बालक के संवेगात्मक विकास का वर्णन कीजिए।
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बालक का संवेगात्मक विकास
बालक के संवेगात्मक विकास को निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
1. बालकों में कुछ संवेग जन्म-जात होते हैं-
बालकों के संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण किन्तु विवादास्पद प्रश्न है कि क्या बालकों में कुछ संवेग जन्मजात होते हैं। इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ मनोवैज्ञानिकों जैसे प्रसिद्ध व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक श्री वाटसन का कथन है कि बालकों में कुछ संवेग जन्म से ही पाये जाते है। वाटसन के अनुसार ‘भय’, ‘क्रोध’ तथा ‘प्रेम’ ये तीन संवेग बालकों में जन्मजात होते हैं। इन जन्मजात संवेगों को जानने के लिए वाटसन ने प्रयोगशाला में कुछ परीक्षण किये। उन्होंने अपने परीक्षणों में बालकों के सामने उन्हीं उत्तेजनाओं को प्रस्तुत किया जो प्रौढ़ व्यक्तियों में प्रेम, भय तथा क्रोध संवेग उत्पन्न करती है। उन्होंने प्रेम संवेग जाग्रत करने के लिए बालकों को गुदगुदाया, सहलाया और थपथपाया। इससे बालक मुस्कराने लगे और गोद में जाने के लिए हाथ फैलाने लगे। उनकी क्रियाओं पर अवरोध डालने से वे चिल्लाने तथा हाथ-पैर पटकने लगे। इस प्रकार उन्होंने भय संवेग की अभिव्यक्ति की। इन परीक्षणों के आधार पर वाटसन इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि प्रेम, क्रोध तथा भय ये तीन संवेग बालकों में जन्म से ही मूल संवेग के रूप में पाये जाते है।
2. वाटसन के जन्मजातीय संवेगों के सिद्धान्त का खण्डन-
वाटसन के इस विचार का कि प्रेम क्रोध तथा भय ये तीन संवेग बालकों में जन्म-जात होते हैं, ब्रिजिज, शर्मन, टेलर एवं प्रॉट आदि मनोवैज्ञानिकों ने खण्डन किया। इन मनो-वैज्ञानिकों ने अपने परीक्षणों के आधार पर यह बताया कि जन्म से बालकों में कोई भी संवेग निहित नहीं होता है। उनके अनुसार प्रारम्भ में बालक में केवल एक ‘सामान्य उत्तेजना’ होती है और बाद में ‘विभित्रीकरण’ आता है। इस तथ्य को हम इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं कि नवजात शिशु की ‘अभेदित उत्तेजित अवस्था’ ही बाद में ‘परिपक्वता’ तथा ‘प्रशिक्षण’ के प्रभाव के परिणामस्वरूप विभिन्न संवेगों के रूप में प्रकट होती है। इस सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों ने जो परीक्षण प्रस्तुत किये हैं उनमें कुछ प्रमुख परीक्षण निम्नलिखित हैं।
(i) शर्मन तथा शर्मन का परीक्षण- शर्मन तथा शर्मन ने उन उत्तेजनाओं द्वारा नवजात शिशुओं को उत्तेजित किया जिनके द्वारा वाटसन ने अपने प्रयोग में नवजात शिशुओं को उत्तेजित किया था, जैसे थपथपाना, कोमल अंगों को गुदगुदाना क्रियाशीलता पर अवरोध करना, जोर की आवाज आदि । किन्तु उन्होंने देखा कि समस्त नवजात शिशु प्रेम क्रोध, भय आदि संवेगों की अभिव्यक्ति नहीं करते बल्कि उनमें एक सामान्य उद्देश्यहीन क्रिया होती है। इस प्रकार इस प्रयोग द्वारा वाटसन के मत का खण्डन होता है।
(ii) हरविन्द का परीक्षण- इरविन्द ने सन 1932 में 24 शिशुओं पर एक प्रयोग किया। अपने प्रयोग में वह उन्हें दो फुट की ऊँचाई से गिराकर पकड़ लेता है। उसने इस प्रकार की 85 क्रियायें की जिनमें से केवल दो बार ही बालकों को भय की अनुभूति हुई। इस प्रकार इस परीक्षण के द्वारा भी वाटसन के मत की पुष्टि नहीं होती है।
(iii) मैलजैक की परीक्षण – मैलजैक ने बालकों के स्थान पर पशुओं के बच्चों के संवेगात्मक व्यवहार का अध्ययन किया। उन्होंने कुत्तों के बच्चों को 8 महीने तक पिजड़ी में बन्द रखकर पाला। इसके उपरान्त सजीव तथा निर्जीव वस्तुओं के प्रति संवेगात्मक व्यवहार का अध्ययन किया। ये वस्तुयें गुब्बारा मोटर, वनमानुष का सिर आदि थी। उन्होंने देखा कि प्रारम्भ में उनकी प्रतिक्रियायें अभेदित नहीं थीं, किन्तु 9 महीने के बाद जब उन पर पुनः परीक्षण किया तो पता चला कि वे इन वस्तुओं के प्रति क्रोध, भय आदि संवेगात्मक व्यवहार करने लगे।
इस प्रकार उपर्युक्त परीक्षणों से यह सिद्ध हो गया कि बालकों में जन्म से विशिष्ट संवेग नहीं होते बल्कि उनमें एक ‘सामान्य उत्तेजना’ की मात्रा पाई जाती है।
3. बालकों के संवेगात्मक विकास में एक क्रम होता –
बालक जन्म से कोई संवेग की अनुभूति नहीं करते हैं। उपर्युक्त तथा अन्य परीक्षणों के आधार पर यह पता चलता है कि बालक के संवेगात्मक विकास का क्रम होता है। बालकों के संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में ब्रिजेज तथा बनहम द्वारा किये हुए परीक्षण बहुत ही महत्वपूर्ण है। अतः इन दोनों मनोवैज्ञानिकों ने बालक के संवेगात्मक विकास को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया है।
(i) ब्रिजेज के अनुसार- अपने परीक्षणों के आधार पर ब्रिजेज ने बताया कि ‘नवजात शिशु में’ ‘सामान्य उत्तेजना’ पायी जाती है। 3 महीने की उम्र में शिशु में दो प्रकार की संवेगात्मक प्रतिक्रियायें उत्पन्न हो जाती है— (1) ‘कष्ट’, (2) ‘आनन्द’। कष्ट की अनुभूति के समय शिशु रोता-चिल्लाता है, तथा उसकी माँसपेशियों में तनाव आता है। आनन्द की अनुभूति के समय मुस्कराता है और उसकी माँसपेशियों में शिथिलता आ जाती है। 6 महीने की आयु में उसमें ‘भय’ ‘घृणा’ तथा ‘क्रोध’ के संवेग उत्पन्न होते हैं। 12 महीने की आयु ‘उल्लास’ तथा ‘प्रौढ़ों के प्रति स्नेह’ 18 महीने की आयु में ‘बालकों के प्रति प्रेम’ तथा ‘ईर्ष्या’ के संवेग तथा 24 महीने की आयु में खुशी के संवेग उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार ब्रिजेज के अनुसार दो वर्ष की आयु में बालकों में अनेक महत्वपूर्ण संवेग उत्पन्न हो जाते हैं। ब्रिजेज ने अपने परीक्षणों द्वारा यह भी ज्ञात किया कि 5 वर्ष की उम्र तक बालकों में कष्ट तथा आनन्द के इन यौगिक संवेगों के द्वारा अन्य संवेगात्मक अनुभूतियों जैसे आशा, स्पर्धा निराशा आदि का विकास हो जाता है।
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