बाल मनोविज्ञान / CHILD PSYCHOLOGY

बाल विकास की अवस्थाएँ | child development stages in Hindi

बाल विकास की अवस्थाएँ | child development stages in Hindi

बाल विकास की अवस्थाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

बाल विकास की अवस्थाएँ

लॉक्टन (Lowton) ने विकास की अवस्थाओं की चर्चा करते हुए कहा है- “हमारे जीवन का विस्तार अनेक अंशों में विभक्त है और प्रत्येक अंश की समायोजन की समस्या है। आयु एवं काल का सम्बन्ध आरम्भिक कथाओं से नहीं है। यह तो समस्या को हल करने की एक प्रणाली है। जीवन भर व्यक्ति अपनी समस्याओं को हल करने की विधि तथा प्रविधि का आविष्कार करता है। इनमें कुछ विधियाँ उपयोगी होती हैं तो कुछ अनुपयोगी। ये एक अंश से दूसरे अंश पर आरोपित भी की जा सकती हैं और नहीं भी की जा सकतीं।” इस कथन से यह स्पष्ट है कि विकास की प्रक्रिया तो एक है किन्तु उसका विभाजन अनेक अवस्थाओं में है। व्यक्ति का विकास अनेक चरणों में पूरा होता है। विद्वानों में विकास की इस प्रक्रिया को लेकर अनेक मतभेद रहे हैं। हम यहाँ पर कुछ विद्वानों द्वारा किये गये विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं-

(1) सैले ने विकास प्रक्रिया का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया है-

  • (a) शैशव (Infancy) – 1 से 5 वर्ष तक
  • (b) बाल्यकाल (Childhood) –5 से 12 वर्ष तक
  • (c) किशोरावस्था (Adolescence) – 12 से 18 वर्ष तक

(2) रॉस (Ross) ने अपने ढंग से विकास की अवस्थाएँ इस प्रकार बताई हैं-

  • (a) शैशव-1 से 3 वर्ष तक
  • (b) आरम्भिक बाल्यकाल-3 से 6 वर्ष तक
  • (c) उत्तर बाल्यकाल-6 से 12 वर्ष तक
  • (d) किशोरावस्था – 12 से 18 वर्ष तक

(3) कॉलसनिक (Kalesnic) ने विकास प्रक्रिया का वर्गीकरण बहुत अधिक चरणों में किया है-

  • (a) गर्भाधान से जन्म तक- पूर्व जन्म काल (Prenatal Period)
  • (b) नवशैशव (Neonatal)- जन्म से 3 या 4 सप्ताह तक
  • (c) आरम्भिक शैशव (Early Infancy) – 1 या 2 मास से 15 मास तक
  • (d) उत्तर शैशव (Late Infancy) – 15 से 30 मास तक
  • (e) पूर्व बाल्यकाल (Early Childhood) -2.5 से 5 वर्ष तक
  • (f) मध्य बाल्यकाल (Middle Childhood) – 9 से 12 वर्ष तक
  • (g) किशोरावस्था (Adolescence) – 12 से 21 वर्ष तक

विद्वानों ने सामान्यतः इस वर्गीकरण को अपने अध्ययनों का आधार बनाया है। इस आधार पर हमने इस पुस्तक में उक्त प्रकरणों पर चर्चा की है।

(1) गर्भाधान (Prenatal) काल- गर्भाधान से 250 या 300 दिन तक

  • (a) भ्रूणिक (Germinal) -0 से 2 सप्ताह तक
  • (b) भ्रूणीय (Embroynic)-2 से 10 सप्ताह तक
  • (c) भ्रूण (Foetal) – 10 सप्ताह से जन्म तक

(2) बाल्य काल (Childhood) – जन्म से 12 वर्ष तक

  • (a) शैशव (Infancy) – जन्म से 3 वर्ष तक
  • (b) पूर्व बाल्यकाल-3 से 6 वर्ष तक
  • (c) उत्तर बाल्यकाल-6 से 12 वर्ष तक

(3) किशोरावस्था- 13 से 19 वर्ष तक

(4) परिपक्वावस्था (Adulthood) – 20 वर्ष तथा ऊपर।

अध्ययन की सुविधा के लिए हम विकास प्रक्रिया को इस प्रकार विभाजित करेंगे-
1. गर्भकालीन अवस्था ( Prenatal Period)

यह अवस्था गर्भाधान से जन्म के समय तक मानी जाती है। इस अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्न होती हैं

