भाषा का अन्य विषयों के साथ सह-सम्बन्ध का वर्णन कीजिए।
भाषा अथवा भाषाविज्ञान का अन्य विषयों से सह-सम्बन्ध
भाषा मनुष्य के विचार विनिमय का माध्यम है। वस्तुतः भाषा के कलेवर में आवेष्ठित होकर विचार हमारे सामने आते हैं अर्थात् भाषा कलेवर है और विचार आत्मा । सामान्यतः विचार सभी विषयों में निहित होते हैं और इन सभी विषयों को विचार के बाह्य कलेवर भाषा का सहारा लेना पड़ता है। अतः भाषाविज्ञान का अन्य विषयों और विज्ञानों से सम्बन्ध स्वाभाविक है। संसार के सारे ज्ञान-विज्ञान भाषा का ही आधार लेकर चलते हैं और भाषा का अपना सम्बन्ध भाषाविज्ञान से होने के कारण सभी ज्ञान-विज्ञानों का सम्बन्ध भाषाविज्ञान से जुड़ जाता है।
(1) भाषाविज्ञान और व्याकरण (Grammar)- दोनों का भाषा से सम्बन्ध होने के कारण परस्पर सहज सम्बन्ध है। भाषाविज्ञान का उद्गम व्याकरण से ही है। व्याकरण भाषा में साधुता – असाधुता का विचार करता है और भाषाविज्ञान भाषा की वैज्ञानिक व्याख्या करता है। व्याकरण किसी भाषा की ध्वनियों और शब्द-रूपों का संचय करता है, भाषाविज्ञान उसका उपयोग करता है। भाषा के नवीन प्रयोगों के सम्बन्ध में व्याकरण भाषाविज्ञान का अनुगामी है। वस्तुतः भाषाविज्ञान व्याकरण का भी व्याकरण है, उसका विकसित रूप है, इसलिए उसे तुलनात्मक व्याकरण अथवा ऐतिहासिक तुलनात्मक व्याकरण भी कहते हैं। व्याकरण के ऐतिहासिक और तुलनात्मक रूपों का बड़ा ही गहरा सम्बन्ध है। किसी भाषा विशेष से सम्बन्धित होने के कारण व्याकरण संकुचित है, किन्तु सामान्य भाषा से सम्बन्धित होने के कारण भाषाविज्ञान का क्षेत्र व्यापक है। भाषाविज्ञान भाषा-विषयक ज्ञान के विश्लेषण- विवेचना का संचय करता है और व्याकरण जब उसे ग्राह्य मान लेता है तो अपना लेता है।
(2) भाषाविज्ञान और साहित्य (Literature)- भाषाविज्ञान और साहित्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहित्य द्वारा प्राचीन भाषाओं का ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके आधार पर भाषा के ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन में सहायता मिलती है। भिन्न-भिन्न शब्दों और उनके रूपों और अर्थों में परिवर्तन का ज्ञान, जो भाषाविज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है, केवल साहित्य से ही हो सकता है। साहित्यहीन बोलियों के इतिहास का तो पता चलाना भी प्रायः असम्भव-सा होता है, जबकि साहित्य सम्पन्न भाषा साहित्य द्वारा अमर होकर भाषाविज्ञान के अधिकांश नियमों और सिद्धान्तों के निर्माण में सहायता पहुँचाने वाली अमूल्य सामग्री प्रस्तुत करती है। साहित्य के अध्ययन में भाषा का विचार प्राधान्येन अर्थ की दृष्टि से होता है, परन्तु भाषाविज्ञान में भाषा के स्वरूप पर विचार किया जाता है। साहित्य के पढ़ने वाले का उद्देश्य साहित्य के प्रकट किये गये सुन्दर सुन्दर विचारों का आस्वादन करना ही होता है, परन्तु भाषाविज्ञानी किसी भाषा की परीक्षा केवल उस भाषा के स्वरूप को जानने के लिए करता है।
(3) भाषाविज्ञान और इतिहास (History)- भाषाविज्ञान का राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक इतिहास से भी सम्बन्ध है। भारतीय भाषाओं में अरबी-फारसी के शब्दों का होना हमें यह बताता है कि हमारा देश पिछली कई शताब्दियों तक ये भाषाएँ बोलने वाली जातियों के अधीन रहा। बंगाली और मराठी भाषाओं में ब्रजभाषा के शब्दों को देखकर यह ज्ञात होता है कि वैष्णव-धर्म का प्रचार देश के विभिन्न भागों में है। भाषा के ऐतिहासिक या तुलनात्मक अध्ययन के सम्बन्ध में इतिहास जानकारी देता है।
