द्वितीयक स्त्रोत क्या है? इसके विभिन्न भागों का वर्णन कीजिए।
द्वैतीयक तथ्यों या सामग्री को जिन स्रोतों से प्राप्त किया जाता है, उन्हें तथ्य-संकलन के द्वैतीयक स्रोत कहते हैं। जॉन मेज के अनुसार, “द्वैतीयक स्रोतों का निर्माण कही सुनी बातों एवं अप्रत्यक्ष दर्शकों के आधार पर होता है।” श्रीमती पी.वी. यंग ने लिखा है, “इन तथ्यों (द्वैतीयक) का उपयोग करने वाले एवं उन्हें प्रथम बार एकत्रित करने वाले लोग पृथक्-पृथक् होते हैं।” प्रो. पी. एच. मान, के अनुसार, “ये द्वितीयक स्तर पर प्राप्त किये गये तथ्य होते हैं, यानि कि ये प्रथम बार एकत्रित किये हुए तथ्य नहीं होते बल्कि अन्य व्यक्तियों द्वारा एकत्रित मूल तथ्यों के आधार पर रचित तथ्य होते हैं।” स्पष्ट है कि द्वैतीयक सामग्री तथ्य संकलन की ऐसी सामग्री है जिसका प्रथम बार संकलन करने वाले लोग अब शोधकार्य के लिए इसका उपयोग करने वाले लोगों से भिन्न थे।
द्वैतीयक स्रोतों से कई बार सुगमता से ऐसी महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिल जाती हैं जो प्राथमिक स्रोतों से भी नहीं मिल पाती हैं। सामाजिक शोध में द्वैतीयक स्रोतों का प्राथमिक स्रोतों की तुलना में कम महत्त्व नहीं है। प्राथमिक तथ्यों की सत्यता का पता लगाने के लिए द्वैतीयक स्रोतों द्वारा प्राप्त तथ्यों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। द्वैतीयक स्रोत अध्ययन की प्रारम्भिक पृष्ठभूमि निर्मित करने एवं अध्ययन की दिशा तय करने में उपयोगी भूमिका निभाते हैं।
तथ्य-संकलन के द्वैतीयक स्रोतों को प्रमुखतः दो भागों में विभाजित किया जाता है प्रथम, व्यक्तिगत प्रलेख (Personal Documents) तथा द्वितीय, सार्वजनिक प्रलेख (Public Documents) । इन पर विचार करने से यह स्वतः ही स्पष्ट हो जायेगा कि शोधकर्ता किन-किन स्रोतों में द्वैतीयक तथ्य एकत्रित कर अपने अध्ययन हेतु उपयोग में ले सकता है।
Contents
(I) व्यक्तिगत प्रलेख (Personal Documents)-
व्यक्तिगत प्रलेख के अन्तर्गत वह सम्पूर्ण लिखित सामग्री आ जाती है जो एक व्यक्ति अपने स्वयं के बारे में या सामाजिक घटनाओं को एक विशेष दृष्टिकोण से देख-समझकर प्रस्तुत करता है। व्यक्तिगत प्रलेखों में व्यक्ति के विचारों, भावनाओं, आदर्शों, आदि का समावेश भी हो सकता है। व्यक्तिगत प्रलेखों के रूप में उपलब्ध लिखित सामग्री प्रकाशित और अप्रकाशित दोनों ही रूपों में हो सकती है। व्यक्तिगत प्रलेख का अर्थ स्पष्ट करते हुए जान मेज ने लिखा है, “अपने संकुचित अर्थ में, व्यक्तिगत प्रलेख किसी व्यक्ति के द्वारा उसकी स्वयं की क्रियाओं, अनुभवों एवं विश्वासों के बारे में स्वयं द्वारा लिखा गया एक विवरण है।” जहोदा एवं उनके सहयोगी लेखकों के अनुसार, “व्यक्तिगत प्रलेखों के अन्तर्गत उन सभी प्रलेखों को सम्मिलित किया जाता है जो सामान्यतः सूचनादाताओं के व्यक्तिगत जीवन के आधार पर स्वयं उन्हीं के द्वारा लिखे होते हैं एवं जिनमें उनके स्वयं के अनुभव शामिल होते हैं।”
व्यक्तिगत प्रलेख व्यक्तियों, एक समय विशेष की परिस्थितियों एवं भूतकाल में घटित सामाजिक घटनाओं को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में समझने में योग देते हैं। यद्यपि व्यक्तिगत प्रलेख व्यक्तिपरक होते हैं परन्तु फिर भी सामाजिक शोध में इनकी काफी उपयोगिता है। ये सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने हेतु आवश्यक सामग्री प्रदान करते हैं। इनकी इस दृष्टि से काफी महत्ता है। इनके आधार पर एक विशिष्ट समय में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, व्यवहार- प्रतिमान, सामाजिक आदर्श-नियम, आदि का पता चलता है। पत्र, डायरी, जीवन-इतिहास एवं संस्मरण व्यक्तिगत प्रलेखों के अन्तर्गत आते हैं। यहां अब हम इन्हीं पर विचार करेंगे।