(a) इस अवस्था में विकास की गति अन्य अवस्थाओं की तुलना में अति तीव्र होती है।

(b) समस्त शरीर रचना, भार और आकार में वृद्धि तथा आकृतियों का निर्माण इसी अवस्था में होता है।

(c) इस अवस्था में होने वाले परिवर्तन मुख्यतः शारीरिक ही होते हैं।” सम्पूर्ण गर्भकालीन अवस्था को विकास के अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता-

  1. बीजावस्था (Germinal Period),
  2. भ्रूणावस्था (Embryonic Period),
  3. गर्भकालीन अवस्था (Foetus Period)

(i) बीजावस्था (गर्भाधान से दो सप्ताह तक)- गर्भाधान से दो सप्ताह तक की अवस्था को ‘बीजावस्था’ कहा जाता है। इस अवस्था में जीव अण्डे (Cell) के आकार का होता है तथा उसके भीतर कोशिका विभाजन की क्रिया होती रहती है, किन्तु ऊपर से कोई परिवर्तन दिखायी नहीं देता है। लगभग एक सप्ताह तक यह अण्डाकार जीव गर्भाशय के तरल स्राव में तैरता रहता है और अपना पोषण स्वयं ही करता है, किन्तु गर्भाधान के दस दिन बाद यह गर्भाशय की दीवार से चिपक जाता है। इस क्रिया को ‘आरोपण’ (Implantation) कहते हैं। इस समय से गर्भस्थ जीव अपने पोषण के लिए माँ के शरीर पर आश्रित हो जाता है।

(ii) भ्रूणावस्था (तीसरे सप्ताह से दूसरे माह तक) — भ्रूणावस्था गर्भकालीन विकास की दूसरी महत्त्वपूर्ण अवस्था है, जो तीसरे सप्ताह से प्रारम्भ होकर दूसरे माह के अंन्त तक चलती है। इस अवस्था में गर्भस्थ जीवन को ‘भ्रूण’ (Embryo) कहते हैं। विकास की गति इस अवस्था में अत्यधिक तीव्र रहती है, जिससे भ्रूण के अन्दर तेजी से परिवर्तन होते हैं। शरीर के सभी प्रमुख अंगों का निर्माण भी इसी अवस्था में होता है। दूसरे माह के अन्त तक भ्रूण की लम्बाई सवा इंच से दो इंच तथा भार लगभग दो ग्राम हो जाता है। इस समय भ्रूण का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता है। सिर का आकार अन्य अंगों की तुलना में बड़ा होता है। कान भी सिर से काफी नीचे स्थित होते हैं। नाक के स्थान पर केवल एक छेद होता है और माथा काफी चौड़ा होता है।

भ्रूण का निर्माण तीन परतों से होता है बाहरी परत को Ectoderm, मध्य परत को Mesoderm तथा आन्तरिक परत को Endoderm कहा जाता है। यही तीनों पर्तें शरीर के विभिन्न अंगों का निर्माण करती हैं। बाह्य परत से त्वचा, दाँत, बाल तथा नाड़ी मण्डल का निर्माण होता है। मध्य परत से अन्तःत्वचा तथा माँसपेशियाँ बनती हैं तथा आन्तरिक परत – फेफड़े, यकृत, पाचन तन्त्र तथा आन्तरिक ग्रन्थियों का निर्माण करती है।

(iii) भ्रूणावस्था (तीसरे माह से जन्म पूर्व तक)- गर्भावस्था की अन्तिम अवस्था भ्रूणावस्था कहलाती है, जो तीसरे माह से प्रारम्भ होकर शिशु के जन्म लेने तक रहती है। यह अवस्था निर्माण की नहीं, बल्कि विकास की होती है। भ्रूणावस्था में शरीर के अंगों का निर्माण हो चुका होता है, उनका विकास ही इस अवस्था में होता है। गर्भकालीन अवस्था के प्रारम्भ होने से प्रत्येक माह गर्भस्थ शिशु के आकार तथा भार में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। इस अवस्था में हृदय, फेफड़े तथा नाड़ी मण्डल कार्य प्रारम्भ कर देते हैं।

2. शैशवावस्था (Infancy)

जन्म से लेकर 15 दिन की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। इस अवस्था में शिशु के अन्दर कोई विशेष शारीरिक तथा मानसिक लक्षण दृष्टिगत नहीं होते हैं। इस अवस्था को ‘समायोजन की अवस्था’ (Period of Adjustment) भी कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय शिशु स्वयं को नये वातावरण के साथ समायोजित करने का प्रयास करता है। अतः इस अवस्था में उसकी अत्यधिक देखभाल की आवश्यकता होती है। उचित देखभाल के अभाव में वह रोगी हो सकता है। चूँकि इस समय शिशु असहाय होता है। अतः उसकी उचित देखभाल द्वारा नये वातावरण के साथ समायोजन का कार्य माता-पिता द्वारा किया जाता है।

