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बिहारी ने गागर में सागर भरने का प्रयास किया है। इस कथन की विवेचना कीजिए।
अथवा
‘सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर’ इस उक्ति के प्रकाश में बिहारी की काव्य प्रतिभा पर प्रकाश डालिए।
अथवा
“बिहारी के दोहे गागर में सागर हैं।” इस उक्ति को उदाहरण सहित समझाइए।
बिहारी के दोहों के सम्बन्ध में यह उक्ति बहुत ही प्रसिद्ध है कि बिहारी ने ‘गागर में सागर भर दिया है। इस कथन पर पूर्णतया विचार किया जाय तो सर्वप्रथम दृष्टि बिहारी द्वारा अपनी रचना में ‘दोहा’ छन्द के प्रयोग पर जाती है। बिहारी ने दोहा छन्द के साथ-साथ कहीं-कहीं पर ‘सोरठा’ नामक छन्द का भी प्रयोग किया है जो कि दोहे से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। दोहे की अपेक्षा कवित्त, कुण्डलिया अथवा छप्पय आकार में बड़े होते हैं। कवित्तों, कुण्डलियों और छप्पयों के बड़े आकारों में आनेवाले भावों को यदि छोटे-छोटे छन्दों में ही व्यक्त कर दिया जाय तो यह कवि की विशेष प्रतिभा का ही परिणाम हो सकता है। | बिहारी ने यह सिद्ध कर दिया कि दोहे में उतनी बातों को एक साथ व्यक्त किया जा सकता है जिसके लिए कवियों को सवैया तथा छप्पय का सहारा लेना पड़ा है।
कल्पना की समाहार-शक्ति एवं भाषा की समास-शक्ति
रहीम की उक्ति से जहाँ ‘गागर में सागर’ वाली बात का स्पष्टीकरण होता है, वहीं बिहारी के दोहों के सम्बन्ध में ‘घाव करें गम्भीर का प्रश्न बना ही रहता है। वस्तुतः ‘घाव करें गम्भीर’ से तात्पर्य उसके प्रभाव से है और यह प्रभाव बिहारी की समासप्रधान पदावली तथा कल्पना की समाहार-शक्ति के कारण है। इस प्रसंग में देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ ने लिखा है-
“बिहारी के दोहों में वे विशेषताएँ कौन-सी हैं जो ‘घाव करें गम्भीर’ को युक्तियुक्त सिद्ध करती है? उत्तर होगा बिहारी की समासप्रधान पदावली तथा कल्पना की समाहार-शक्ति। समासप्रधान शैली का प्रयोग नहीं किया जाता है जहाँ कवि ‘गागर में सागर’ भरने का उद्योग करता है। बिहारी रससिद्ध कवि थे। उनके प्रतिभासम्पन्न हृदय में प्रचुर अनुभूतियाँ एवं मस्तिष्क में विपुल कल्पनात्मक उद्भाविका शक्ति थी। जब भी वह किसी एक भाव को अपने दोहों में निबद्ध करने की इच्छा करते थे तभी अनेकानेक सुकुमार कल्पनाएँ आ-आकर उनके दोहे का शृंगार करने लगती थीं। बिहारी ने दोहे की लघुता के कारण कल्पना की इस समाहार-शक्ति की रक्षा करने के लिए समास शैली को अपनाया है। बिहारी इस दिशा में ब्रजभाषा के अद्वितीय कवि हैं। वे किसी भी बड़े-से-बड़े तथ्य को दोहे की दो पंक्तियों में व्यक्त करने में कुशल हैं। यहाँ दो उदाहरण क्रमशः प्राकृत तथा संस्कृत के पद्यों के दिये जाते हैं, जिन्हें बिहारी ने अपने सूक्ष्मार्थवाही दोहों में थोड़े से ही शब्दों में बाँध दिया है तथा अर्थ को भी अधिक प्रेषणीय बना दिया है—
जावणकोसविकास पावइ ईदसी मालई कलिआ।
मअरन्दपाणलोहिल्ल भमर तावच्चिअ मलेसि ॥
बिहारी में—
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।