(4) भाषाविज्ञान और भूगोल (Geography)- भाषाविज्ञान का भूगोल से आभ्यन्तर और बाह्य दोनों रूपों में सम्बन्ध बड़ा प्रभावशाली है। किसी क्षेत्र विशेष में उपबोलियों, बोलियों और भाषाओं की सीमाएँ कैसे बन जाती हैं ? इस प्रश्न के समाधान में भूगोल का ज्ञान विशेष संहायक सिद्ध होता है। मैदानी में दूर-दूर तक सम्पर्क रखना सरल । अतएव बोली में एकरूपता बनी रहती है, जबकि पहाड़ी प्रदेश में आने-जाने की सुविधा कम होने के कारण भाषा में अनेकरूपता का आ जाना स्वाभाविक है। देश की जलवायु का प्रभाव वहाँ के रहने वालों पर पड़ता है। पर्वतीय प्रदेशों की भाषा की ध्वनियाँ (स्वर) कुछ भिन्न रहती हैं। पहाड़ों और मैदानों की भाषा में अन्तर मिलता ही है, पर गर्म और ठंडे देशों की भाषाएँ भी पृथक् बनी रहती हैं। हीनरिख बेनफे ने तो ध्वनि-परिवर्तन का सिद्धान्त ही भूगोल के आधार पर बनाया था। मुहावरों के निर्माण में जलवायु का विशेष प्रभाव पड़ता है- इंग्लैंड, स्कॉटलैंड आदि ठंडे देशों में अतिथि का ‘वार्म रिसैप्शन’ किया जाता है, जबकि भारत जैसे- गर्म देश में ठंडे पानी, शर्बत, लस्सी आदि से स्वागत किया जाता है। भारत में शीतल-मंद-सुगन्धित समीर को अच्छा समझा जाएगा। जलवायु का प्रभाव पशु-पक्षी, पेड़-पौधों पर पड़ता है और प्रकारान्तर से मनुष्य की भाषा पर भी पड़ता है। किसी बोली या भाषा का दूर तक विस्तार क्यों होता है और कोई भाषा छोटी सीमा में क्यों घिरी रह जाती है, इसका समाधान अन्य विषयों के साथ-साथ भूगोल करता है। समतल मैदान में जनसंख्या की सघनता और आवागमन के साधन भाषा को दूर-दूर तक फैलाने में सहायक सिद्ध होते हैं। शब्दों के अर्थ निश्चित करने में ‘भूगोल’ सहायक सिद्ध होता है। प्राकृतिक वस्तुओं के नाम पर अनेक प्रकार के नाम पड़ जाते हैं। सिन्धु नदी के नाम पर ‘सिन्ध-प्रदेश’ जाना जाता है। भूगोल देशों, नगरों, भूखण्डों, गाँव आदि के स्थान नामों के निर्धारण में पर्याप्त प्रभाव डालता है।
(5) भाषाविज्ञान और दर्शन (Philosophy) – आत्मा-परमात्मा, जीवन-मृत्यु आदि आध्यात्मिक क्षेत्र के रहस्यों का विचार दर्शन का विषय है। जीवन और जगत् के अन्य अनेक प्रश्नों की भाँति ही भाषा का प्रश्न भी पर्याप्त रहस्यपूर्ण है। यही कारण है कि शब्द और अर्थ के सम्बन्ध पर विचार करने वाले सभी भारतीय मनीषी दार्शनिक ही थे। ‘पतञ्जलि’ तथा ‘भर्तृहरि’ ने भाषा पर दार्शनिक दृष्टि से ही विचार किया है। स्फोटवाद का सिद्धान्त, शब्द ब्रह्म की कल्पना आदि सभी विषय दार्शनिक क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। इसी प्रकार की अनेक जिज्ञासाएँ जो मानव-मस्तिष्क में उत्पन्न होती हैं और जिनके समाधान भाषाविज्ञान के द्वारा होते हैं वे सब भी दर्शन के ही अन्तर्गत आती हैं। भारत ही नहीं, पश्चिम के देशों में भी भाषा पर सर्वप्रथम विचार करने वाले विद्वान दार्शनिक ही थे। उदाहरणार्थ-प्लेटो, अरस्तू आदि ने शब्द और अर्थ के सम्बन्ध पर पर्याप्त विचार किया है। इस प्रकार भाषाविज्ञान व दर्शन दोनों ने मिलकर भाषा-सम्बन्धी अनेक प्रश्नों का समाधान किया है।
(6) भाषाविज्ञान और शिक्षाशास्त्र या भाषा-शिक्षण (Education) – भाषा-शिक्षण में भाषाविज्ञान से बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। भाषा में ‘कब’ ‘क्या’ सिखाया जा निर्णय भाषाविज्ञानी ही करता है। भाषा की पाठ्य एवं सहायक पुस्तकों की रचना, व्याकरण का निर्माण, वर्तनी का निर्माण, लिपि का निर्धारण एवं सुधार आदि शिक्षा के कुछ ऐसे विषय हैं, जो भाषाविज्ञान के बिना सम्भव नहीं हैं।
