प्रारम्भिक (पूर्व) बाल्यावस्था में सामाजिक विकास का वर्णन कीजिए।
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प्रारम्भिक बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development During Early Childhood)
प्रारम्भिक बाल्यावस्था 2 वर्ष से लेकर 5 वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में हमारे देश में बालकों का जीवन घर में ही व्यतीत होता है। जबकि पाश्चात्य देशों में इस अवस्था में बालक ‘शिशुशालाओं’ में जाते है। इसलिए हमारे देश में इस अवस्था को ‘पूर्व- विद्यालयी अवस्था’ तथा पाश्चात्य देशों में इस अवस्था को ‘शिशुशालाओं की अवस्था’ कहते हैं। इस अवस्था के पूर्व अर्थात 2 वर्ष तक बालक ‘आत्म-केन्द्रित’ होता है, किन्तु इस अवस्था अर्थात 2 वर्ष के बाद बालक अपने व्यवहार के द्वारा दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है। अतः इस अवस्था में बालक का सामाजिक विकास तीव्रगति से होता है। इसलिए समाज के प्रति बालक का दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है। मर्फी द्वारा किये हुये अध्ययन से भी यही बात ज्ञात हुई है कि इस अवस्था में बालक सामूहिक जीवन का बहुत इच्छुक होता है। अतः वह अपने मित्रों के प्रति ‘सहानुभूति’ भी पर्याप्त मात्रा में रखता है। जरसील्ड के अनुसार यदि इस अवस्था में बालकों को खेलने के पर्याप्त अवसर प्राप्त न होंगे तो उनमें ‘आक्रामक प्रवृत्ति’ का पर्याप्त विकास हो सकता है। इस आयु में यद्यपि बालकों में समूह निर्माण की क्षमता का पूर्व विकास नहीं हो पाता है, किन्तु वे ऐसे खेलों में ही रुचि लेते हैं जो अन्य बालकों के साथ खेले जायें। बालकों के खेल समूहों में वर्ग, जाति, लिंग रंग आदि किसी भी आधार पर भेद-भाव नहीं रहता है। इस अवस्था में प्रौढ़ों तथा अपने समान आयु वाले बालकों के प्रति की जाने वाली सामाजिक प्रतिक्रियाओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।
(i) प्रौढ़ों के प्रति सामाजिक प्रतिक्रियायें –
मर्फी, न्यूकॉम्ब, ब्रिजेज, गेसेल आदि मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययनों से पता चला है कि इस अवस्था में बालक प्रौढ़ों के सम्पर्क में न रहकर अपने समकालीन बालकों के साथ रहने के अधिक इच्छुक होते है। तीन वर्ष की आयु से बालक स्वावलम्बी होने लगता है। अतः वह अपनी क्रियाओं तथा खेलों में दूसरों का हस्तक्षेप नहीं चाहता है। तीन वर्ष की अवस्था में उसमें ‘निषेधात्मक प्रवृत्ति’ चरम सीमा में रहती है। इस अवस्थ में वह इतना ‘दुराग्राही’ हो जाता है कि वह माता-पिता तथा परिवार के अन्य लोगों के लिए समस्या बन जाता है, चार वर्ष की अवस्था में बालक में ‘सामाजिक संविदा’ का आविर्भाव हो जाता है। इसलिए वह सामाजिक ‘अनुमोदन’, ‘प्रशंसा’ तथा ‘मान्यता’ के लिए प्रौढ़ों की आज्ञा का पालन करने लगता है। इसके परिणामस्वरूप 5 वर्ष की आयु तक उसमें आज्ञाकारिता की प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। इस प्रकार प्रारम्भिक बाल्यावस्था में प्रौढ़ों पर निर्भर होने के कारण बालक निष्क्रिय रहता है, द्वितीय क्रम में दो तीन वर्ष की आयु में वह स्वतन्त्रता का इच्छुक होता है और तृतीय क्रम में उसमें आज्ञाकारिता तथा सहयोग की भावना पाई जाती है।
(ii) समकालीन बालकों के प्रति सामाजिक प्रतिक्रियायें-
तीन वर्ष की अवस्था में बालकों को अन्य बालकों के साथ खेलने में इतना आनन्द आता है कि वे घर में खेलने का साथी न मिलने पर साथी खोजने के लिए अपने घर के बाहर निकलकर पड़ोसी के घरों में चले जाते हैं। यदि उन्हें साथी खोजने पर नहीं मिलते हैं तो वे घर आकर रोने लगते हैं। इस आयु में बालक के खेलने के लिए एक-दो बालक पर्याप्त होते हैं। तीन चार वर्ष की आयु के बालकों की आत्म-केन्द्रितता में कमी आ जाती है जिसमें उसमें ‘मित्रता’ एवं ‘सामूहिक भावना’ अति प्रबल रूप में रहती है। अतः इस अवस्था में बालक अनेक बालकों के साथ टोली बनाकर खेलने लगता है। इस आयु में बालक धीरे-धीरे सामाजिक कार्यों में हाथ बँटाने लगते हैं। इतना ही नहीं वे दूसरों के सुख में सुखी तथा दूसरों के दुःख में दुःखी होने लगते हैं। चार से पाँच वर्ष की आयु के बालकों में जो रोने, चिल्लाने, हँसने आदि की क्रियायें होती है उससे उनके सामाजिक विकास में अत्यधिक सहायता मिलीत है। इस आयु में उनमें ‘प्रतियोगिता’ की भावना का विकास हो जाता है जिससे प्रेरित होकर वे अनेक सामाजिक कार्यों को करने में सक्रिय भाग लेते हैं।
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालकों में भाषा-विकास पर्याप्त मात्रा में हो जाता है। अतः उनका सामाजिक विकास और भी अधिक तीव्र गति से होता है। इस आयु में सामाजिक प्रतिक्रियाओं में व्यक्तिगत तथा लिंगगत भेद भी पाये जाते हैं।
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