राजनीति विज्ञान / Political Science

भारत में वैश्वीकरण का मानवाधिकार पर प्रभाव

भारत में वैश्वीकरण का मानवाधिकार पर प्रभाव
भारत में वैश्वीकरण का मानवाधिकार पर प्रभाव

भारत में वैश्वीकरण का मानवाधिकार पर प्रभाव

भारत में वैश्वीकरण का मानवाधिकार पर प्रभावः राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का विकास बाजार की आवश्यकताओं की पूर्ति के एक प्रयास क्रम में हुआ है। पूजीवाद के विकास का ‘सर्वाधिक शक्तिशाली सुरक्षात्मक खोल’ होने के नाते यह अवधारणा इतिहास के पन्नों में फली फूली। परिभाषा, समझ व अहसास के लिहाज से राष्ट्रीय भ्रातृत्व पूजीवादी जगत के आर्थिक हितों की एक सशक्त अंतर्धारा है। द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्ववर्ती काल में राष्ट्रीय भ्रातृत्व का आर्थिक आधार अधिक से अधिक मजबूत हुआ और राजकाज के कार्यों में दृढ़तापूर्वक स्थापित होकर मानवाधिकारों को प्रभावित करना शुरू कर दिया।

पूंजीवाद का नया चेहरा- वैश्वीकरण के नाम से पहचाने जाने वाले पूंजीवाद के वर्तमान दौर में ‘राष्ट्र-राज्य’ को परिभाषित करने व समझने वाला अथवा उसका बोध कराने वाला आर्थिक आधार न सिर्फ बाजार के लिए निरर्थक बल्कि पूंजीवादी बिरादरी के उन चंद लोगों की राह में भी रोड़ा है जो अपने लालच को पूरा करने के लिए संपूर्ण विश्व के संसाधनों पर वैव तरीकों से कब्जा जमाना चाहते है। इस प्रवृत्ति का एक खतरनाक परिणाम राष्ट्र, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय भ्रातृत्व की आर्थिक परिभाषा को बेकार बताया जाने के हथकंडे के रूप में सामने आया है। राष्ट्र, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय भ्रातृत्व की नींव को कमजोर पड़ने के क्रम में जो शून्य उभरा है, उसे पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी कट्टरवादी ताकतों द्वारा सफलतापूर्वक भरा गया है। राष्ट्र-राज्य के आजमाए हुए उपकरणों को क्षति पहुंचाए बगैर लक्ष्य को पूरा करने की दृष्टि से नव-उदारवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली प्रक्रिया के समानांतर दक्षिणपंथी कट्टरवाद का उभार बिल्कुल ही सहज है। आज, सभी किस्म की पूंजी के निर्बाध प्रवाह एवं पोषण में राष्ट्र-राज्य ‘सर्वाधिक शक्तिशाली सुरक्षात्मक खोल’ के रूप में दमदार भूमिका निभा रहे है। ‘नव-उदारवाद’ एवं दक्षिणपंथी कट्टरवाद की इस पूरकता ने लोभी पूंजीवादी बिरादरी की राह को अपेक्षाकृत सुगम बना दिया है।

धर्म निरपेक्ष शक्तियों की विफलता- भारत में हिन्दूतत्व के उभार के साथ ‘नव उदारवाद’ के प्रकट एजेंडों को उपरोक्त पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है। वर्ष 1990 से लेकर अब तक नव-उदारवाद एवं हिन्दुत्व दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलीं और एक-दूसरे के विकास में पूरक साबित हुई। इन सबके बीच, वैचारिक स्तर पर एक शून्य उभरा जिसने पूंजी को मुक्त एवं बाधा व शुल्क रहित प्रवाह के पैरोकारों को असहज स्थिति में डाल दिया। उनके समक्ष यह सवाल था कि किस प्रकार राष्ट्रवाद को जीवंत रखा जाए ?

प्रगतिशील धर्मनिर्पेक्षवादियों के किसी भी तबके ने एक राष्ट्र के रूप में भारत को परिभाषित करने का कोई वैकल्पिक तरीका ढूंढने का प्रयास नहीं किया है। जबकि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अगुवाई वाला मोर्चा पिछले 40-50 वर्ष से राष्ट्रीय भ्रातृत्व की हिन्दुत्ववादी परिभाषा को लगातार दोहराता आ रहा है। बदलते परिदृश्य और राष्ट्रीय ध्येय में आए परिवर्तनों ने ऐसी परिस्थितयों को जन्म दिया जिनमें सत्ता पर काबिज अभिजात वर्ग और मध्यम वर्ग, दोनों राष्ट्रीय भ्रातृत्व की उस हिन्दुत्ववादी परिभाषा की ओर आकृष्ट होने लगे जो लंबे समय से परित्यक्त और बेकार पड़ी थी।

उधर, नव-उदारवाद एवं दक्षिणपंथी कट्टरवाद की समानांतर प्रक्रियाओं ने परिस्थिति को उस द्वितीयक स्तर पर पहुंचाया जहां कट्टरवाद वैश्वीकरण के प्रतिकूल प्रभावों के लिए आई मुहैया कराता है। नब्बे के दशक से लेकर आज तक की संसदीय बहसों पर नजर डालने से यह साफ हो जाता है कि संसद में नीतिगत बदलाव से संबंधित ऐसी कोई बहस नहीं हुई है जो संविधान में उल्लिखित ‘हम भारत के लोग ‘ की भावनाओं को सही मायने में सम्प्रेषित करती हो। इस अवधि में हुई संसदीय बहसे अक्सर दक्षिणपंथी हिन्दू कट्टरवादियों द्वारा समय-समय पर उठाए गए महत्वहीन मुद्दों के ईर्द-गिर्द ही घूमती रही हैं।

