शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्यायें | Chief Problems of Primary Education in Hindi

प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्यायें | Chief Problems of Primary Education in Hindi
प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्यायें | Chief Problems of Primary Education in Hindi

प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याओं एवं उनके हल के लिए कोठारी कमीशन के आधार पर सुझाव दीजिए।

प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्यायें (Chief Problems of Primary Education)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में अन्य समस्याओं की भाँति हमारे विद्यालयों के समक्ष शिक्षा की समस्या थी। स्वाधीनता के बाद यह आवश्यक हो गया कि शिक्षा का पुनर्मूल्यांकन किया जाए। मूल्यांकन के समय सभी समस्यायें उपस्थित हुईं, जिनके कारण देश अशिक्षित रहा। देश में नवीन शिक्षा योजना का आरम्भ होने पर भी प्रगति सन्तोषजनक नहीं रही। जनसाधारण तथा सरकार के अपेक्षीय व्यवहार के कारण प्राथमिक शिक्षा प्रगति करने में पूर्णरूपेण असफल रही। वास्तव में, प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्यायें हैं, जिनकी वजह से प्राथमिक शिक्षा वांछित गति से प्रगति नहीं कर पा रही है। इनमें से कुछ समस्यायें निम्न प्रकार हैं-

1. प्राथमिक विद्यालयों की दयनीय स्थिति- प्राथमिक विद्यालयों में कक्षों, फर्नीचर तथा प्रकाश का अभाव है। विद्यालयों में छात्रों के शारीरिक विकास पर ध्यान नहीं दिया जाता है। शिक्षण-शिक्षक की दृष्टि से भी इन विद्यालयों में शिक्षकों में पूर्ण उदासीन मनोवृत्ति दिखायी देती है। इस प्रकार प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है।

2. दोषयुक्त पाठ्यक्रम की समस्या- प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम छात्रों की रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं बनाया जाता है। प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम छात्रों के जीवन से सम्बन्धित नहीं है। इन विद्यालयों में छात्रों की रचनात्मक शक्तियों का विकास करने के लिए पाठ्य सहगामी क्रियाओं का समुचित अभाव है। प्राथमिक स्तर का पाठ्यक्रम न तो समाज और विद्यालय में सम्बन्ध स्थापित करता है तथा न ही गाँवों के बालकों की आवश्यकतायें पूरी करता है। प्राथमिक विद्यालयों में बालकों को कार्य ‘करके सीखने’ का अवसर प्रदान नहीं किया जाता है और सैद्धान्तिक ज्ञान के माध्यम से ही छात्रों का विकास करने की चेष्टा की जाती है।

3. दोषयुक्त शिक्षा प्रशासन की समस्या- प्राथमिक विद्यालयों के प्रधानाध्यापक तथा शिक्षा विभाग के पदाधिकारियों का शिक्षा के सन्दर्भ में व्यवहार उपेक्षापूर्ण है। फलस्वरूप प्राथमिक शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। प्राथमिक विद्यालयों का निरीक्षण करने हेतु पर्याप्त संख्या में निरीक्षकों तथा पर्यवेक्षकों की नियुक्ति नहीं की गयी है। शिक्षा स्तर को सुधारने में शैक्षिक प्रशासन के साथ-साथ शिक्षा निरीक्षकों और पर्यवेक्षकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है।

4. भौगोलिक तथा आर्थिक समस्यायें- जनसंख्या तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत एक विशाल देश है। भौगोलिक दृष्टि से यहाँ के विभिन्न क्षेत्र तथा जलवायु में पर्याप्त विभिन्नता है। अनेक रेगिस्तानी और पर्वतीय क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा को सुलभ कराना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। जलवायु परिवर्तन, आवागमन के साधनों का अभाव आदि अनेक कारण इस दिशा में बाधक सिद्ध होते हैं। मैदानी क्षेत्रों की जनसंख्या इतनी अधिक है कि वहाँ प्रत्येक एक किलोमीटर पर प्राथमिक विद्यालयों की आवश्यकता है। व्यावहारिक दृष्टि से प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है। साथ ही धन का अभाव भी प्राथमिक शिक्षा के अभाव में बाधक है। प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था का उत्तरदायित्व अधिकांशतः स्थानीय संस्थाओं पर होता है, जिनकी आय के स्रोत अत्यन्त सीमित हैं तथा शिक्षा के साथ-साथ अन्य अनेक उत्तरदायित्वों का निर्वाह भी उन्हें करना पड़ता है, जिसके कारण प्राथमिक शिक्षा की भरपूर उपेक्षा होती है। अभिभावकों की आर्थिक दशा भी छात्रों के भविष्य को अन्धकार में रखती है।

5. भाषा की समस्या- प्राथमिक शिक्षा के विकास में भाषा की समस्या अधिक है। व्यावहारिक दृष्टि से आज तक भाषा की समस्या का समाधान नहीं हो सका है। प्राथमिक स्तर पर छात्रों को शिक्षित करने के लिए केवल मातृ भाषा का ही प्रभावशाली रूप में प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु भारत के प्रत्येक प्रान्त की भाषा में भिन्नता पायी जाती है। इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से यह समस्या उत्पन्न होती है कि क्षेत्रीय भाषाओं में कुशल शिक्षकों की नियुक्ति की व्यवस्था किस प्रकार की जाए।

