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नियोजन की परिसीमाएं | limitations of planning in Hindi

नियोजन की परिसीमाएं | limitations of planning in Hindi
नियोजन की परिसीमाएं | limitations of planning in Hindi

नियोजन की परिसीमाओं का उल्लेख कीजिए।

कुछ व्यक्तियों की धारणा है कि नियोजन न तो सम्भव है और न ही आवश्यक। वे कहते हैं कि भविष्य अन्धकारमय होता है और एक गतिशील लक्ष्य। संगठन अत्यन्त परिवर्तनशील एवं विषम परिस्थितियों में कार्य करते हैं जिनमें भविष्य की सही कल्पना करना असम्भव होता है और इसलिए कोई अग्रिम नियोजन किया ही नहीं जा सकता। यद्यपि इस तथ्य में कि भविष्य का सही पूर्वानुमान करना सम्भव नहीं है, बहुत कुछ सत्यता का अंश है, तथापि इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि नियोजन भविष्य की अन्तर्छष्टि प्रदान करता है, और संगठन को अनेकों जोखिमों अनिश्चितताओं और परेशानियों से मुक्त करता है। बिना नियोजन के तो संगठन भविष्य के अन्धकार में भटकता ही रह जायेगा। कुछ व्यक्तियों की धारणा यह है कि नियोजन एक बेकार, अनुत्पादक एवं अनावश्यक कार्यवाही है। वे नियोजन को, तीव्रता से बदलते हुए वातावरण में केवल एक परिपाटी मानते हैं। उनके अनुसार प्रतियोगिता अच्छी से अच्छी बाजार की रणनीति को रद्दी के कागज में बदल देती है। तीव्रता से बदलती हुई आर्थिक राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियां योजनाओं में निरन्तर परिवर्तन की माँग करती हैं। अस्थिर और अशांत वातावरण में योजनाओं में बार-बार परिवर्तन, न केवल कर्मचारियों को मार्गदर्शन देने में विफल कर देते हैं। बल्कि अव्यवस्था, भन्ति, विलम्ब, एवं मनोबल के गिराने का भी कारण बनते हैं। जब कि नियोजन के समर्थक यह कहते हैं कि यही परिवर्तनशीलता और विषमता ही तो नियोजन की आवश्यकता उत्पन्न करती है। यदि हर चीज स्थिर एवं जानी हुई होती ही तो नियोजन की आवश्यकता ही क्या थी। संक्षेप में, नियोजन की निम्नांकित परिसीमाएं हैं-

1. अलोचपूर्णता – नियोजन से कभी-कभी आन्तरिक अलोचपूर्णता तथा कार्य-विधियों में कठोरता का उदय हो जाता है। स्वतन्त्रता का हनन करके, नियोजन व्यक्तिगत विकास एवं रुचि का गला घोंट सकता है। कार्यविधियों की कठोरता संगठन में लाल फीताशाही तथा विलम्बों को जन्म दे सकती है।

2. सही पूर्वानुमानों की कमी- नियोजन, घटकों की सही भविष्यवाणी पर आधारित होता है। किन्तु नियोजन के लिए पर्याप्त तथ्य, विश्वसनीय सूचनाएँ तथा सही अनुमान प्रायः उपलब्ध नहीं होते। इन परिस्थितियों में स्पष्टतः नियोजन का महत्व बहुत कम हो जाता है।

3. भ्रान्तियों के उत्पन्न होने की सम्भावना- यदि पूर्वानुमानों के गलत होने अथवा किसी अन्य कारण से, उद्देश्यों एवं नीतियों को आगे बढ़ाना सम्भव नहीं है, तो इससे बहुत सी भ्रान्तियां उत्पन्न हो जाती हैं, और यदि योजनाओं में परिवर्तन किया जाता है तो यह प्रायः काफी समय लेने वाली एवं महंगी प्रक्रिया सिद्ध होती है।

