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बाल्य जीवन में विभिन्न क्रियात्मक योग्यताओं के विकास

बाल्य जीवन में विभिन्न क्रियात्मक योग्यताओं के विकास
बाल्य जीवन में विभिन्न क्रियात्मक योग्यताओं के विकास

बाल्य जीवन में विभिन्न क्रियात्मक योग्यताओं के विकास का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।

क्रियात्मक विकास के क्षेत्र में जो अभी तक प्रयोगात्मक अध्ययन किये गये हैं, उनके आधार पर यह माना जाता है कि किस आयु-स्तर पर किस प्रकार के क्रियात्मक विकास प्रतिमान बालक में पाये जाते हैं। क्रियात्मक विकास, विकासात्मक निर्देशन के अनुसार चलता है। इस नियम के अनुसार क्रियात्मक विकास क्रम क्रमशः सिर-धड़-हाथ-पैर की दिशा में होता है। दूसरे शब्दों में क्रियात्मक योग्यतायें सामान्य से विशेष (Specific) का भाव प्रदर्शित करती है। यद्यपि अधिकांश परीक्षण इसी नियम का प्रतिपादन करते हैं, फिर भी सभी मनोवैज्ञानिक इसका समर्थन नहीं करते।

आजकल जो सामान्य नियम अधिक प्रचलित है, उसके अनुसार क्रियात्मक योग्यताओं का विकास ऊपर से नीचे की और होता है अर्थात् वह सिर से पाँव की ओर चलता है।

(1) शीर्ष मण्डल में क्रियात्मक योग्यताओं का विकास

(i) किसी वस्तु पर आँख टिकना – जब बालक जन्म लेता है, तब वह अपनी आँखों को ठीक प्रकार से संयोजित नहीं कर पाता। फलस्वरूप उसकी आँखें किसी एक वस्तु पर नहीं टिक पात। गेसल तथा हारबरसन के अनुसार दूसरे मास के अन्त तक बालक अपने नेत्रों को किसी स्थिर वस्तु पर टिका सकता है और तीसरे मास के अन्त तक वह गतिशील वस्तु पर भी अपने नेत्र टिकाने लगता है। प्रारम्भ में वह केवल चार-पाँच सेकेण्ड ही अपनी नजर किसी वस्तु पर जमा पाता है।

(ii) आँख झपकने की क्रिया- आँख झपकने की क्रिया बालक में जन्म से ही ‘उपस्थित रहती है। प्रारम्भ में उसकी आँख के पास जब हाथ ले जाते हैं, तो वह उसे झपकाता है। परन्तु चौथे मास के अन्त तक बालक स्वयं ही आँख झपकाने लगता है।

(iii) मुस्कराना – पहले-पहल जब किसी अंग विशेष को छुआ जाता है तब वह मुस्कराता है। लेकिन तीसरे मास के अन्त तक वह किसी व्यक्ति को मुस्कराते देखकर स्वयं भी गुस्कराने लगता है। बहुत से मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि यह बालक के सामाजिक विकास की दिशो में पहला कदम है।

(iv) सिर को घुमाना – ब्रायन का मत है कि अधिकांश नवजात शिशु क्षण मात्र के लिये अपना सिर उठा सकते हैं। जब बालक एक मास का होता है, तो वह छाती के बल लेटे-लेटे कुछ “सैकण्ड के लिए सिर उठा सकता है। तीन महीने का होने पर जब बालक के कंधे से लगाकर उठाया जाता है तो वह अपने को इधर-उधर घुमाकर वातावरण का अवलोकन करने लगता है। चार महीने का होने पर बालक सहारा देने से गोद में बैठ जाता है और अपने सिर की सीधा रख सकता है। 6 महीने का होने पर बालक बिना किसी सहारे के बैठकर अपने सिर को इधर-उधर घुमा सकता है।

(2) शरीर स्थिति तथा क्रियात्मकता (Post and Locomotion)

जब बालक जन्म लेता है तो उसकी विभिन्न क्रियाओं में संयोजन या समन्यन (Co-ordination) नेही होता है लेकिन जैसे-जैसे उसकी आयु में वृद्धि होती जाती है, उसकी क्रियाओं में समन्वय तथा विभेदीकरण होने लगता है। नवजात शिशु प्रथम माह में अपनी ठुड्डी तथा दूसरे माह में अपने धड़ को उठाने लगता है। चौथे माह में सहारा देने से बैठने लगता है। सात माह में पीठ मोड़कर अकेले ही बैठ जाता है। आठवें महीने में सहारा देने से खड़ा हो जाता है। 12-13 माह पर सीढ़ियों पर चढ़ने लगता है और सवा साल की आयु में स्वयं चलने लगता है। ढाई साल का बालक कूदने लगता है।

(i) भुजाओं और हाथों में क्रियात्मक विकास (Motor Development in the Arms & Hands) – बालक के हाथ पैर की क्रियात्मक योग्यताओं का विकास अपेक्षाकृत देर से होता । हाथ-पैर की क्रियात्मक योग्यताओं के अन्तर्गत पकड़ने की क्रिया, “बायें या दायें हाथ से कार्य करने की प्रवृत्ति और लिखने की गतियाँ आदि का समावेश होता है।”

