राजनीति विज्ञान / Political Science

भारत के संविधान भाग तीन | मूल अधिकार तथा मानवाधिकार में तुलना

भारत के संविधान भाग तीन | मूल अधिकार तथा मानवाधिकार में तुलना
भारत के संविधान भाग तीन | मूल अधिकार तथा मानवाधिकार में तुलना

भारत के संविधान भाग तीन

भारत के संविधान के भाग-3 में प्रत्याभूत मूल अधिकारों से तुलना करते हुये मानवाधिकारों पर एक निबन्ध लिखिये। अथवा मानवाधिकारों को परिभाषित कीजिए। क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि “मानवाधिकार एवं भारतीय संविधन के भाग तीन में वर्णित मौलिक अधिकार दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं।” व्याख्या कीजिए । अथवा नागरिक व राजनैतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा की भारतीय संविधान के भाग-3 में प्रत्याभूत अधिकारों से तुलना कीजिए। मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के प्रावधान, भारतीय संविधान में कहाँ तक प्रतिध्वनित होते हैं? समझाइये। अथवा

मानवाधिकारों और भारतीय संविधान में वर्णित मूल अधिकारों के उपबन्धों में गहरा तादात्म्य है। भारतीय संविधान के उपबन्धों पर मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा का व्यापक प्रभाव है इस बात की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने भी की है। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया था कि जिन अधिकारों को परम्परागत अथवा नैसर्गिक अधिकारों के नाम से जाना जाता था उनका नया अथवा आधुनिक नाम मौलिक अधिकार है। भारतीय संविधान के भाग 3 में उल्लिखित मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति सीकरी द्वारा यह कहा गया था कि मै धारित करने में असमर्थ हूँ कि ये अधिकार नैसर्गिक या असंक्रमणीय नहीं है। वास्तव में भारत मानवाधिकारों की सार्वभौकि घोषणा का एक पक्षकार था…….. तथा उपर्युक्त घोषणा कुछ मौलिक अधिकारों को असंक्रमणीय वर्णित करती हैं। इसी प्रकार किशोर चन्द्र बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (1991) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के निर्वाचनात्मक मूल्य को स्वीकार किया है।

भारतीय संविधान के निर्माता स्पष्टतया मानवाधिकारों की धारणा से प्रभावित थे तथा मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में उल्लिखित अधिकारों को भारतीय संविधान में स्थान दिया भारतीय संविधान के भाग 3 में वर्णित सिविल तथा राजनीतिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों के रूप में रखा तथा आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों को भाग 4 में नीति निर्देशक के रूप में सम्मिलित किया। मानवाधिकारों एवं भारतीय संविधान के प्रावधानों के अन्तर्सम्बन्ध का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(1) स्पष्ट रूप से वर्णित अधिकार- मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में वर्णित सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों को भारतीय संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों “के रूप में सम्मिलित किया गया है जिन्हें निम्नलिखित तालिका के माध्यम से सपष्ट किया जा सकता है-

मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा में वर्णित सिविल एवं राजनीतिक अधिकार भारतीय संविधान के प्रावधान
व्यक्ति के जीवन, स्वतन्त्रता एवं सुरक्षा का अधिकार  (अनुच्छेद 3) अनुच्छेद 21
दासता, दास व्यापार आदि की निषिद्ध (अनुच्छेद 4) अनुच्छेद 23
विधि के समक्ष समानता एवं गैर-भेदभाव (अनुच्छेद 7) अनुच्छेद 14 एवं 15 (1)
 प्रभावशाली उपचार का अधिकार (अनुच्छेद 8) अनुच्छेद 32
मनमानी गिरफ्तारी, निरुद्धि आदि के विरुद्ध अधिकार (अनु० 9) अनुच्छेद 22
भूतलक्षी विधियों के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 11 (2) अनुच्छेद 20 (1)
आवागमन की स्वतन्त्रता के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 13 (1) अनुच्छेद 19(1-घ)
सम्पत्ति के स्वामित्व तथा सम्पत्ति से वंचित न किये जाने का अधिकार (अनुच्छेद 17 ) मूलरूप में अनु० 19(1-च) में था, परन्तु अब इसे हटा दिया गया है।
विचार, अन्तःकरण एवं धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 18) अनुच्छेद 25 (1)
मत रखने तथा उसकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार ( अनुच्छेद 10) अनुच्छेद 1(1-ख)
शान्तिपूर्ण सभा एवं संघ की स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 20(10) अनुच्छेद 19(1-ख)
लोक सेवा में समान प्रवेश का अधिकार (अनुच्छेद 12(2) अनुच्छेद 16 (1)
सामाजिक सुरक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 22) अनुच्छेद 29 (1)
व्यावसायिक संघ बनाने एवं उसकी सदस्यता का अधिकार (अनुच्छेद 23 (4) अनुच्छेद 19 (1-ग)

