निराला के प्रगतिवादी काव्य की समीक्षा कीजिए।
अथवा
निराला के प्रगतिवादी विचारों का उद्घाटन कीजिए।
अथवा
“निराला प्रगतिशील चेतना के कवि हैं।” इस कथन के आधार पर निराला की काव्य प्रवृत्तियों को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की विद्रोही चेतना पर प्रकाश डालिए।
अथवा
निराला की कविताओं में व्याप्त आत्म-संस्पर्श की विवेचना कीजिए।
हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद उस काव्यधारा का नाम है, जो छायावाद के समाप्ति काल में 1935 ई० के आस-पास मार्क्सवादी दर्शन के आलोक में सामाजिक चेतना और भावबोध को अपना लक्ष्य बनाकर चली। प्रगतिवादी काव्य के उद्भव और विकास में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ तो सहायक हुईं ही, साथ ही छायावाद की जीवन-शून्य होती हुई व्यक्तिवादी वायवी काव्यधारा की प्रतिक्रिया भी उसमें निहित थी। डॉ० नगेन्द्र का संकेत कि “प्रगतिवाद छायावाद की भस्म से नहीं पैदा हुआ, वह उसके यौवन का गला घोंटकर ही उठ खड़ा हुआ।” इस तथ्य को उजागर करते हैं। यदि छायावाद सूक्ष्म का स्थूल के प्रति विद्रोह था, तो प्रगतिवाद स्थूल का सूक्ष्म के प्रति विद्रोह है। यदि छायावाद द्विवेदीकालीन इतिवृत्तात्मक की प्रतिक्रिया था तो प्रगतिवाद कल्पनात्मक छायावाद की प्रतिक्रिया है। वास्तव में सामान्य के लिए भयावह गरीबी, अशिक्षा और अपमान की स्थिति से जगती हुई उम्र चेतना, रूस में स्थापित साम्यवाद तथा पश्चिम देशों में मार्क्सवाद के सिद्धान्तों से उभरते हुए विश्वव्यापी प्रभाव के कारण भारत में 1935 ई० के आस-पास साम्यवादी (या समाजवादी) आन्दोलन भी होने लगा था। साहित्य भी उससे प्रभावित हुआ और प्रगतिवादी साहित्य का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।
निराला के काव्य में प्रचलित व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह का स्वर इतनी सशक्तता के साथ सुनायी पड़ा कि उन्हें ही प्रगतिवादी आन्दोलन का अग्रदूत कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं है। उन्होंने न केवल ‘पछताता पथ पर आता’ क्षुधा से कवलित भिक्षु का चित्र खींचा और न केवल इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़नेवाली मजदूरनी की ओर उनकी दृष्टि गयीं बल्कि बादल को भी उन्होंने क्रान्ति और विप्लव लानेवाले के रूप में देखा। निराला ने विप्लव के बादल को याद दिलाया कि ‘कृषक बुलाता तुझे अधीर’ क्योंकि ‘विप्लव रव में छोटे ही हैं शोभा पाते।’ निरालाजी की कविताएँ प्रथम कोटि की प्रगतिशील रचनाएँ हैं, क्योंकि उनमें रूढ़िगत प्रगतिवाद या किसी राजनीतिक दल के प्रति आस्था के दर्शन नहीं होते।
निराला के काव्य का मूल्यांकन प्रगतिवाद के निम्नलिखित तत्त्वों के आधार पर किया जा सकता है-
1. रूढ़ि का विरोध- निराला ने अपनी संस्कृति का दम्भ भरनेवालों को ललकारते हुए लिखा है—“हजार वर्ष से सलाम ठोंकते-ठोंकते नाक में दम हो गया, अपनी संस्कृति लिये फिरते हैं। ऐसे लोग संसार की तरफ से आँखें बन्द कर अपने ही विवर के व्याघ्र बन बैठे रहते हैं, अपनी ही दिशा के ऊँट बनकर चलते हैं।” निराला का यह रूढ़ि-विरोध ‘सरोज-स्मृति’ में स्पष्टतः दिखायी देता है—
फिर सोचा- “मेरे पूर्वजगण,
गुजरे जिस राह, वही शोभन,
होगा मुझको, यह लोक-रीति,
2. शोषित वर्ग के प्रति उत्कट सहानुभूति- निराला की कविताओं में शोषित और दुःखीजनों के प्रति गहरी सहानुभूति है। भिक्षुक, वह तोड़ती पत्थर तथा विधवा कविताएँ इस प्रवृत्ति के सुन्दर उदाहरण हैं; यथा-
वह आता,
दो टूक कलेजे का करता पछताता पथ पर आता,