पकड़ या धारण- यद्यपि हाथ और अंगुलियों में कौशलों का विकास बचपनावस्था में न होकर बाल्यावस्था में अधिक होता है परन्तु वस्तुओं को पकड़ने और छाँटने आदि की क्रियाओं का विकास बचपनावस्था में ही हो जाता है। जन्म के समय पकड़ या धारण की क्रिया सहज क्रिया कहलाती है क्योंकि इस अवस्था में बालक किसी वस्तु को अपनी इच्छा के अनुसार नहीं पकड़ता बल्कि उसके हाथ में जो चीज पकड़ा दी जाती है, उसे पकड़े रहता है। किन्तु यहाँ पर हम जिस पकड़ या धारण क्रिया पर विचार कर रहे हैं, वह जन्मजात सहज क्रिया नहीं बल्कि बाद में विकसित होने वाली ऐच्छिक क्रिया है। बालक जब 5 महीने का होता है तो अंगूठे को थोड़ा बहुत हिलाने लगता है। 8 महीने का होने तक वह वस्तुओं का पकड़ना सीख जाता है। किन्तु प्रारम्भ में उसकी पकड़ने की क्रिया में आँख तथा हाथ का पूर्ण समन्वय नहीं होता है। पकड़ने के पूर्व वह वस्तु को देखकर उसके पास पहुँचने का प्रयास करता है। 4 महीने का हो जाने पर बालक अपना मुँह वस्तु तक ले जाना जान लेता है। 6 महीने में वह वस्तु को पकड़ने की कोशिश करने लगता है। एक वर्ष की आयु में उसमें पूरी तरह से पकड़ने की शक्ति का विकास हो जाता है।

हालबरसन तथा कास्टनर ने बालकों की परिग्रहण शक्ति पर कई प्रयोग किये हैं। इन्होंने अपने प्रयोगों में देखा कि शिशुओं के सम्मुख घन (Cubes) रखे तो उनकी दृष्टि वहाँ न जम पाई। 16 सप्ताह की आयु में वे घनों को पाँच सैकण्ड तक देख सके, परन्तु उन्होंने छुआ नहीं। 24 वे सप्ताह में वे केवल आधे ही उनको छू सके। 28 से 40 सप्ताह की आयु में उनके हाथों और नेत्रों में संयोजन स्थापित हो चुका था कि वे किसी वस्तु तक सरलता से पहुँच जाते थे।

20 सप्ताह का बालक अपनी मुठ्ठी में धन की न पकड़कर एक हाथ से अपने शरीर में या दूसरे हाथ में दबाता है। 24 सप्ताह का बालक घन को अपनी हथेली पर लेकर उँगलियों से पकड़ने का प्रयास करता है।

सर्वप्रथम बालक की पूरी भुजा संचालित होती है। इसके उपरान्त कुहनी, उँगलियों और कलाई में गति संचालन की क्रिया होती है। क्रो तथा क्रो (Crow and Crow) के अनुसार, बालक में धारण अथवा परिग्रहण शक्ति का पूरा-पूरा विकास चार-पाँच वर्ष की आयु में होता है।

(ii) बायें या दायें हाथ से कार्य करने की प्रवृत्ति (Handedness) – यद्यपि एक वर्ष की आयु से ही बालक दायें या बायें में से किसी हाथ को प्रमुखता देने लगता है कि किन्तु यह बात निश्चित रूप से 3-4 वर्ष बाद ही स्पष्ट होती है कि बालक किस हाथ से कार्य करेगा? अधिकांश बालक दायें हाथ का ही प्रयोग करते हैं।

(III ) लिखने की गतियाँ ( Writing Movements ) – प्रायः 2 वर्ष की आयु में बालक दूसरे बालकों को लिखते हुए देखकर स्वयं लिखने की गतियाँ करने लगता है।

धड़ की क्रियात्मक योग्यताओं का विकास (Development of Motor Abilities of Trunk ) 

बचपनावस्था में धड़ के क्षेत्र में मुख्यतः दो क्रियात्मक विकास होते हैं-

  • (i) उलटना या लुढ़कना (Turning of rolling) या शरीर को घुमाने की क्रिया
  • (ii) बैठना (Sitting )

(i) शरीर को घुमाने की क्रिया – नवजात शिशु में अपने शरीर को इधर-उधर घुमाने की क्षमता नहीं होती है। दूसरे महीने में उसमें यह क्षमता धीरे-धीरे विकसित होने लगती है। 5-6 महीने का होने पर बालक अपने पूरे शरीर को यहाँ वहाँ मोड़ने लगता है किन्तु यह क्रिया एकदम पूरी तरह से नहीं करता है। बालक सर्वप्रथम अपने सिर को, उसके बाद कन्धों को, फिर नितम्ब को और अन्त में टाँगों को घुमाना सीखता है।