दूसरे वर्ष 1990 तक मुख्य रूप से आर्थिक नारों से प्रेरित मतों द्वारा निर्देशित होने वाली संसदीय व्यवस्था की राजनीतिक प्रक्रिया नव-उदारवादी एजेंडों के प्रसार के लिए इसलिए उपयुक्त नहीं है कि इन एजेंडों की प्रकृति जन्मजात रूप से जनविरोधी है। दक्षिणपंथी कट्टरवादी शक्तियों का उभार भावोत्तेजक एवं तात्विक मुद्दों पर प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति के केन्द्र में लाता है। साथ ही, यह उभार प्रतिस्पर्धी राजनीतिज्ञोंदलों को जनता से बोस आर्थिक लाभ पहुंचाने का कोई वादा करने से बचाता है। ऐसे वादे क्योंकि नव-उदारवादी ढांचे में किसी भी तरह से पूरे नहीं किये जा सकते।

भ्रम और धोखा- तानाशाही व्यवस्था के उलट संसदीय लोकतंत्र में नव-उदारवादी एजेंडों के प्रसार के लिए यह बेहद जरूरी हो जाता है कि जनता का ध्यान वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभावों से भटकाया जाये और बेरोजगारी, गरीबी, शोषण और जीविका के स्तर में गिरावट के लिए कोई वैकल्पिक तर्क खोजा जाये। इस लिहाज से धार्मिक कट्टरवाद एक अच्छा विकल्प साबित होता है। हिन्दुत्व के अभिमान को वापस लाने के लिए एक दल को सत्ता में बिठाया जाता है और यह अभिमान नव-उदारवाद के लिए कोई भी समस्या खड़ी नहीं करता है। यह द्वितीयक स्तर की पारस्परिकता है, जो कट्टरवाद और वैश्वीकरण के बीच चलती है।

इसका तीसरा स्तर तो और भी रोचक है। धार्मिक कट्टरवाद बाजार को विकसित कर रहा है और उसे अपना उत्पाद बेचने में सहायता प्रदान कर रहा है। अक्षय तृतीया, दीवाली, नवरात्र, करवा चौथ और छठ आदि पर्वो को इसलिए बढ़ावा दिया जाता है कि वे बाजार की अर्थव्यवस्था को मदद पहुंचाते है। धर्मशास्त्रीय नजरिये से देखा जाये तो ईसाइयों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व ईस्टर है, लेकिन बाजारवादी शक्तियां क्रिसमस को इसलिए बढ़वा देती है कि यह अपेक्षाकृत अधिक मुनाफा दिलाता है।

इस प्रकार, पर्वो का चुनिंदा पुररूत्थान एवं समर्थन कट्टरवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं को पर्याप्त रूप से व्यस्त रखता है और बाजार को अपना पंख फैलाने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए, विगत 15 वर्षो के दौरान भारत में पर्वो के बाजारोन्मुखी पुनरूत्थान की नवीन प्रवृत्ति उभरी है। सैद्धान्तिक दृष्टि से सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में दक्षिणपंथी धार्मिक कट्टरपंथियों का लगभग वैसा ही असहिष्णु रवैया रहता है जैसा कि वैश्वीकरण का आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण, लोकतंत्र और विविधता के प्रति रहता है। भविष्य में कट्टरपंथी ताकतें और भी अधिक मजबूत होंगी। आज, हम अमीर और गरीब के बीच चल रहे है संघर्ष के निर्णायक चरण से गुजर रहे है। राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक रणधीर सिंह ने इंगित किया है कि वैश्वीकरण की अवधारणा में नया कुछ भी नहीं है। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की जुगलबंदी पहले भी थी और आगे भी रहेगी। वर्तमान चरण के पूंजीवाद की एकमात्र नई विशेषता है – ‘कामयाब का अलगाव ।” पूंजीवाद की दौड़ में कामयाबी हासिल करने वाला व्यक्ति अपने से कम कामयाब और नाकामयाब के साथ कोई रिश्ता नही रखना चाहता। यही वह प्रवृत्ति है जिसने राष्ट्र-राज्य के कल्याणकारी पहलू को कुंद किया और अमीर एवं गरीब के बीच समायोजन की संभावना को समाप्त किया।

वैश्वीकरण द्वारा किया गया शांति और समृद्धि का वादा भ्रामक साबित हुआ। यह एक ऐसा परिदृश्य है जिसमें अधिक से अधिक लोग हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे। नतीजतन, एक ऐसी परिस्थिति निर्मित होगी जिसमें बहुत ही थोड़े से लोग अपना अस्तित्व बचा पाएंगे। गरीबों को यह चुनाव करना होगा कि वे कीटनाशक पी कर मरेंगे अथवा बंदूक की गोली से । राष्ट्रीय आर्थिक संप्रभुता की अधोगति तथा आर्थिक व राजनीतिक प्रक्रिया से दूर रखे जाने की प्रवृत्ति के कारण कई युवा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लए मजबूरन आतंकवाद ओर हिंसा का रास्ता अपनाने को बाध्य हुए हैं। नक्लसवाद और कुछ नही, बल्कि अस्तित्व के संघर्ष में गरीबों के जवाबी प्रतिरोध का पर्याय मात्र है।

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Anjali Yadav

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