3. बचपनावस्था (Babyhood)

बाल विकास की तीसरी अवस्था ‘बचपनावस्था’ कहलाती है। यह अवस्था दो सप्ताह से प्रारम्भ होकर दो वर्ष तक चलती है। यह अवस्था दूसरों पर निर्भर होने की होती है, क्योंकि वह इतना छोटा और शारीरिक रूप से अशक्त होता है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं नहीं कर सकता है, लेकिन इस अवस्था के अन्त तक वह अपनी मांसपेशियों पर नियन्त्रण करना सीख जाता है और स्वयं चलने, बोलने और भोजन करने की क्रियाओं को स्वयं करने लगता है।

इस अवस्था से बच्चा स्वकेन्द्रित होता है। वह अपनी प्रत्येक वस्तु जैसे माता-पिता, खिलौने तथा आस-पास की वस्तुओं पर अपना एकाधिकार समझता है और यदि इस समय उसकी इस एकाधिकार की मनोवृत्ति को परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता है तो वह जिद्दी हो जाता है। उसके सम्पूर्ण व्यवहार व क्रियाकलाप में नैतिकता नहीं होती है, क्योंकि उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों द्वारा प्रेरित होता है।

संवेगात्मक विकास की दृष्टि से इस अवस्था में बच्चे के भीतर लगभग सभी प्रमुख संवेग, जैसे—प्रसन्नता, क्रोध, हर्ष, प्रेम, भय, घृणा आदि उदय हो जाते हैं। यह अवस्था संवेग प्रधान होती है। इस अवस्था में संवेगों का प्रकटीकरण त्वरित होता है, किन्तु वे क्षणिक होते हैं।

4. बाल्यावस्था (Childhood)

विकास की दृष्टि से बाल्यावस्था एक महत्त्वपूर्ण अवस्था मानी जाती है, क्योंकि यह अवस्था शारीरिक व मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। दो से बारह वर्ष की अवस्था को बाल्यावस्था माना गया है, लेकिन अध्ययन की दृष्टि से इसे दो भागों में विभाजित किया गया है-

  1. पूर्व बाल्यावस्था – Early Childhood (2 से 6 वर्ष)
  2. उत्तर बाल्यावस्था – Late Childhood (7 से 12 वर्ष)

यह अवस्था भी समायोजन की अवस्था होती है। बालक नित-प्रतिदिन सभी क्षेत्रों में अपने नये वातावरण के साथ समायोजन का प्रयास करता है।

इस अवस्था में बालकों की ‘जिज्ञासा प्रवृत्ति’ अधिक हो जाती है। नये वातावरण में समायोजन से पूर्व वह उसके बारे में जानना चाहता है, जिससे वह अपने माता-पिता तथा शिक्षकों से तरह-तरह के सवाल करता है। बाल्यावस्था में बालकों में ‘समूह प्रवृत्ति’ (Gregariousness) का विकास होता है। अब वह बचपनावस्था के समान स्व-प्रेमी नहीं रहता है, अपितु खेल के साथियों के साथ रहना पसन्द करता है।

‘सामाजिकता’ की दृष्टि से भी यह अवस्था अति महत्त्वपूर्ण होती है। समूह प्रवृत्ति के कारण अच्छी सामाजिकता का विकास होता है। समूह में रहने से बालकों के अन्दर अनुक गुणों; जैसे- अनुकरण, खेल, सहयोग, सहानुभूति, नैतिकता आदि सकारात्मक गुणों का विकास होता है।

सकारात्मक गुणों के साथ-साथ कुछ नकारात्मक गुण भी प्रकट होते हैं। जैसे—द्वन्द्व, स्पर्धा, झगड़ा तथा मारपीट, आक्रामकता आदि, परन्तु इन सभी नकारात्मक गुणों का प्रदर्शन वह सामाजिक समायोजन के लिये ही करता है जिससे उसमें आत्मनिर्भरता की भावना का विकास होता है।

बाल्यावस्था बालक को जीवन की अनेकों वास्तविकताओं से परिचित कराती है, जिनके बीच रहकर वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने का तरीका सीख लेता है, जो उसके किशोर जीवन के लिए आधार का कार्य करता है।

5. वयःसंधि (Puberty)