(7) भाषाविज्ञान और मनोविज्ञान (Psychology)- भाषा मनुष्य के भावों और मानसिक वृत्तियों की अभिव्यक्ति का साधन है और भाषाविज्ञान इस साधन (भाषा) का वैज्ञानिक अध्ययन है तथा मनोविज्ञान मानव की मानसिक प्रवृत्तियों का अध्ययन है। फलतः दोनों में सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। मन में कतिपय भाव उठते हैं और उनको कुछ शब्दों द्वारा व्यक्त किया जाता है। कुछ शब्द किसी समय किसी अर्थ विशेष के द्योतक होते हैं, किन्तु आगे चलकर अर्थ – परिवर्तन हो जाता है। कैसे ? कुछ शब्द सामान्य रूप में कुछ अर्थ देते हैं किन्तु कुछ कारणवश वे कुछ घृणास्पद अथवा हास्यास्पद अर्थ देने लगते हैं। क्यों ? शरीर के उच्चारण सम्बन्धी अवयवों के बिल्कुल ठीक रहने पर भी तुतलाकर बोलते हैं। क्यों ? इन सब प्रश्नों के उत्तर मनोविज्ञान की सहायता से प्राप्त हो सकते हैं। शब्द के अर्थ – परिवर्तन के मूल मानसिक स्थिति का भयंकर परिवर्तन विद्यमान है। जातियों के प्राचीन संस्कारों अथवा आदिम जातियों का मानसिक अध्ययन भाषाविज्ञान के सहारे किया जा सकता है। मनोविज्ञानवेत्ता फ्रायड ने Totem तथा Taboo शब्दों का अर्थ-विश्लेषण, भाषाविज्ञान की ही सहायता से किया था।
(8) भाषाविज्ञान और समाज-विज्ञान या समाजशास्त्र (Sociology ) – समाज-विज्ञान में सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य के आचार-विचार, व्यवहार आदि का विश्लेषण किया जाता है। व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध, व्यक्ति पर समाज का प्रभाव, समाज के निर्माण में व्यक्ति का प्रभाव आदि विषयों की चर्चा समाज-विज्ञान में है। भाषा भी सामाजिक सम्पत्ति है। वह समाज ही उत्पन्न और समाज में ही विकसित होती है। मनुष्य के आचार-विचार आदि में भाषा का कभी प्रत्यक्ष और कभी अप्रत्यक्ष प्रभाव रहता है। इस तरह भाषाविज्ञान समाज-विज्ञान के बहुत समीप आ जाता है। भाषा द्वारा समाज की गतिविधि को बहुत दूर तक किस प्रकार नियन्त्रित किया जा सकता है, यह युद्ध या क्रान्ति के समय स्पष्ट हो जाता है। समाज-विज्ञान और मानव-विज्ञान दोनों का, मानव जाति से ही संबंध है। अन्तर यह है कि समाज-विज्ञान का क्षेत्र अधिक व्यापक है, उसमें सामाजिक दृष्टि से मनुष्य के समस्त किया-कलाप का, जिसमें भाषा भी है, विश्लेषण किया जाता है जबकि भाषाविज्ञान क्रिया की केवल भाषा तक सीमित हैं। यह अन्तर मुख्यतः मात्रा का ही है, अन्यथा दोनों समाज सापेक्ष हैं।
(9) भाषाविज्ञान और शरीर विज्ञान (Physiology)- भाषा का निस्सरण मुख से होता है, अतएव भाषाविज्ञान में उसका सम्यक् अध्ययन आवश्यक हो जाता है। यथा स्वर यन्त्र, नासिका विवर, कौवा, तालु, दाँत, जीभ, ओठ, कंठ, मूर्खा तथा नाक के कारण उसमें क्या परिवर्तन होते हैं तथा कान के द्वारा कैसे ध्वनि का ग्रहण होता है आदि। इस अध्ययन में शरीर-विज्ञान ही उसकी सहायता करता है। लिखित भाषा का ग्रहण आँख से होता है, अतएव इस प्रक्रिया का अध्ययन भी भाषाविज्ञान के अन्तर्गत ही है।
(10) भाषाविज्ञान और संगीत (Lyric) – भाषाविज्ञान में ध्वनियों, रूपों, रचना आदि के अतिरिक्त हम दीर्घता, तीव्रता, रणन, आघात, अनुतान आदि का अध्ययन करते हैं। भाषा-वैज्ञानिक संगीत के अनेक तत्त्वों से परिचित होता है। भाषा-विद् प्रायः संगीत के सिद्धान्तों पर भाषा को देखता है।
