राजनीति विज्ञान / Political Science

बाजार समाजवाद क्या है? What is Market Socialism?

बाजार समाजवाद क्या है? What is Market Socialism?
बाजार समाजवाद क्या है? What is Market Socialism?

बाजार समाजवाद क्या है? इसके विकास पर प्रकाश डालिए। अथवा अर्थव्यवस्था (बाजार समाजवाद) के विकास में योगदान दिया है? प्रकाश डालिए।

बाजार समाजवाद एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है- 1950 के दशक में पोलैण्ड के दार्शनिक प्रोफेसर ऑस्कर लाज द्वारा राज अर्थव्यवस्थाओं को “बाजार समाजवादी” (Market Socialism) की तरह होने की सलाह दी गयी, जिसकी पूँजीवादी एवं समाजवादी अर्थवव्यवस्थाओं द्वारा अनदेखी की गयी। लॉज द्वारा वास्तव में समाजवादी आर्थिक प्रणाली में पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली के कुछ तत्त्वों के समावेश की सलाह दी गयी थी, जिसमें सबसे प्रमुख था बाजार बाजार व्यवस्था को प्रोत्साहन देने से निजी सम्पत्ति, मूल्य पद्धति, वैयक्तिक स्वतन्त्रता तथा राज्य की एकाधिकारी आर्थिक शक्ति में कमी इत्यादि तत्वों का समावेश होता है। अर्थविदों का मानना है कि राज्य अर्थव्यवस्थाओं द्वारा इस सलाह को नहीं मानने से इनका आर्थिक पतन हुआ और अन्तत, साम्यवादी चीन द्वारा सन् 1985 में “बाजार समाजवादी” को अपनी “ओपन डोर पॉलिसी” नीति के अन्तर्गत अपनाया गया। इसी समय ऐसी ही पूर्व सोवियत संघ द्वारा ग्लासनोस्ट और प्रेस्ट्रॉयका नामक अर्थनीतियों का प्रयोग किया गया (रूसी शब्द ग्लासनॉस्ट का अर्थ खुलापन और प्रोस्ट्रायका का अर्थ पुनर्संरचना है) वास्तव में चीन द्वारा आने वाले समय के बाजार समाजवाद के लिए सन् 1970 से ही तैयार प्रारम्भ कर दी गयी थी।

इस प्रकार 1980 के दशक के अन्त तक विश्व की कोई भी अर्थव्यवस्था सैद्धान्तिक या व्यावहारिक रूप से न तो पूँजीवादी रह गयी थी, न ही समाजवादी या साम्यवादी। सभी का स्वरूप मिश्रित (बाजार समाजवादी) हो चुका था। हाँ, उनके मिश्रण में अन्तर अवश्य था। कुछ पूँजीवाद की तरह ज्यादा झुकी थी तो राज अर्थव्यवस्था की तरह। इसी दौर की एक घटना इस मामले में अत्यधिक महत्व रखती है। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त जिन पूर्वी एशियाई देशों (मूलतः दक्षिण कोरिया, हांग कांग ताइवान एवं मलेशिया) द्वारा बाजार समाजवाद के रूप में मिश्रित आर्थिक प्रणाली अपनायी गयी थी, उनके द्वारा 1960 के दशक के मध्य में मिश्रित अर्थव्यवस्था को पूँजीवाद की तरफ ज्यादा झुकाया गया। कुछ समय में ही इन अर्थव्यवस्थाओं द्वारा उच्च वृद्धि और विकास की दर प्राप्त कर गयी। इनकी आर्थिक सफलता विश्व के लिए बाजार समाजवाद एक सफल प्रारूप उपलब्ध करा रहा था।

वर्ष 1993 में विश्व बैंक की ‘द ईसट एशियन मिरैकल नामक अध्ययन प्रकाशित किया गया, जिसमें पहली बार अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका पर ऐसी आधिकारिक टिप्पणी की गयी जो अब तक कि सोच मान्यताओं से सर्वथा निम्न थी। इस रिपोर्ट में जहाँ एक ओर अर्थव्यवस्था में सरकारी अहस्तक्षेप की समीक्षा की गयी वहीं मिश्रित अर्थव्यवसथा को बेहतर विकल्प बताया गया।

आधुनिकीकरण एवं सुधार कार्यक्रमों का बाजार सजावादी (मिश्रित अर्थव्यवस्था) के विकास में योगदान-

18वीं शताब्दी में औद्योगिकरण की दिशा में बढ़े देशों के समक्ष अनेक नये अनुभवों का विकास हुआ, और वह बाजार के सर्वोत्तम गुण और औद्योगीकरण में राज्य के हस्तक्षेप के बाधक होने का विश्वास कल्पनिक नहीं है बीसवीं सदी के उत्तरार्थ के अनुभव से स्पष्ट संकेत मिलता है कि देर से औद्योगीकरण की दिशा में बढ़े देशों में विकास की आधारशिला राज्य के समर्थन और मार्गदर्शन से ही रखी गई। बाजार के जुदाई प्रभाव को लेकर पूर्वी एशियाई देशों की सफलता का उदाहरण दिया जाता है। वहाँ बाजार की सफलता में राज्य का पूरा-पूरा हाथ रहा है। और बेहतरीन उदाहरणों से भी यही निष्कर्ष निकलता है-जैसे जापान में 1868 में मेईजी पुनर्स्थापना के बाद जापान में औद्योगिक पूँजीवाद का विकास या 1975 में शुरु किए गए। आधुनिकीकरण एवं सुधार कार्यक्रम के बाद चीन में बाजार समाजवाद का उदय सिंगापुर, लाइवान और कोरिया में भी राज्य की आर्थिक भूमिका लगभग महत्वपूर्ण रही है।

औद्योगिकरण के शुरुआती चरण में राज्य के हस्तक्षेप से ही औद्योगिक पूँजीवाद के विकास का वातावरण बनता है। सरकारी निवेश के जरिए ऊर्जा, परिवहन और संचार जैसी भौतिक आधारभूत संरचना खड़ी होती है। औद्योगीकरण के बाद राज्य के हस्तक्षेप की मात्रा ही नहीं गुण भी बदलाव होना चाहिए। समजावाद में राज्य के हस्तक्षेप को सुविधा के लिए तीन श्रेणियों-

1. कार्यशील हस्तक्षेप- कार्यशील हस्तक्षेप के अन्तर्गत राज्य जैसे ही बाजार की विफलता का गलत संकेत कीमतों के जरिये मिलता है, यह सुधार मूल्य-प्रणाली की विफलता की प्रवृत्ति पर निर्भर करेगा। वैसे सिद्धान्त की दृष्टि से देखें तो राज्य के हस्तक्षेप तभी होना चाहिए जब मूल्य-प्रणाली पूरी तरह विफल हो जाए।

संस्थानिक हस्तक्षेप- संस्थानिक हस्तक्षेप के जरिये राज्य बाजार के अभिशासित करता है। इसमें राज्य बाजार के क्रियाकलाप पर वे निगरानी रख सके। बाजार अर्थव्यवस्था में भी ऐसे नियमों की जरूरत होती है जिससे सबको समान महत्व मिले और हैसियत में फर्क होने के बावजूद नियम का लाभ उठाने में आसानी हो। भारत में भी राज्य हस्तक्षेप की अवधारणा नकारात्मक रही है इसीलिए हमने कभी सोचा ही नहीं कि राज्य और बाजार के बीच सकारात्मक सहयोग और सृजनात्मक अन्तर्क्रिया हो सकती है।

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Anjali Yadav

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