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मातृभाषा का उद्भव एवं विकास | हिन्दी- भाषा के इतिहास का काल-विभाजन

मातृभाषा का उद्भव एवं विकास | हिन्दी- भाषा के इतिहास का काल-विभाजन
मातृभाषा का उद्भव एवं विकास | हिन्दी- भाषा के इतिहास का काल-विभाजन

मातृभाषा के उद्भव एवं विकास का वर्णन कीजिए। अथवा विकास की विभिन्न अवस्थाओं में भाषायिक विकास का वर्णन कीजिए।

मातृभाषा का उद्भव एवं विकास

1000 ई० के बाद मध्यकालीन आर्यभाषा के अन्तिम रूप अपभ्रंश भाषाओं ने धीरे-धीरे बदलकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का रूप ग्रहण कर लिया था और गंगा की घाटी में प्रयाग या काशी तक बोली जाने वाली शौरसेनी तथा अर्द्धमागधी की अपभ्रंशों ने हिन्दी भाषा के समस्त प्रधान रूपों को जन्म दिया।

परन्तु विचारणीय है कि हिन्दी ने एकाएक साहित्यिक रूप धारण नहीं किया होगा। पहले वह साधारण बोलचाल की भाषा रही होगी। फिर धीरे-धीरे उसका साहित्य में प्रयोग हुआ होगा और तब कालान्तर में यथासमय वह साहित्य की भाषा बन गयी होगी।

हिन्दी का बोलचाल का रूप क्या था, इसका कोई निश्चित या लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। डॉ० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के मतानुसार, “हिन्दी सम्भवतः सन् 782 से पहले बोली जाती रही होगी।” इसके समर्थन उन्होंने ‘कुवलयमाला’ नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। इसी ग्रन्थ में हमको बोलचाल की हिन्दी का सर्वप्रथम रूप मिलता है।

कुछ इतिहासकारों ने 7वीं शताब्दी के पुष्य नामक एक कवि की चर्चा की है और उसको हिन्दी का प्रथम कवि माना गया है, परन्तु इसकी भाषा का नमूना उपलब्ध नहीं है। 9वीं और 10वीं शताब्दी में धर्म-प्रचारकों ने हिन्दी को प्राचीन अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। इससे हिन्दी पनपने लगी। आचार्य शुक्ल के अनुसार, “पश्चिम के जैन लोगों और पूरब में वज्रयानों की अपभ्रंश की रचनाओं में जहाँ-तहाँ हिन्दी बोली झलकने लगी।” इस समय के एक कवि सरहपा की रचना मिलती है, जिनका समय सन् 990 के आसपास माना जाता है।

विभिन्न विद्वानों ने घुमा-फिराकर हिन्दी के आरम्भ-काल को प्रायः यही माना है। अतः हम कह सकते हैं कि सन् 1000 ईसवी के लगभग हिन्दी साहित्यिक रूप धारण कर रही थी। इस अनुमान की संगति आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की मान्यता के साथ बैठ जाती है, जो हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ संवत् 750 से मानते हैं

डॉ० श्यामसुन्दर दास ने ठीक ही कहा है कि ‘हेमचन्द्र के समय से पूर्व हिन्दी का विकास होने लगा था और चन्द्र के समय तक उसका रूप कुछ स्थिर हो गया था। अतएव हिन्दी का आदिकाल हम संवत् 1050 के लगभग मान सकते हैं। हिन्दी का आरम्भ-काल अब सामान्यतया यही मान लिया गया है।

हिन्दी- भाषा के इतिहास का काल-विभाजन

हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास-क्रम प्रायः समानान्तर चलता है। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने हिन्दी भाषा के इतिहास को तीन मुख्य कालों में विभक्त किया है; यथा-

(क) प्राचीन काल (सन् 1300 ई0 से सन् 1500 ई0 तक) – उस समय अपभ्रंश तथा प्राकृतों का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था, साथ ही हिन्दी की बोलियों के निश्चित अथवा स्पष्ट रूप विकसित नहीं हुए थे।

(ख) मध्य काल (सन् 1500 ई0 से 1800 ई0 तक) – अब हिन्दी उक्त प्रभार से मुक्त हो गयी थी और हिन्दी की बोलियाँ- विशेषकर ब्रजभाषा और अवधी, अपनी पैरों पर खड़ी हो गयी थीं।

(ग) आधुनिक काल (सन् 1800 ई0 से अब तक) – हिन्दी की बोलियों के रूपों का मध्यकाल में परिवर्तन आरम्भ हो गया तथा साहित्यिक प्रयोगों की दृष्टि से खड़ी बोली ने हिन्दी की अन्य बोलियों को दबा लिया है।