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा में वर्णित सभी सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों को भारतीय संविधान के भाग 3 में सम्मिलित नहीं किया गया है। मानवधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में उल्लिखित अधिकांश आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृति अधिकारों को भारतीय संविधान के भाग 4 में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों के रूप में सम्मिलित किया गया है, जिन्हें निम्नलिखित तालिका के माध्यम से समझा जा सकता है-

सांस्कृतिक अधिकार भारतीय संविधान के प्रावधान
कार्य करने का अधिकार, नियोजन चुनने का स्वतन्त्र चुनाव एवं कार्य की उचित एवं बेहतर दशायें (अनुच्छेद 23 (2) अनुच्छेद 41
समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार (अनुच्छेद 23 (2) अनुच्छेद 39 (घ)
उचित व बेहतर पारिश्रमिक प्राप्त करने का अधिकार (अनुच्छेद 23 (3) अनुच्छेद 43
विश्राम एवं खाली समय का अधिकार (अनुच्छेद 24) अनुच्छेद 43
प्रत्येक का अपने तथा परिवार के लिए उपयुक्त जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 25 (1) अनुच्छेद 39(क) एव 47
प्रारम्भिक एवं मौलिक चरणों में निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार (अनुच्छेद 26 (1)) अनुच्छेद 41 एवं 45
उचित सामाजिक व्यवस्था का अधिकार (अनुच्छेद 28) अनुच्छेद 38

परन्तु सार्वभौमिक घोषणा में उल्लिखित सभी मानवाधिकारों को संविधान के भाग 4 में सम्मिलित नहीं किया गया है, परन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारतीय संविधान में उनका समावेश नहीं किया गया है। वास्तव में सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 26 (3), 27 (1) एवं 27 (2) में उल्लिखित अधिकार या तो भारतीय संविधान में विद्यमान अधिकारों के अन्तर्गत ही आते हैं या उनके भाग हैं अथवा उन्हें भिन्न शब्दों तथा कुछ भिन्न परिधि के साथ व्यक्त किया गया है। इसके विपरीत संविधान के भाग 4 में राज्य के नीति-निर्देशित तत्वों के रूप में कुछ ऐसे अधिकारों को भी सम्मिलित किया गया है जो मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में उल्लिखित नहीं है। ये अधिकार एवं सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(i) समुदाय के भौतिक स्रोतों या द्रव्यों को स्वामित्व तथा नियन्त्रण इस प्रकार विभाजित किया जायेगा जिससे सामान्य कल्याण हो सके। (अनुच्छेद 39 (ख))

(ii) आर्थिक प्रणाली इस प्रकार कार्य न करे जिससे सम्पदा एवं उत्पाद के साधन इस प्रकार केन्द्रित हों कि सामान्य अहित हो। (अनुच्छेद 39 (ग))

(iii) समान न्याय एवं निःशुल्क कानूनी सहायता। (अनुच्छेद 39 (3))

(iv) ग्राम पंचायतों का संगठन। (अनुच्छेद 40 )

(v) प्रबन्ध उद्योगों में कर्मचारियों की भागीदारी। (अनुच्छेद 43 (अ))

(vi) अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं दुर्बल वर्गों के आर्थिक हितों को प्रोन्नति। (अनुच्छेद 46 )

(viii) वनों का संरक्षण, सुधार एवं सुरक्षा आदि। (अनुच्छेद 48 (अ))

(2) वे अधिकार जो स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं हैं- यद्यपि मानवाधिकारों की सार्वभौतिक घोषणा में उल्लिखित उपर्युक्त कुछ अधिकार ऐसे हैं, जिन्हें भारतीय संविधान में विनिर्दिष्ट रूप में उल्लिखित नहीं किया गया है, परन्तु ये अधिकार या तो विनिर्दिष्ट रूप से उल्लिखित मौलिक अधिकारों के भाग हैं या उन्हीं से उत्पन्न हुये हैं। जैसे- भारतीय संविधान अनुच्छेद 21 काफी व्यापक एवं विस्तृत है जिसकी परिधि में वे अधिकार आ जाते हैं, जो संविधान में विनिर्दिष्ट रूप से उल्लिखित नहीं हैं, परन्तु वे इस अनुच्छेद की परिधि में आते हैं। ऐसे अधिकार निम्नलिखित हैं-