वयःसंधि बाल्यावस्था और किशोरावस्था को मिलाने में सेतु का कार्य करती है। यह अवस्था बहुत कम समय की होती है, किन्तु शारीरिक विकास की दृष्टि से यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इस अवस्था का कुछ भाग बाल्यावस्था और कुछ किशोरावस्था से जुड़ा रहता। इस अवस्था की प्रमुख विशेषता यौन अंगों की परिपक्वता तथा काम शक्ति का उदय होना है।

यौन भिन्नता इस अवस्था को प्रभावित करती है। बालिकाओं में यह अवस्था सामान्यतः ग्यारह से तेरह वर्ष के बीच प्रारम्भ हो जाती है और बालकों में बारह से तेरह वर्ष के बीच।

इस अवस्था में शारीरिक ही नहीं मानसिक विकास की गति भी अत्यधिक तीव्र होती है। संवेगात्मक और सामाजिक विकास की दृष्टि से भी यह अवस्था अपना महत्त्व रखती है। इस अवस्था में यौन अंगों के विकास के कारण शरीर में अनेको आन्तरिक तथा बाह्य परिवर्तनों के कारण कभी-कभी बालक और बालिका संवेगात्मक रूप से विचलित हो जाते हैं और सामाजिक नियन्त्रण खो देते हैं। अतः इस अवस्था में माता-पिता को बच्चों को शरीर में होने वाले परिवर्तनों के बारे में अच्छी तरह से बताना चाहिये ।

6. किशोरावस्था (Adolescence)

किशोरावस्था को 13-19 वर्ष तक मानते हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इसे ‘टीन एज’ (Teen age) भी कहा है। यह अवस्था बालक के विकास की सबसे जटिल अवस्था मानी जाती है।

7. प्रौढ़ावस्था (Adulthood)

किशोरावस्था के पश्चात् 20-40 वर्ष तक की अवस्था को प्रौढ़ावस्था कहते हैं। प्रौढावस्था कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्व के निर्वाह की अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्यों को पाने का प्रयास करता है। यह अवस्था पारिवारिक जीवन में प्रवेश की अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लेता है।

8. मध्यावस्था (Middle Age)

41 से 60 वर्ष की अवस्था को मध्यावस्था माना गया है। इस अवस्था में प्राणी के भीतर अनेकों शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। इस अवस्था में काम शक्ति का ह्रास होने लगता है जिससे व्यक्ति की रुचियाँ बदलने लगती हैं। इस समय व्यक्ति सुख-शांति और प्रतिष्ठा से जीने की कामना करने लगता है। उसका चिन्तन यथार्थवादी हो जाता है। सामाजिक सम्बन्धों के प्रति भी मनोवृत्तियाँ दृढ़ हो जाती हैं। इस समय व्यक्ति को अपनी सन्तान के साथ समायोजन करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है, क्योंकि आयु के अन्तराल के कारण दोनों के विचारों, सोचने के तरीकों और मनोवृत्तियों में अन्तर होता है। उचित समायोजन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों के साथ उचित तालमेल रखे, जिससे उसकी वृद्धावस्था मानसिक सन्तुष्टि व शांति के साथ व्यतीत हो ।

9. वृद्धावस्था (Old Age)

जीवन की अन्तिम अवस्था वृद्धावस्था है, जो 60 वर्ष से प्रारम्भ होकर जीवन के अंतिम समय तक मानी जाती है। यह अवस्था ‘ह्रास की अवस्था’ (Period of Decline) होती है। इस अवस्था में शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का हास होने लगता है। शारीरिक क्षमता में कमी के कारण शरीर की क्रियाशीलता कम हो जाती है। इस अवस्था में मानसिक परिवर्तन भी तीव्र गति से होते हैं। व्यक्ति की रुचियों, मनोवृत्तियों तथा आदतों में परिवर्तन हो जाता है। स्मरण शक्ति कम हो जाती है। इन अनेक कारणों से वृद्ध व्यक्तियों की समायोजन समस्या प्रबल हो जाती है। चूँकि यह अवस्था व्यावसायिक जीवन से अवकाश की अवस्था होती हैं। अतः वृद्ध व्यक्तियों की यह अवधारणा बन जाती है कि अब परिवार व समाज को उनकी आवश्यकता नहीं है। वे दूसरों पर बोझ हैं। उनकी यह अवधारणा उनमें मानसिक तनाव उत्पन्न करती है। वे जिद्दी और क्रोधी हो जाते हैं, जिससे परिवार के साथ समायोजन में कठिनाई होती है।

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Anjali Yadav

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