4. विलम्बकारी एवं महंगी प्रक्रिया – सूचनाओं का संकलन, पूर्वानुमान, विकल्पों का तुलनात्मक अध्ययन सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव और फिर उनमें समायोजन-नियोजन के सभी चरण विलम्बकारी एवं मंहगे सिद्ध होते हैं, और जिनकी व्यवहार में हुत बार कोई आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी आपत्तिकाल में तुरन्त कार्यवाही की आवश्यकता होती है और नियोजन में समय व्यतीत कर देना आत्मघाती सिद्ध होता है। कभी-कभी बिलम्ब के कारण सुन्दर अवसर हाथ से निकल जाते हैं या संस्था के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न हो जाता है।

5. कठिन मानसिक प्रक्रिया – नियोजन में गहन चिन्तन, अत्याधिक कागजी कार्यवाही, विश्लेषण एवं मूल्यांकन ! जैसे चरण इसे एक कठिन एवं कष्टदायी प्रक्रिया बना देते हैं। बहुत से प्रबन्धक इस कष्टकारक प्रक्रिया से बचकर केवल अल्पकालीन कार्यों को करना ही ठीक समझते हैं।

6. परिवर्तनों का विरोध- गतिशील एवं विषम परिस्थितियों में निरन्तर समायोजनों के कारण संगठन में अधिकारी एवं कर्मचारी दोनों ही इसका विरोध करने लगते हैं। वे एक निश्चित ढंग स्थापित कार्यविधियों एवं परम्पराओं के अभ्यस्थ हो जाते हैं, और जब नए नियोजन के फलस्वरूप उनमें परिवर्तन होता है और उनसे नई चीजें सीखने, प्रशिक्षण लेने, अपनी पुरानी आदतों एवं मूल्यों को छोड़ने या विश्वासों को बदलने के लिए कहा जाता है, तो वे इसका विरोध करते हैं और संगठन का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण हो जाता है।

7. बाहरी परिसीमाएं – भविष्य सदैव रहस्यमय होता है। अनिश्चितता एवं अकथनीयता जो व्यवसाय के अभिन्न अंग हैं, नियोजन की उपादेयता को कम कर देते हैं। आर्थिक दशाएं, सरकारी नीतियां, मानवीय व्यवहार, प्राकृतिक प्रकोप, हड़ताल, युद्ध औद्योगिक बीमारियां, सभी तो अनियंत्रणीय घटक हैं जो नियोजन को अत्यन्त कमजोर बना देते हैं और यह केवल एक रूढ़ि बन कर रह जाता है।

8. अभिप्रेरण का अभाव – अभिप्रेरणाओं की कमी संगठन में व्यक्तियों को नियोजन के प्रति उदासीन बना देती है। निकट एवं प्रत्यक्ष परितोषकों का अभाव, सहभागिता की कमी अपनी कमियों के प्रकट होने का डर, आलस्य तथा वर्ग-संघर्ष की सम्भावना कुछ ऐसे मनोवैज्ञानिक घटक हैं जो नियोजन के क्षेत्र एवं उपयोगिता को बहुत सीमित कर देते हैं।

9. दोषपूर्ण नियोजन – अस्पष्ट एवं अवास्तविक लक्ष्यों का निर्धारण, असंगत नीतियां, लम्बी कार्यविधियां कड़े नियम, अलोचपूर्णता और समझदारी की कमी नियोजन के मूल्य को बहुत कर देते हैं। ऐसी स्थिति में नियोजन का या तो विरोध होता है अथवा व्यक्तियों का मनोबल गिरता है।

लेकिन अधिकतर उपर्युक्त दोष संरचनात्मक नहीं है बल्कि केवल क्रियात्मक हैं। यदि नियोजन सावधानीपूर्वक किया जाता है, तो इनमें से अधिकतर दोषों से मुक्ति पाई जा सकती है। प्रभावी नियोजन के सिद्धान्तों की चर्चा पहले ही की जा चुकी है, उनका अनुसरण करना चाहिए।

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Anjali Yadav

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