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक।
-भिक्षुक
3. पूँजीपति के प्रति घृणा- निराला ने अपनी पैनी दृष्टि से समाज के सच्चे रूप को देखा था और अपने गरीब जीवन में उसकी गरीबी को सहा था। उन्होंने ‘सहस्राब्दि’ में भारतीय समाज का बहुत ही सटीक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने कई कविताओं में वर्तमान सामाजिक शोषण का चित्र खींचते हुए। यह दिखाया है कि संसार में विजयी कहलानेवाले लोग दूसरों का खून पीकर ही बड़े बनते हैं और इस विचारधारा के सन्दर्भ में उन्होंने पूँजीपतियों को बार-बार ललकारा है। यथा-
भेद कुल खुल जाय वह सूरत हमारे दिल में है।
देश को मिल जाय जो पूँजी तुम्हारी मिल में है।
4. ग्रामीण क्षेत्र– ‘देवी सरस्वती’ कविता में निराला ने ग्रामीण जीवन का सुन्दर वर्णन किया है। वे सरस्वती का निवास-गृह उस ग्राम-जीवन को बताते हैं, जहाँ-
डाले बीज चने के, जौ के और मटर के,
गेहूँ के, अलसी-राई सरसों के कर से।
सुख के आँसू, दुःखी किसानों की जाया के
भर आये आँखों में, खेती की माया से।
‘देवी सरस्वती’ में षड्ऋतुओं का वर्णन अत्यन्त यथार्थमय और मनोरम है।
5. क्रान्ति का आह्वान– समाज के शोषण का अन्त करने के लिए प्रगतिवादी कवि क्रान्ति का आह्वान करता है। निराला अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए ‘श्यामा’ से प्रलयंकारी नृत्य का आह्वान करते है-
एक बार बस और नाच तू श्यामा!
सामान सभी तैयार,
कितने ही हैं असुर, चाहिए कितने तुमको हार!
कर मेखला मुण्ड मालाओं के बल मन-अभिराम
एक बार बस और नाच तू श्यामा!
6. वेदना और निराशा- सामाजिक विषमताओं को देखकर कवि निराला का मन खिन्न हो जाता है। उनके मन में वेदना और निराशा के भाव भर जाते हैं। ये भाव व्यक्तिपरक और समाजपरक- दोनों ही प्रकार के हैं। ‘अपरा’ में व्यक्तिपरक वेदना और निराशा का आधिक्य है। ‘मैं अकेला’, ‘मरण को जिसने वरा है’ तथा ‘स्नेह निर्झर वह गया है’ कविताएँ इसी प्रकार की हैं, यथा-
स्नेह निर्झर बह गया है।
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है—अब यहाँ पिक या शिखी,
नहीं आते, पंक्ति में वह हूँ लिखी,
नहीं जिसका अर्थ,
जीवन रह गया है।
7. साम्यवाद का गुणगान- प्रगतिवादी कवि की यह धारणा है कि समाज के समस्त कष्टों का मूल आर्थिक विषमता है और समाज के समस्त अनर्थों का एक ही उपचार है- साम्यवाद। इसी कारण कभी वह साम्यवाद का गुणगान करता है; कभी रूस की ओर आशा-भरी दृष्टि से देखता है और कभी रूस की लाल सेना के गीत गाता है। ‘बनबेला’ कविता में ‘साम्यवाद’ की प्रशंसा करते हुए निराला ने लिखा है-
फिर पिता संग,
जनता की सेवा का व्रत लेता उमंग,
करता प्रचार,
मंच पर खड़ा हो साम्यवाद इतना उदार|
8. नारी का मांसल-चित्रण- प्रगतिवादी कवि शोषित और त्रसित नारी के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करता है, तो दूसरी ओर वह उसको भोग की सामग्री मानता है और यथार्थवादी वर्णन के नाम पर उसके मांसल तन व रूप का चित्रण भी करता है। छायावाद का सूक्ष्म और अरूप रूप ‘प्रगतिवाद’ में स्थूल और मांसल बनकर हमारे सामने आता है। ‘जुही की कली’ में कवि गोरे-गोरे कपोल को मसल देने की बात कहता है। ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता में ‘मजदूरिन’ के प्रति गहरी सहानुभूति प्रदर्शित करते समय निराला यह लिखना नहीं भूलते हैं कि
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
X X X
देखा मुझे उस दृष्टि से,
X X X
दुलक माथे से गिरे सीकर,
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