(1) पत्र (Letters) – सामान्य व्यक्ति अपने जीवन में कई कई पत्र लिखता है यद्यपि अधिकांशतः पत्र वैयक्तिक होते हैं, परन्तु फिर भी ये महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करते हैं। अध्ययन की दृष्टि से इतिहासकारों एवं जीवन-लेखकों द्वारा पत्रों का विशेष उपयोग किया गया है। थॉमस एवं नैनकि द्वारा पोलैण्ड के कृषकों के अपने अध्ययन में सर्वप्रथम पत्रों को काम में लिया गया। व्यक्तिगत पत्र अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रदान करते हैं। इनसे पत्र लिखने वालों के विचारों एवं दृष्टिकोणों को समझने में मदद मिलती है। पत्र अपने निकट के व्यक्तियों को लिखे जाते हैं। अतः इनमें व्यक्ति महत्त्वपूर्ण विचारों, भावनाओं, जीवन की प्रमुख घटनाओं, अनुभव, प्रेम, घृणा, अपनी योजनाओं आदि को अन्तरंग पक्षों से सम्बन्धित बातें पत्रों में लिखी होती हैं। पारिवारिक तनाव, वैवाहिक सम्बन्ध, यौनिक असन्तुलन, पृथक्करण, विवाह-विच्छेद, आदि से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण बातों का पता पत्रों के माध्यम से सुगमता से चल जाता है। पत्र चूंकि व्यक्तिगत और गोपनीय होते हैं, अतः इनसे यथार्थ एवं विश्वसनीय सामग्री मिल पाती है।
अध्ययन की दृष्टि से पत्रों की उपयोगिता सीमित ही है। इसका कारण यह है कि एक तो व्यक्तिगत होने के कारण इन्हें प्राप्त करना कठिन है। दूसरा, पत्रों में पूर्ण सन्दर्भ – सहित घटनाओं का विवरण नहीं मिलता है तथा साथ ही घटनाओं के वर्णन में क्रमबद्धता की कमी पायी जाती है। तीसरा, पत्रों में अपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं जिनके आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालना कठिन है। चतुर्थ, यदि पत्र लिखने का उद्देश्य कोई प्रचार कार्य रहा है तो उनमें वर्णित बातों की यथार्थता ज्ञात करना कठिन हो जाता है। अतः पत्रों द्वारा संकलित सामग्री में अभिनति व पक्षपात का दोष पाया जाता है।
(2) डायरी (Diary) – कई लोग अपने दिन-प्रतिदिन की घटनाओं की डायरी के रूप में लिखते हैं। चूंकि डायरी एक पूर्णतः गोपनीय दस्तावेज है, अतः व्यक्ति के जीवन की रहस्यमय बातों का पता लगाने का यह एक विश्वसनीय स्रोत हैं। जॉन मेज ने लिखा है, “डायरियां सबसे ज्यादा रहस्योद्घाटन करने वाली होती हैं क्योंकि एक ओर व्यक्ति को इनका जनता के सामने प्रदर्शित होने का भय नहीं होता एवं दूसरी ओर इनमें घटनाओं एवं क्रियाओं के घटित एवं सम्पन्न होने के समय ही उनको बहुत स्पष्ट रूप में लिख दिया जाता है।” मेज के इस कथन से सामाजिक अनुसन्धान में डायरी का तथ्य-संकलन के स्रोत के रूप में महत्त्व स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। इससे गोपनीय तथ्य प्राप्त होते हैं जो सापेक्ष दृष्टि से अधिक विश्वसनीय होते हैं क्योंकि लेखक डायरी में घटनाओं का यथार्थ चित्रण करता है। वह प्रदर्शन या प्रकाशन के उद्देश्य से डायरी नहीं लिखता है। महापुरुषों के कार्यों, यात्रा-वर्णन, जेल जीवन का वृत्तान्त, युद्ध या किसी अन्य असाधारण घटना के संस्मरण के रूप में लिखी गयी डायरियां शोध कार्य में काफी सहायक होती हैं। डायरियों द्वारा सही सूचनाएं मिल पाती हैं क्योंकि इनमें सामान्यतः घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत नहीं किया जाता । गोपनीय एवं विश्वसनीय तथ्यों को प्राप्त करने का यह एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