(iii) बैठने की क्रिया – जब से शिशु अपनी पीठ एवं कमर की माँसपेशियों को नियन्त्रित करने लगता है, तभी से बैठना प्रारम्भ करता है। 5 महीने का होने पर वह सहारा देने से सीधा बैठता है, किन्तु बिना सहारे के आगे झुक जाता है। गैसेल, थाम्पसन, शर्मेन आदि के अनुसार 9-10 महीने की आयु में शिशु सीधा बैठ सकता है। बालकों की अपेक्षा बालिकाएँ ऐसा शीघ्र कर लेती है। प्रारम्भ में जब बालक बैठना शुरू करता है तो उसे सभी भागों पर बल देना पड़ता है। किन्तु 2-3 का हो जाने पर वह केवल नितम्ब के आधार पर बैठने लगता है। चार- साढ़े चार वर्ष की आयु में वह प्रौढ़ व्यक्तियों के समान बैठने लगता है।

टाँगों की क्रियात्मक योग्तयाओं का विकास 

टाँगों ने क्रियात्मक विकास में पहले बालक लुढ़कना, खिसकना तथा रेंगना सीखता है और बाद में खड़ा होना तथा चलना। चलने की क्रिया बहुत बाद में सीखता है।

(i) लुढ़कना ( Turning or rolling ) – चलना सीखते समय सबसे पहले। बालक लुढ़कता है। लुढ़कने की क्रिया टाँगों और बाहुओं की गतिविधियों द्वारा सम्पन्न होती है। लगभग 4-5 महीने में बालक लुढ़कने लगता है।

(ii) खिसकना – लुढ़कने के बाद बालक खिसकना सीखता है। यह बैठे-बैठे एक टाँग को दोहरी करके अपने नीचे कर लेता है ताकि सन्तुलन बनाये रख सके और दूसरी टाँग द्वारा आगे खिसकता जाता है। खिसकते समय वह अपने बाहुओं और हाथों का भी सहारा लेता है। कई लोगों का विचार है कि खिसकने की क्रिया आगे की अपेक्षा पीछे की ओर होती है। आमतौर पर छठे मास से बालक खिसकने लगता है।

(iii) घिसटना- खिसकने के उपरान्त बालक घिसटता है। प्रायः घिसटने की क्रिया चौथे मास से प्रारम्भ होती है। सातवें से नवें माह तक यह क्रिया अपनी चरम सीमा पर होती है।

घिसटते समय बालक का पेट धरती से लगा होता है। सिर और कन्धे ऊपर उठ जाते हैं। बालक अपनी बाहुओं द्वारा अपने शरीर को आगे की ओर खींचता है और उसकी टाँगें भी साथ-साथ घिसटती जाती हैं। कभी-कभी बालक एक टॉंग द्वारा भी शरीर को आगे की ओर खींचता है। घिसटते समय बालक की गतिविधियों वैसी ही होती हैं जैसे कि तैरते समय। उसकी चाल मेंढक के समान होती है।

(iv) रेंगना या सरकना— खिसकने के बाद बालक रेंगने की क्रिया करने लगता है। एम्स के अनुसार जब बालक 9 माह का होता है तभी से वह रेंगने लगता है। इस क्रिया में बालक अपने धड़ को धरती के समानान्तर ऊपर उठा लेता है और हाथों तथा घुटनों के बल चलता है। बाद में धीरे-धीरे जब उसमें शक्ति आ जाती है तब वह घुटनों को ऊपर उठा लेता है. और चौपायों के समान चलने लगता है।

(v) खड़ा होना- इसके बाद चलना सीखने से पूर्व बालक खड़ा हो जाता है। प्रायः वह पलंग, टेबिल, कुर्सी या अन्य किसी वस्तु को पकड़कर खड़े होने की क्रिया करता है। शर्ले के अनुसार 42 सप्ताह का होने पर बालक सहारा लेकर एक मिनट तक खड़ा हो सकता है और 42 सप्ताह का होने पर वह बिना सहारे के ही खड़ा होने लगता है। अवलोकन करने पर देखा गया है कि बालकों की अपेक्षा बालिकायें शीघ्र खड़ा होना सीख लेती हैं।

(vi) चलना – जब बालक अच्छी प्रकार से खड़ा होना सीख लेता है और उसमें पर्याप्त मात्रा में आत्मविश्वास आ जाता है, तो वह बड़ी सावधानी से एक कदम आगे रखता है। धीरे-धीरे अभ्यास से वह चलने में दक्षता प्राप्त करने लगता है। शुरू-शुरू में वह किसी सहारे से, चलता है। गेसल तथा बेल के अनुसार अधिकांश बालक 1 वर्ष की आयु में सहारा लेकर चलने लगते हैं।

14 मास की आयु में दो-तिहाई बालक बिना सहारे के चल सकते हैं। डेढ़ वर्ष की आयु में लगभग सभी बालक वयस्क के समान चलने लगते हैं। परन्तु अन्य मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि बालक कब चलना सीखेगा। (कुछ बालक तो 7 या 8 मास की आयु में चलने लगते हैं जबकि कुछ बालक 18 मास की आयु में ही चलना सीखते है) बालक को चलना सीखना, इस बात पर निर्भर करता है कि उसका सम्पूर्ण विकास कितना हुआ है।

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Anjali Yadav

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