम्पृक्त है।” सप्रमाण समीक्षा कीजिए।
अथवा
घनानन्द के विरह-वर्णन की विशेषताओं का उद्घाटन कीजिए।
घनानन्द की विरहानुभूति
विरह प्रेम की कसौटी है। जो विरही इस कसौटी पर खरा उतरता है, वही सच्चा प्रेमी माना जाता है, क्योंकि प्रेम का सात्त्विक रूप विरह है, जबकि संयोग प्रेम का राजस रूप है। संयोग में प्रेमी वासना का शिकार बना रहता है, जबकि वियोग में वह वासना से ऊपर उठकर आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है। वैसे भी संयोग में प्रेम के वास्तविक रूप का पता नहीं चलता, क्योंकि प्रेमियों के हृदय में एक-दूसरे के प्रति कितनी दृढ़ता है, कितनी निष्ठा है, कितनी आतुरता है, कितनी तीव्रता है और कितनी चाह है, इसका ज्ञान विरह में ही होता है। विरह प्रेमी की दृढ़ता का परिचायक होता है; विरह ही उसकी निष्ठा एवं उत्कण्ठा का द्योतक होता है और विरह ही एक प्रेमी की प्रिय के प्रति उत्कट चाह, तीव्र आकांक्षा, सुदृढ़ लालसा एवं उद्दाम आकुलता का ज्ञापक होता है। इसीलिए विरह-काव्य सर्वाधिक हृदयद्रावक, चित्ताकर्षक एवं संवेदनात्मक होता है। घनानन्द भी ऐसे ही विरही कवि हैं, जिनके हृदय में अपनी प्रेयसी ‘सुजान’ की उत्कट विरह-भावना भरी हुई है। घनानन्द के विरह में हृदय की उद्दाम लालसा एवं उत्कण्ठा का प्राधान्य है, उसमें अनुभूति की तीव्रता है, अन्तःकरण की सात्त्विक वेदना का आधिक्य है और बाह्य आडम्बर लेशमात्र भी नहीं है।
घनानन्द की विरहानुभूति की विशेषताएँ
(1) रूपासक्ति की प्रधानता- घनानन्द के उत्कट विरह का मूल कारण यह है कि उनकी ‘अलबेली सुजान’ अनिन्द्य सुन्दरी थी। उसमें उन्हें अलौकिक सौन्दर्य के दर्शन हुए थे और वे उस सौन्दर्य को नित्य देखते रहना चाहते थे। कारण यह था कि वह रूप उन्हें नित्य नया-नया प्रतीत होता था और उस रूप पर उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था, परन्तु दुर्भाग्य! वह रूप उनकी आँखों से ओझल हो गया, उन्हें फिर देखने को नहीं मिला और वे अपनी उस पागल रीझ के हाथों बिककर रात-दिन वियोग की आग में जलते रहे-
रावरे रूप की रीति अनूप नयो-नयो ज्यों-ज्यों निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आन तिहारियै॥
एक ही जीव हुतौ सु तो वार्यो सुजान सँकोच ओ सोच सहारियै।
रीकी रहै न, वहै घनआनंद बावरी रीझ के हाथनि हारियै ॥
(2) हृदय की मौन पुकार की अधिकता– घनानन्द का विरह बौद्धिक नहीं है, वह उनके हृदय की सच्ची अनुभूति है और जहाँ विरह बौद्धिक होता है, वहाँ प्रदर्शन एवं आडम्बर का आधिक्य देखा जाता है, किन्तु जहाँ विरह हृदय की अनुभूति होती है, वहाँ प्रदर्शन एवं आडम्बर कहाँ! वहाँ तो हृदय की टीस, प्राणों की तड़पन और मन की आकुलता का आधिक्य होता है और वह टीस, तड़पन एवं आकुलता बाहर नहीं सुनायी पड़ती, क्योंकि हृदय बल नहीं पाता, वह मौन रहकर ही धड़कता रहता है, प्राण कुछ कह नहीं पाते, चुपचाप तड़पते रहते हैं और मन चीत्कार नहीं कर पाता, वह अन्दर ही अन्दर घुटता रहता है और आकुल बना रहता है। यही कारण है कि घनानन्द का विरह बाह्य चीत्कार, बाह्य कोलाहल एवं बाह्य शोरगुल से सर्वथा दूर हृदय की मौन पुकार है तथा अन्तःकरण की आन्तरिक जलन है, जिसमें विरही के प्राण तपते रहते हैं, अंग पसीजते रहते हैं और वह जो मसोस-मसोस कर तड़पता रहता है-