यद्यपि सामाजिक शोध में डायरी की काफी उपयोगिता है, परन्तु फिर भी इसकी कुछ सीमाएं हैं, कुछ दोष हैं। आलपोर्ट ने लिखा है, “डायरियों में घटनाओं को पूरी तरह स्वीकार करके चला जाता तथा अक्सर उन व्यक्तियों या दशाओं का विवरण भुला दिया जाता है जिनके अस्तित्व व चरित्र के बारे में डायरी के लेखक को अनुमान मात्र होता है।” जान मेज ने बताया है, “डायरियां जीवन के नाटकीय एवं संघर्षात्मक पक्षों को बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन कर सकती हैं परन्तु कई महीनों के शान्तिपूर्ण एव सुखद क्षणों को इनमें उचित मात्रा में स्थान नहीं दिया जाता है।” इन कमियों के अलावा डायरियों द्वारा तथ्य-संकलन के कुछ अन्य दोष इस प्रकार हैं। इनमें घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण नहीं मिलता है। यदि डायरी को प्रकाशित कराने की लेखक की तनिक-सी अप्रकट इच्छा भी है तो उसमें कल्पनाशीलता एवं घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर लिखने का भाव आ जाता है। ऐसी स्थिति में डायरियों के माध्यम से प्राप्त तथ्यों के आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालना कठिन है।
(3) जीवन-इतिहास (Life History)— तथ्य-संकलन के द्वैतीयक स्रोत के रूप में जीवन-इतिहास का काफी महत्त्व है। जॉन मेज ने लिखा है, “वास्तविक अर्थ में जीवन-इतिहास का तात्पर्य किसी विस्तृत आत्म-कथा से होता है। सामान्य अर्थों में इसका प्रयोग किसी भी जीवन सम्बन्धी सामग्री के लिए किया जा सकता है।” अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि जीवन इतिहास का तात्पर्य किसी भी प्रकार की जीवन-सम्बन्धी सामग्री से है। जीवन इतिहास के प्रमुखतः दो रूप देखने को मिलते हैं—प्रथम, आत्मकथा (Autobiography) जिसे व्यक्ति अपने सम्बन्ध में स्वयं लिखता है, तथा द्वितीय, जीवन-चरित्र (Biography) जिसे कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की जीवन-सम्बन्धी घटनाओं के बारे में लिखता है। साधारणतः प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्तियों के जीवन-चरित्र ही लिखे जाते हैं।
जीवन-इतिहास आत्मकथा के रूप में स्वयं द्वारा भी लिखा जा सकता है और किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा भी। ये दोनों ही द्वैतीयक तथ्य-संकलन के प्रमुख स्रोत हैं। किसी महापुरुष के जीवन-इतिहास से उसके समय की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं विभिन्न प्रकार की घटनाओं को समझने में सहायता मिलती है। जीवन-इतिहासों से एक विशेष काल की सामाजिक परिस्थितियों एवं समस्याओं को समझने में सहायता मिलती है। जीवन इतिहासों से एक विशेष काल की सामाजिक परिस्थितियों एवं समस्याओं को भली प्रकार से समझा जा सकता है। भारत में समाज-सुधारकों के जीवन-इतिहास से हिन्दू-समाज और उसमें व्याप्त कुरीतियों को समझने और उनसे सम्बन्धित अध्ययन करने में काफी मदद मिली है।