6. राजनीतिक स्तर पर वांछनीय प्रयासों का अभाव – भारत में प्राथमिक विद्यालयों की अधिकता है। इसलिए इस स्तर पर आवश्यक प्रगति के लिए राष्ट्रीय सरकार द्वारा उचित शिक्षा नीति का निर्माण किया जाए तथा निर्धारित नीतियों को यथासम्भव क्रियान्वित किया जाए, क्योंकि इन प्राथमिक विद्यालयों की समुचित व्यवस्था सरकारी प्रयासों के अभाव में असम्भव है। प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में विभिन्न उल्लेख नीतियों का निर्धारण करने के उपरान्त भी क्रियान्वयन की दृष्टि से जो प्रयास भारतीय सरकार द्वारा किए गए हैं, वे प्रायः नगण्य हैं। प्राथमिक शिक्षा के विकास से सम्बन्धित समय-समय पर आँकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास की गति निश्चित रूप से मन्द रही है। शिक्षा के प्रति भारतीय राजनीतिज्ञों का उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण और राजनीति में संलग्न रहना भी इस दिशा में असफलता का एक प्रमुख कारण है।

7. अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या – प्राथमिक शिक्षा के विकास में अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या एक गम्भीर समस्या है। अपव्यय से तात्पर्य राज्य तथा अभिभावकों द्वारा शिक्षा पर किए जाने वाले धन का पूरी तरह से लाभ न उठा पाना। जब कोई छात्र किसी कारणवश अपनी शिक्षा समाप्त होने से पहले ही छोड़ देता है तो उसे अपव्यय में सम्मिलित किया जाता है। जब कोई छात्र एक ही कक्षा में कई बार फेल होता है तो इसे अवरोधन की समस्या कहते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए सभी प्रयत्न पूर्णतया असफल रहे हैं। इस समस्या का मुख्य कारण अभिभावकों की अशिक्षा तथा रूढ़िवादिता भी है। अशिक्षित और रूढ़िवादी अभिभावक अपने बालकों को शिक्षा प्राप्त कराना आवश्यक नहीं समझते हैं तथा वे बालिकाओं की शिक्षा की उपेक्षा करते हैं। अधिकांश बालक इन्हीं कारणों से प्राथमिक शिक्षा से वंचित हो जाते हैं तथा एक ही कक्षा में अनुत्तीर्ण होते रहते हैं।

8. शिक्षकों का पर्याप्त अभाव- भारत के समस्त प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षकों की व्यवस्था करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। भारत में लगभग 8 लाख गाँव हैं। इनमें इस प्रकार की व्यवस्था करना कोई आसान काम नहीं है। प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की वांछित संख्या का अभाव प्राथमिक स्तर के बालकों के विकास की उपेक्षा का मुख्य कारण है। जहाँ पर्याप्त संख्या में शिक्षक कार्यरत हैं, वहाँ उन शिक्षकों में पर्याप्त प्रशिक्षण के अभाव में वांछित योग्यता का अभाव है। योग्य तथा प्रशिक्षित शिक्षक व अध्यापिकायें या तो प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्ति के लिए अपना आवेदन-पत्र ही नहीं भेजते हैं अथवा प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्ति के कुछ समय उपरान्त अन्यत्र नियुक्त हो जाने पर अपना त्याग-पत्र देकर चले जाते हैं। प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों के लिए अल्प वेतनमान और अध्यापिकाओं के लिए आवासीय व्यवस्था का अभाव भी इस स्तर पर अध्यापक व अध्यापिकाओं को आकर्षित नहीं कर पाता।

9. सामाजिक चेतना का अभाव- भारत में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक सामाजिक चेतना का पर्याप्त अभाव पाया गया है। आज भी हमारे समाज में बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा तथा अस्पृश्यता इत्यादि अनेक कुरीतियाँ प्रचलित हैं। इन प्रचलित कुरीतियों के कारण समाज में असंख्य व्यक्ति अन्धविश्वास तथा संकीर्ण भावनाओं में आबद्ध हैं। वे बालकों की शिक्षा को अधिक महत्व नहीं देते हैं। विशेष रूप से काम की दृष्टि से बालिकाओं की शिक्षा का कोई महत्व नहीं है। भारत में अनेक राज्यों में आज भी बालिकाओं का कम आयु में विवाह कर दिया जाता है और पर्दा प्रथा के कारण अभिभावक बालिकाओं को विद्यालय भेजने में संकोच अनुभव करते हैं।