अंतर- आँच उसास तजै अति, अंत उसीजै उदेग की आवस।
ज्यौ कहलाय मसोसनि ऊमस क्यों हूँ सुधरैं नहीं थ्यावस॥
(3) प्रिय-जन्य निष्ठुरता- घनानन्द के विरह की तीव्रता एवं उत्कटता का मूल कारण यह है कि उनका प्रिय बड़ा कठोर है, निर्दय है, निष्ठुर है तथा विश्वासघाती है। उसको इनकी तनिक भी परवाह नहीं है, वह इनकी दुर्दशा देखकर तनिक भी नहीं पसीजता और अब उसने जान-पहचान भी मिटा डाली है। वह अब इन्हें बिल्कुल भूल गया है, जबकि पहले बड़ी मीठी-मीठी बातें करके बहका लिया था। उसी ने इनके हृदय को ठग लिया था और अब निष्ठुरता एवं कठोरता का व्यवहार करके रात-दिन जलाता रहता है, कलपाता रहता है तथा बेचैन बनाये रखता है—
भए अति निठुर मिटाय पहिचानि डारि,
याही दुख हमैं जक लगी हाय हाय है।
तुम तौ निपट निरदई गयी भूलि सुधि,
हमैं सूल-सेलनि सो क्यों हूँ न भुलाय है।
मीठे-मीठे बोल बोलि, ठगी पहिले तौ तब,
अब जिय जारत कहौ धौ कौन न्याय है।
सुनी है कै नाही यह प्रगट कहावति जू,
काहू कलपाय है सु कैसे कल पाय है॥
(4) प्रेमगत विषमता- घनानन्द के विरह में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह एकांगी है। सम नहीं है, अपितु विषम है, क्योंकि जो तड़पन है, चीत्कार है, जलन है, धड़कन है, वह एक ओर ही है केवल प्रेमी का ही हृदय अपने प्रिय (प्रेयसी सुजान) के विरह में रात-दिन तड़पता रहता है, जबकि उनके प्रिय के हृदय में विरह की तनिक भी आग नहीं है, तनिक भी आकुलता-व्याकुलता नहीं है तथा तनिक भी बेचैनी नहीं है। यह प्रेमी प्रिय को जितना चाहता है, उसके लिए जितना कलपता रहता है, प्रिय उसको न तो उतना चाहता है और न ही उतना कलपता एवं तड़पता दिखायी देता है परन्तु प्रेमी घनानन्द को इसकी चिन्ता नहीं है कि उनका प्रिय उनके प्रति कैसे भाव रखता है, वे तो अपने प्रिय के अनन्य प्रेमी हैं और उनके तो रोम-रोम में प्रीति बसी हुई है-
चाही अनचाही जान प्यारे पै आनन्दघन,
प्रीति रीति विषम सु रोम रोम रमी है।
(5) उपालम्भ की तीव्रता- घनानन्द के विरह में उपालम्भ अत्यन्त गूढ़ता एवं गम्भीरता के साथ दृष्टिगोचर होता है। इस उपालम्भ में विरह प्रेम की एकनिष्ठता भरी हुई है, उत्कटता भरी हुई है और प्रिय के प्रेम की उदासीनता भी भरी हुई है। इसीलिए इन उपालम्भों में विरही ने स्वयं को अत्यन्त दीन, हीन, दुःखी, विनम्र एवं अनन्य प्रेमी को कपटी, विश्वासघाती, छली, निर्मोही, सभी प्रकार से सुख-सम्पन्न एवं प्रेमरहित कहा है। अपने प्रेम की इसी अनन्य एकनिष्ठता तथा प्रिय की उदासीनता एवं कपट व्यवहारपूर्ण कठोरता पर उपालम्भ देते हुए कवि ने कितनी मधुर उक्ति दी है…
अति सूधो सनेह को मारग हैं जहँ नेक सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैँ तजि आपुनपौ झझकें कपटी जे निसाँक नहीं ॥
घनआनन्द प्यारे सुजान सुनौ इत एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥
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