जीवन-इतिहासों के उपयोग की कुछ सीमाएं भी हैं। प्रथम, इनमें वस्तुनिष्ठता का अभाव पाया जाता है। आत्मकथाएं लिखने वाले अधिकांशतः यह जानते हैं कि उनका प्रकाशन होगा, अतः वे उनके दुर्बल पक्षों को कई बार छिपा जाते हैं, परिस्थितियों व घटनाओं का यथार्थ चित्रण नहीं कर पाते। इसमें आत्मकथाओं द्वारा प्राप्त सामग्री की वस्तुनिष्ठता एंव विश्वसनीयता कम हो जाती है। द्वितीय, जीवन-इतिहासों से संकलित तथ्यों की जांच करना सम्भव नहीं होता है। तृतीय, जीवन-इतिहासों में व्यक्ति के व्यक्तित्व को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है। जीवन-चरित्र लिखने वाले, किसी नेता या महापुरुष की प्रशंसा में घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं। चतुर्थ, लेखक जिन घटनाओं को अपनी दृष्टि महत्त्वपूर्ण समझते हैं, उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर और शेष को या तो अति संक्षिप्त में प्रस्तुत करते या छोड़ देते हैं। जो बातें उनके सम्मान की दृष्टि से अरुचिकर होती हैं, उन्हें वे स्थान नहीं देते हैं। इससे वास्तविक स्थिति का पता नहीं चल पाता है। ऐसी सामग्री के आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालना बहुत कठिन है।
(4) संस्मरण (Memories)— कई लोग अपनी यात्राओं, जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं एवं रोमांचकारी अनुभवों को संस्मरण के रूप में लिखते हैं, या इन्हें समय-समय पर अन्य व्यक्तियों को सुनाते हैं। ये संस्मरण न केवल व्यक्ति के जीवन-अनुभवों का लेखा-जोखा ही प्रस्तुत करते हैं बल्कि काल विशेष के समाज की दशाओं का चित्रण भी करते हैं। यात्राओं व महत्त्वपूर्ण घटनाओं के संस्मरण लिखने का प्रचलन प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। उदाहरण के रूप में, कोलम्बस, फाह्यान, ह्वेनसांग एवं मैगस्थनीज ने काफी उपयोगी संस्मरण लिखे। ब्रिटिश शासन काल में कई अधिकारियों के द्वारा ऐतिहासिक पद्धति के आधार पर ‘जनपद संस्मरण लिखे गये। इन संस्मरणों से एक काल विशेष की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दशाओं का पता चलता है। इनसे लोगों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों, धर्म, भाषा एवं सम्पूर्ण जीवन-विधि अर्थात् संस्कृति को समझने में मदद मिलती है। संस्मरणों की सहायता से तथ्य संकलन की कमी यह है कि इनमें क्रमबद्धता एवं वस्तुनिष्ठता का अभाव पाया जाता है। फिर भी तथ्य-संकलन के द्वैतीयक स्रोत के रूप में इनकी उपयोगिता है।
(II) सार्वजनिक प्रलेख (Public Documents)-
सामग्री संकलन के द्वैतीयक स्रोत के रूप में सार्वजनिक प्रलेख का काफी महत्त्व है। किसी सार्वजनिक हित को ध्यान में रखकर सरकारी या गैर-सरकारी संस्था के द्वारा सार्वजनिक प्रलेख तैयार कराये जाते हैं। कभी व्यक्तिगत स्तर पर भी तथ्य संकलित किये जाते हैं और यदि उन्हें सार्वजनिक उपयोग के लिए काम में लाया जाता हो तो ऐसी सामग्री भी सार्वजनिक प्रलेख के अन्तर्गत ही आती है। सार्वजनिक प्रलेख व्यक्तिगत प्रलेख की तुलना में अधिक विस्तृत एवं व्यापक जानकारी प्रदान करने वाले और अधिक विश्वसनीय होते हैं। ये प्रायः व्यक्तिगत पक्षपात से मुक्त होते हैं। सार्वजनिक प्रलेखों को प्रमुखतः दो भागों में विभाजित किया जाता है, प्रथम, प्रकाशित प्रलेख तथा द्वितीय, अप्रकाशित प्रलेख।
(1) प्रकाशित प्रलेख (Published Documents)- सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों द्वारा समय-समय पर कई तथ्य प्राथमिक रूप से संकलित कराये जाते हैं जिन्हें सार्वजनिक उपयोग हेतु प्रकाशित करा दिया जाता है। जब इन तथ्यों (सामग्री) का अन्य अनुसन्धान-कर्त्ताओं द्वारा उपयोग किया जाता है तो उनके लिए ये तथ्य प्रकाशित प्रलेखों के रूप में तथ्य-संकलन का द्वैतीयक स्रोत बन जाते हैं। यहां हम कुछ प्रमुख प्रकाशित सार्वजनिक प्रलेकों का उल्लेख करेंगे।