अली कली ही सों बँध्यो, आगे कौन हवाल॥
इसी प्रकार ‘अमरुक शतक’ के एक शार्दूलविक्रीडित छन्द को यहाँ प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें वर्णन की प्रधानता तो है परन्तु बीमारी जैसी संकेतात्मकता नहीं आ पायी है-
मुग्धे मुग्धतयैव नेतुमखिलः कालः किमस्मायते।
मानं धत्स्व धृतिं बधान ऋजुतां दूरे कुरु प्रेयसि ॥
संख्यैवं प्रतिबोधिता प्रतिवचस्तामीहभीतावना।
नीचैः शंस हदिस्थितो हि ननु मे प्राणेश्वरः श्रीष्यति ॥
उपर्युक्त उदाहरणों से यह सिद्ध हो जाता है कि बिहारी ने जिस भाव को अपनी परवती शैली के माध्यम से दो पंक्तियों में स्पष्ट किया है, उसे उनके परवर्ती कवि छप्पय कुण्डलिया, कवित्त, सवैया आदि बड़े-बड़े छन्दों में भी समाहित नहीं कर सके हैं। साथ-ही-साथ समास शैली में सांगरूपक तथा उत्प्रेक्षा के प्रयोग से भावों को सहज मनःस्पर्शी बनाया है।
बिहारी ने एक तरफ कल्पना की समाहार-शक्ति और भाषा की समास-शक्ति के माध्यम से लघु आकारवाले दोहे में भावों को कसकर और सजाकर रखा है तो दूसरी तरफ अप्रस्तुत योजना, वाग्वैदग्ध्य बिम्ब-विधान एवं चित्र योजना के द्वारा भावों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। भाषा की समरसता और कल्पना की समाहारपूर्णता के कारण अधिक-से-अधिक कथ्य को कम-से-कम शब्दों में प्रस्तुत करने में वे पूर्णतः समर्थ हैं, जैसे-
-समर-सकोच बस, बिब मन ठिक ठहराई।
फिर-फिर उझकति, फिर दुरति दुरि दुरि उझकति आइ॥
बिहारी के दोहों की कसावट में वाग्वदग्ध्य तथा उक्ति-वैचित्र्य का भी महत्त्वपूर्ण योग रहा है। वाग्वदग्ध्य का उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है-
त्यों त्यों प्यासेई रहत, ज्यों ज्यों पियत अघाड़।
सगुन सलोने रूप की, जनु चख तृषा बुझाइ॥
उक्ति-वैचित्र्य में तथ्य और मुद्राओं का वर्णन उन्होंने बड़े ही कौशलपूर्वक किया है, जैसे-
कीन्हें हूँ कोटिक जतन अब कहि काढ़ कौनु।
भौं मो मोहन रूप मिलि पानी मैं कौं लौनु॥
बिहारी की भाषा में लाक्षणिक प्रयोग भी मिलता है जो भावों को गम्भीर बनाते हैं। लाक्षणिक प्रयोग के उदाहरण में निम्नलिखित दोहा अत्यन्त प्रसिद्ध है—
दृग उरझत दृटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हियें, दई नई यह रीति ॥
बिहारी के दोहों में भावों की गम्भीरता उनके भाषा की चित्रोपमता के कारण भी है। निम्नलिखित उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायगी-
कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।
जगत तपोवन सौ कियाँ दीरघ दाघ निदाघ॥
छकि रसाल सौरभ-सने, मधुर-माधवी-गन्ध।
ठौर-ठौर झूमत-झपत झौर-झौर-मधु अन्ध॥
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि बिहारी के दोहों में कल्पना की समाहार-शक्ति, भाषा की समास-शक्ति, वाग्वदग्ध्यता, अप्रस्तुत योजना, बिम्ब-विधान, चित्र-योजना आदि के कारण कसावट और सजावट देखने को मिलती है। इसीलिए उनके दोहों के सम्बन्ध में कहा जाता है-
सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ॥
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