समस्याओं का समाधान

बालकों के विकास के लिए प्राथमिक विद्यालयों की वर्तमान दशाओं में परिवर्तन करना अत्यन्त आवश्यक है। केन्द्रीय तथा राज्य सरकार और शिक्षा की व्यवस्था करने वाली अन्य स्थानीय संस्थाओं को चाहिए कि वे छात्रों के लिए प्रत्येक विद्यालय में आवश्यक कक्षा भवनों तथा खेल के मैदान की व्यवस्था करें। विद्यालय भवनों का निर्माण इस प्रकार कराना चाहिए कि बालकों को पर्याप्त प्रकाश, वायु व धूप मिल सके। बालकों के बैठने के लिए फर्नीचर आदि की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। बालकों के शारीरिक विकास के लिए रोगों की रोकथाम हेतु दवाइयों का वितरण एवं पर्याप्त खेल सामग्री पर व्यय किया जाना चाहिए।

प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम छात्रों की रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप तथा जीवन से सम्बन्धित बनाना चाहिए। इन विद्यालयों में बालकों को ‘करके सीखने के सिद्धान्त से पाठ्यक्रम में निहित ज्ञान अपेक्षाकृत अधिक सरलता पूर्वक कराया जा सकता है। इस स्तर के पाठ्यक्रम में पाठ्य सहगामी क्रियाओं तथा हस्तकला आदि का समुचित प्रावधान किया जाए तथा हस्तकला में निपुण शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।

केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकारों को प्राथमिक शिक्षा के विकास में स्वयं रुचि होनी चाहिए और इसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा के नियन्त्रण के लिए ऐसी केन्द्रीय समिति की स्थापना की जाए जो प्राथमिक शिक्षा के विकास और प्रसार पर समुचित ध्यान दे सके। प्राथमिक विद्यालयों में योग्य तथा प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति होनी चाहिए। पर्याप्त शिक्षा निरीक्षकों तथा पर्यवेक्षकों के द्वारा इन विद्यालयों की उन्नति तथा अवनति का समय-समय पर वस्तुनिष्ठ निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण होना चाहिए।

भौगोलिक और आर्थिक समस्या को दूर करने के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयास बहुत महत्व रखते हैं। केन्द्रीय तथा राज्य सरकार को प्राथमिक शिक्षा के विकास का उत्तरदायित्व स्वीकार करना चाहिए अथवा विभिन संस्थाओं को पर्याप्त अनुदान उपलब्ध कराना चाहिए। अभिभावकों को आर्थिक दशा में यथा सम्भव परिवर्तन के लिए भी सरकार को प्रयास करना चाहिए।

भाषा की समस्या को दूर करने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि पूर्व स्थापित आयोगों द्वारा प्रस्तुत सुझावों को शीघ्र क्रियान्वित किया जाए अथवा किसी नवीन आयोग की स्थापना करके इस सन्दर्भ में निर्णय लिया जाना चाहिए। क्षेत्रीय भाषा में कुशल अध्यापकों की नियुक्ति की जानी चाहिए।

भारतीय राजनीति में शिक्षित, योग्य तथा निष्ठावान राजनीतिज्ञों का आविर्भाव होना चाहिए और वे शिक्षा के महत्व से भली-भाँति परिचित हों तथा शिक्षा के महत्व को आत्मसात् करें। उन्हें स्वार्थ प्रेरित संकीर्ण प्रवृत्तियों को त्याग अपनी क्षमता तथा समय का समुचित उपयोग करें।

अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या को दूर करने के लिए प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम का स्थानीय आवश्यकताओं तथा बालकों की रुचियों के अनुरूप निर्माण किया जाना चाहिए। शिक्षण विधि तथा परीक्षा प्रणाली में अपेक्षित सुधार किया जाना चाहिए। विद्यालय तथा परिवार के सम्बन्धों का वांछित स्तर पर विकास किया जाए। प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क तथा अनिवार्य बनाया जाए। विद्यालय के सामाजिक तथा भौगोलिक वातावरण में अपेक्षित परिवर्तन किया जाना चाहिए।

प्राथमिक स्तर की शिक्षा में पर्याप्त तथा योग्य शिक्षकों के अभाव में शिक्षा के विकास में किए गए सभी प्रयास असफल हुए हैं। इसलिए प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में वृद्धि की जाए। ग्रामीण तथा दूरस्थ क्षेत्रों में कार्यरत् अध्यापिकाओं के लिए आवासीय व्यवस्था की जाए। प्राथमिक शिक्षा के विकास में संलग्न अध्यापिकाओं को उच्च स्तर पर प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की जाए।

शिक्षा के माध्यम से विद्यालय में अध्ययनशील छात्र-छात्राओं के मस्तिष्क में प्रारम्भ से ही ऐसी मनोवृत्ति विकसित की जानी चाहिए, जिससे वे अपने भावी जीवन में इस प्रकार के अन्धकारों से दूर रहें तथा अभिभावक के रूप में अपने बच्चों को शिक्षा के वांछित अवसर उपलब्ध करा सकें। सरकार तथा समाज द्वारा समाज में प्रचलित कुरीतियों का उन्मूलन करने का प्रयास किया जाए। समाज के अध्यापकों, बुद्धिजीवी वर्ग तथा साहित्यकारों को भी इस दिशा में सामाजिक जागृति के लिए यथासम्भव प्रयास करना चाहिए।

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Anjali Yadav

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