(11) भाषाविज्ञान और मानव-विज्ञान (Anthropology) — मानव-विज्ञान मानव की उत्पत्ति और विकास का विवेचन करता । बनावट के अनुसार मानव जाति के कितने भेद हैं ? उनका विस्तार कैसे हुआ ? उनकी क्या विशेषताएँ हैं ? आदि बातें मानव-विज्ञान में निरूपित होती हैं। मनुष्य आदिम अवस्था से अब तक कैसे पहुँचा। इस विकास क्रम में उसकी रहन-सहन, भाषा, कला आदि का उस पर क्या प्रभाव पड़ा है ? यह हम मानव-विज्ञान के द्वारा जानते हैं। मनुष्य के विकास में भाषा का भी महत्त्वपूर्ण योग है, इसमें दो मत नहीं। मनुष्य के प्राकृतिक और सांस्कृतिक दोनों विकास-रूपों में सांस्कृतिक विकास में भाषा का योगदान अपरिमित रहा है। मनुष्य की बातचीत, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि पर भाषा का अपना प्रभाव पड़ा है। भाषाविज्ञान भाषा का विज्ञान है, अस्तु दोनों का नैकट्य स्पष्ट है।
(12) भाषाविज्ञान और भौतिकविज्ञान (Physics) – मानव जब कुछ कहता है तो ध्वनि उसके मुँह से निकलने के बाद और किसी के कान तक पहुँचने के पूर्व आकाश में लहरों के रूप में चलती है। इन लहरों का अध्ययन करने में भौतिकशास्त्र ही हमारी सहायता करता है। यह बतलाता है कि ये लहरें किस प्रकार की होती हैं तथा अन्य ध्वनियों की लहरों में क्या अन्तर होता है। प्रयोगात्मक ध्वनिशास्त्र (Experimental Phonetics) के अध्येता भाषाविज्ञान के इस क्षेत्र के अध्ययन में भौतिकशास्त्र से बहुत लाभ उठा रहे हैं। स्वर-व्यंजन आदि के तात्विक रूप पर भौतिकशास्त्र के आधार पर इधर बहुत प्रकाश डाला गया है।
(13) भाषाविज्ञान और तर्कशास्त्र (Logic)- किसी विशिष्ट अर्थ का बोधक शब्द आगे चलकर सामान्य का बोध कैसे कराने लगता है ? आदि प्रश्नों का उत्तर देने में तर्कशास्त्र से सहायता मिलती है। भाषाविज्ञान में व्याख्या, उत्पत्ति, विकास और तुलना प्रमुख हैं। इन सब में तर्क-शास्त्र के सामान्य सिद्धान्त उपयोगी होते हैं। कार्य-कारण, नियमन आदि की विवेचना शुद्ध तार्किक विवेचना होती है। इस प्रकार तर्क-शास्त्र की शल्य परीक्षा ही भाषाविज्ञान का प्रमुख अस्त्र है।
(14) भाषाविज्ञान और पुरातत्त्व (Archaeology) – भाषाविज्ञान का एक नवी विभाग है- प्रागैतिहासिक खोज। इसमें भाषा के अध्ययन के आधार पर प्राचीन संस्कृति आदि पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जाता है।
(15) भाषाविज्ञान और संचार विज्ञान (Communication Engineering) – संचार विज्ञान या संचार प्रविधि भाषा के संचार या प्रसार का विज्ञान है। भाषाविज्ञान के द्वारा जो व्यवस्थित जानकारी प्राप्त होती है, उसका प्रयोग संचार-विज्ञान में किया जाता है।
(16) भाषाविज्ञान तथा नृजातीय विज्ञान (Ethnology)- नृजातीय-विज्ञान का सम्बन्ध मनुष्य के सामाजिक विकास से है। जातियों और जनजातियों के अध्ययन में भाषाविज्ञान एक-दूसरे के सहायक सिद्ध होते हैं।
(17) भाषाविज्ञान एवं पदार्थविज्ञान- वायु-तरंगों एवं ध्वनि के परस्पर प्रभाव का अध्ययन ‘पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत होता है। ध्वनियों के तरंगात्मक एवं प्रायोगिक अध्ययन में भाषाविज्ञान से सहायता लेनी पड़ती है।
(18) भाषाविज्ञान और गणित (Mathematics) – सांख्यिकी, समुच्चय आदि के प्रवेश के कारण भाषाविज्ञान और गणित का सम्बन्ध घनिष्ठ होता जा रहा है। सारांश यह है कि भाषाविज्ञान का सूक्ष्म-से-सूक्ष्म मनोविज्ञान से लेकर ठोस भौतिक विज्ञान तक से प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बन्ध है।
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