भारत में उदारीकरण की विवेचना कीजिए।
देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि विदेशी व्यापार नीति को विकसित और सम्पन्न देशों के साथ जोड़ें ही साथ ही अविकसित देशों से भी सम्बन्ध बनाएँ जिसमें कि भारत अपने उत्पाद को इन देशों में निर्यात कर सके। इस दृष्टि को ध्यान में रखकर भारत में आज उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की नीतियाँ विशेष महत्व रखती हैं क्योंकि भारत का उद्देश्य आर्थिक विकास करना, निर्यात सम्वर्द्धन करना एवं राष्ट्र को आत्म निर्भर बनाना है। भारत में सर्वप्रथम पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में उदारीकरण और वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों को प्रोत्साहित किया गया। यह वह युग था जब देश में नव आर्थिक उपनिवेशवाद की नींव रखी गयी। पूँजीवादी देश चोर दरवाजे से देश के आर्थिक जगत में प्रवेश कर गया। हमारा देश इस नारे में गुथ गया। “विकास की कुंजी, विदेशी पूँजी” इस नारे की पृष्ठभूमि में यह नीति थी की विदेशी पूंजी आयेगी तो नये मिल, कारखाने, फैक्टरी, खुलेंगे। औद्योगिक और प्रौद्योगिक विकास होगा। हमारी विदेशी पूंजी में वृद्धि होगी।
उदारवाद विदेशी आर्थिक-राजनैतिक दर्शन से प्रभावित एक अवधारणा है। उदारीकरण उन नीतियों का पोषक और समर्थक है जो आर्थिक प्रतिस्पर्धात्मक क्षेत्र को अनेक सरकारी बन्धनों से मुक्त करवाना चाहता है। उदारीकरण के पक्षथरों का विचार है कि सरकार का आर्थिक क्षेत्र में नियंत्रण आर्थिक उन्नति, विकास और प्रगति को अवरुद्ध करता है। जितना अधिक अर्थ-व्यवस्था, और इसी नियमावली पर कसाव होगा लाल फीताशाही उतना ही हस्तक्षेप करने में सक्षम होंगे। विकास की गति धीमी होगी। इसलिए उदारीकरण की उदार आर्थिक नीतियों के तहत आयात और नर्यात की प्रक्रिया को सरल बनाया जाता है जिससे कि उद्योगपति उद्योगों के विकास में सहायक बन सकें और देश को आर्थिक रूप से सबल बना सकें। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर लाइसेन्स कोटा, सीमा शुल्क के नियमों को काफी लचीला और सरल बनाया जाता है। उदारीकरण की प्रक्रिया में गोपनीयता के स्थान पर पारदर्शिता के सिद्धान्त को प्राथमिकता दी जाती है। देश को अर्थव्यवस्था की नीतियों और आर्थिक विकास की गति से निरन्तर परिचत कराया जाता है। विदेशी मुद्रा और मुद्रा स्फीति, आर्थिक व्यवस्था के वे अंग हैं जो देश की अर्थव्यवस्था का दर्पण है।
उदारीकरण की नीतियाँ सीधे प्रभावित करती है और दबाव भी बनाती हैं कि अर्थ व्यवस्था पर नियंत्रण ढीला करें, लाइसेन्स प्रणाली को समाप्त करें। आयात पर जो प्रतिबन्ध लगे हुए उन्हें सरल बनाया जाए। सीमा शुल्क कम किया जाए। अर्थ व्यवस्था में निजीकरण का महत्व देना। 言 यही कारण है कि केन्द्रीय और राज्य सरकारें यह कहते नहीं थकतीं कि उद्योगपति और विदेशी देश व राज्य में उद्योगों की स्थापना करें सरकार उनकी हर सम्भव सहायता करेंगी। आज रिलायन्स बिजली, कृषि, सब्जी, फल उद्योग में सीधे पदार्पण कर रहा है। हजारों की संख्या में विदेशी कम्पनियाँ भारत में व्यापार कर रही हैं। इस दृष्टि से स्वदेशी और विदेशी चीजों का एक खुला बाजार भारत बन रहा है जहाँ प्रतिस्पर्धा का बाजार भी बन रहा है। उदारीकरण के ढीले होते. नियमों के कारण आज भारतीय नगरों में चीन की असंख्य सस्ती चीजें भारत के बाजारों में हैं। भारतीय बाजार में विदेशी इतने उत्पाद आ गये हैं कि ‘हम उनका अनुमान नहीं लगा सकते हैं। यह उदारीकरण की नीतियों का परिणाम है। देश विदेशी बाजार की मंडी बनता जा रहा है। स्वदेशी चीजें मुँह के बल गिर रही हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि विदेशी वस्तुओं से भारतीय उद्योगों को काफी क्षति पहुँची है किन्तु कडुवा सत्य यह भी है कि आम आदमी की आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। एक आर्थिक सर्वे के अनुसार संसार के 20 प्रतिशत व्यक्ति धनाढ्य हैं। इन्हें ही विकास का पूरा लाभ प्राप्त होता है और 80 प्रतिशत जनता सामान्य जीवन जीती है और भारत में अभी भी लगभग 40 करोड़ जनता गरीबी रेखा के नीचे है । उदारीकरण और वैश्वीकरण की. नीतियों को देश ने 1970-81 में अपना लिया। फिर भी देश के निर्धन-निर्धन ही बने रहे हैं। गरीबी एक बीमारी है जो गरीब को निगलती है। मारती है। उसका निराकरण देश के समग्र आर्थिक विकास से ही होगा। आरक्षण सारी गरीब जातियों की समस्याओं का निराकरण नहीं है। यह सरकार को जितनी जल्दी समझ में आ जाये उतना अच्छा है। ठीक इसी तरह उदारीकरण की नीति उद्योगपतियों के लिए लाभदायक है न कि सामान्य जनता के लिए ।
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