(i) शोध-संस्थानों के प्रतिवेदन- विभिन्न शोध संस्थान अपने शोध-कार्यों का विवरण प्रस्तुत करने हेतु समय-समय पर प्रतिवेदन प्रकाशित कराते हैं। यह सामग्री अन्य शोधकर्ताओं के लिए काफी उपयोगी प्रमाणित होती है। टाटा समाज विज्ञान संस्थान, जनजातीय अनुसंधान संस्थान, राष्ट्रीय शैक्षणिक शोध तथा प्रशिक्षण संस्थान, समाज-विज्ञान शोध परिषद् एवं राष्ट्रीय व्यावहारिक आर्थिक शोध परिषद् ने अपने प्रतिवेदनों का समय-समय पर प्रकाशन कराके महत्त्वपूर्ण शोध-सामग्री उपलब्ध करायी है।
(ii) व्यक्तिगत शोधकर्ताओं के प्रकाशन- अनेक शोध छात्र विभिन्न क्षेत्रों में अपना शोध कार्य सम्पन्न कर शोध-निबन्ध प्रकाशित कराते हैं। ये प्रकाशन भी सार्वजनिक प्रलेख के रूप में द्वैतीयक सामग्री के प्रमुख स्रोत हैं।
(iii) समितियों व आयोगों के प्रतिवेदन- अनेक सरकारी व गैर-सरकारी समितियों तथा आयोगों द्वारा समय-समय पर अपने प्रतिवेदन प्रकाशित कराये जाते हैं। इन समितियों व आयोगों द्वारा कई प्रकार के तथ्य संकलित कराये जाते हैं, जैसे शिक्षा सम्बन्धी आंकड़े, अपराध सम्बन्धी आंकड़े, निर्धनता व बेकारी सम्बन्धी आंकड़े जिन्हें सार्वजनिक उपयोग हेतु प्रकाशित करा दिया जाता है। मद्य निषेध जांच समति, राष्ट्रीय नियोजन समिति, योजना आयोग, आदि के द्वारा प्रकाशित प्रतिवेदन काफी उपयोगी सिद्ध हुए हैं। भारत में जनगणना प्रतिवेदन (Census Reports) द्वैतीयक सामग्री के प्रमुख स्रोत समाजशास्त्रीय अध्ययनों में काफी उपयोग किया गया है। उदाहरण के रूप में, प्रो. आई.पी इनका अनेक देसाई द्वारा भारतीय संयुक्त परिवार सम्बन्धी अध्ययन जनगणना प्रतिवेदन पर ही आधारित है। भारत सरकार द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित कराये जाने वाले ग्रन्थ ‘भारत – 1994’, ‘भारत – 1995’ द्वैतीयक तथ्य संकलन के प्रमुख स्रोत हैं।
(iv) व्यावसायिक संस्थाओं एवं परिषदों के प्रकाशन– राष्ट्रीय उत्पादन परिषद्, बाल-कल्याण परिषद्, सूती कपड़ा मिल मालिक संघ, आर्थिक व सांख्यिकी निदेशालय, कृषि विभाग, चैम्बर आफ कामर्स आदि के प्रकाशन तथ्य-संकलन के महत्त्वपूर्ण द्वैतीयक स्रोत हैं।
(v) अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रकाशन- संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक-वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (UNESCO), विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO), अन्तर्राष्ट्रीय बाल सहायता कोष, आदि के द्वारा समय-समय पर प्रकाशित सामग्री तथ्य संकलन का विश्वसनीय स्रोत है।
(vi) पत्र-पत्रिकाएं — विभिन्न शोध-पत्र समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। अनेक शोध पत्रिकाएं भी निकलती रहती हैं। इनके अलावा दिन-प्रतिदिन की घटनाओं का विवरण समाचार-पत्रों में प्रकाशित होता है, उनमें कई लेख व सम्पादकीय भी छपते रहते हैं। रेडियो व दूरदर्शन भी मूल्यवान् सामग्री उपलब्ध कराते हैं। यद्यपि जन-संचार के इन साधनों से महत्त्वपूर्ण तथ्य तो प्राप्त होते हैं, परन्तु शोध-कार्य हेतु इनका उपयोग बड़ी सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। ऐसे तथ्यों की विश्वसनीयता का पता लगा लिया जाना चाहिए।
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