(i) विदेश जाने का अधिकार।

(ii) आश्रय का अधिकार।

(iii) हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार।

(iv) सूचना प्राप्त करने या जानने का अधिकार।

(v) हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार।

(vi) पुनर्वास का अधिकार।

(vii) गुप्तता का अधिकार।

(viii) जनता के समक्ष फाँसी के विरुद्ध अधिकार।

(ix) शीघ्र परीक्षण का अधिकार।

(x) स्वास्थ्य, देखभाल या डॉक्टर की सहायता प्राप्त करने का अधिकार।

(xi) विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार।

(xii) निर्दयी एवं असामान्य दण्ड के विरुद्ध अधिकार।

(xiii) प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकार ।

(xiv) एकान्त कारावास के विरुद्ध अधिकार।

(xv) विलम्बित फाँसी के विरुद्ध अधिकार ।

उपर्युक्त अधिकार या तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में सम्मिलित धारित किये गये हैं, या उन्हें इसी अनुच्छेद का भाग धारित किया गय है, या उन्हें इस अनुच्छेद में वर्णित अधिकारों से निकला हुआ धारित किया गया है। मौलिक अधिकारों की प्रकृति ऐसी है जो मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में उल्लिखित अधिकारों से अधिक प्रभावशाली है क्योंकि मानवाधिकारों की प्रकृति बाध्यकारी नहीं है, जबकि भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार न केवल बाध्यकारी प्रकृति के हैं, बल्कि वे न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय भी हैं। ये मौलिक अधिकार राज्य की विधायिनी शक्ति को भी सीमित करते हैं तथा उन्हें ऐसा कानून बनाने से प्रतिबन्धित करते हैं जो संविधान के भाग 3 में वर्णित अधिकारों को न्यून या समाप्त करते हैं।

(3) वे मानवाधिकार जो स्पष्ट रूप से अवर्णित हैं-विनिर्दिष्ट रूप से अवर्णित मानवाधिकारों की श्रेणी में वे अधिकार आते हैं जिनका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा एवं सिविल राजनीतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा, 1996 में तो हैं, परन्तु उनका उल्लेख न तो संविधान के भाग 3 में किया गया है और न ही उन्हें अभी तक उच्चतम न्यायालय ने ही मान्यता प्रदान की है। ऐसे अधिकार निम्नलिखित हैं-

(i) अनुच्छेद 7 में वर्णित चिकित्सक या वैज्ञानिक प्रयोग न किये जाने के विरुद्ध अधिकार;

(ii) अनुच्छेद 6(5) में वर्णित अठारह वर्ष से कम आयु के व्यक्ति एवं गर्भवती महिलाओं पर मृत्युदण्ड के निष्पादन की निषिद्धि ।

(iii) अनुच्छेद 190(2) (क) एवं अनुच्छेद 14(4)

(iv) में वर्णित अवयस्क व्यक्तियों का विशेष संरक्षण ।

(iv) अनुच्छेद 23 (2) में वर्णित विवाह करने तथा परिवार बनाने का अधिकार।

(v) अनुच्छेद 1(1) में वर्णित आत्म-निर्धारण का अधिकार।

(vi) अनुच्छेद 20 (1) में वर्णित युद्ध के प्रचार की निषिद्धि।

उच्चतम न्यायालय ने जॉली जार्ज वर्गीज बनाम बैंक ऑफ कोचीन (1980), वियाना बनाम राजस्थान राज्य (1997) एवं अपेरेल एक्सपोर्ट प्रोमोशन काउन्सिल बनाम ए.के. चोपड़ा (1999) के मामलों में यह स्वीकार किया है कि मानवाधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदायें तथा मानवाधिकारों पर अन्य अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय जिन पर भारत ने हस्ताक्षर किये हैं तथा उनका अनुसमर्थन किया है, उनकी सहायता संविधान के मानवाधिकारों सम्बन्धी उपबन्धों का निर्वचन करने में ली जा सकती है। यदि अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय के कोई प्रावधान भारतीय संविधान के किसी प्रावधान से असंगत है तो ऐसी स्थिति में भारतीय संविधान में वर्णित उपबन्ध ही प्रभावी होंगे।

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Anjali Yadav

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