हिन्दी भाषा के विभिन्न कालों का संक्षिप्त परिचय –

(क) प्राचीन काल- दसवीं शताब्दी से पूर्व रचित कई ग्रन्थों के उल्लेख मात्र तो मिलते हैं परन्तु उनके नमूने उपलब्ध नहीं हैं। हिन्दी का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ चन्द बरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ है। इस ग्रन्थ में हमको हिन्दी भाषा के सर्वप्रथम दर्शन होते हैं, परन्तु उक्त ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं भाषा के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है। इस ग्रन्थ का स्वरूप इतना मिश्रित एवं वैविध्यपूर्ण है कि उसके मूल रूप का पता लगाना अत्यन्त कठिन हो रहा है।

जिस समय हिन्दी भाषा का इतिहास आरम्भ होता है, उस समय हिन्दी-प्रदेश तीन राज्यों में विभक्त था- (i) दिल्ली अजमेर का चौहान वंश, (ii) कन्नीज का राठौर वंश (iii) महोबा का परमार वंश। ये राज्य सन् 1191 तक बने हुए थे। उसके बाद 17-18 वर्ष के भीतर नष्ट हो गये। ये तीनों ही हिन्दू-राज्य थे। इनके संरक्षण में हिन्दी पनप रही थी। कन्नौज के अन्तिम सम्राट जयचन्द्र का दरबार साहित्य-चर्चा का मुख्य केन्द्र था, परन्तु वहाँ हिन्दी की अपेक्षा संस्कृत और प्राकृत का अधिक बोलबाला था। संस्कृत के अन्तिम ‘नैषध’ के रचयिता हर्ष जयचन्द के दरबार के राजकवि थे। महोबा के राजकवि जगनिक का नाम अपने ग्रन्थ ‘आल्हखण्ड’ के कारण सर्वविदित है। दिल्ली के किसी प्रसिद्ध राजकवि का नाम विदित नहीं है।

13वीं शताब्दी के आरम्भ तक समस्त हिन्दी प्रवेश पर मुसलमानों का आधिपत्य स्थापित हो गया था। इन विदेशी शासकों की रुचि हिन्दी के प्रति बिल्कुल नहीं थी। तीन सौ वर्षों से अधिक विदेशी शासन की कालावधि में दिल्ली के राजनीतिक केन्द्र से हिन्दी भाषा की उन्नति में बिल्कुल सहायता प्राप्त नहीं हुई। इस कालावधि में दिल्ली में केवल अमीर खुसरो ने मनोरंजन के लिए भाषा के प्रति कुछ रुचि दिखाई। इसके अतिरिक्त उक्त कालावधि के अन्तिम दिनों में धार्मिक आन्दोलनों के कारण भाषा में कुछ काम हुआ। इस प्रकार के आन्दोलन में गोरखनाथ, रामानन्द तथा उनके प्रमुख शिष्य कबीर के प्रयास उल्लेखनीय हैं। हिन्दी भाषा के इस प्राचीनकाल की सामग्री प्रायः चार श्रेणियों में विभक्त की जा सकती है-

  1. शिलालेख, ताम्रपत्र प्राचीन पत्र आदि ।
  2. अपभ्रंशकाव्य ।
  3. चारणकाव्य, जिसका आरम्भ गंगा की घाटी में हुआ था, किन्तु विकास राजस्थान में हुआ था। तथा
  4. धार्मिक ग्रन्थ, अन्य काव्य-ग्रन्थ

इस युग के सम्बन्ध में ये बातें विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं- (i) यह काल वस्तुतः विदेशी शासन का युग था तथा (ii) इसमें हिन्दू राजाओं द्वारा खुदवाए गए शिलालेखों की संख्या अत्यन्त स्वल्प है। (iii) इस युग में नाथ पंथ एवं वज्रयानी सिद्ध-साहित्य की रचना हुई, जिसके अनेक ग्रन्थों की प्रामाणिकता संदिग्ध है। (iv) इस युग के ग्रन्थों में किसी भी ग्रन्थ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति उपलब्ध नहीं है। सम्भवतः ये ग्रन्थ बहुत दिनों तक मौखिक रूप में रहे हों। इसी कारण यह अनुमान किया जाता है कि इन ग्रन्थों की भाषा में पर्याप्त परिवर्तन हो गया होगा।

इस काल के साहित्यकारों में विद्यापति का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। ‘पदावली’ इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है, परन्तु ‘पदावली’ की भाषा को हिन्दी न मानकर मैथिली मानते हैं।

कबीर आदि संत-कवियों की रचनाएँ भी प्राचीनकाल के अन्तर्गत आती हैं। इनकी भाषा पंचमेल खिचड़ी है, अतः उसका स्वरूप भी अस्थिर है।

इस काल में केवल अमीर खुसरो की भाषा को हम हिन्दी का प्रारम्भिक साहित्यिक रूप मान सकते हैं। इनकी कविता की भाषा मूल रूप से यही है, जिसे हम आज हिन्दी कहते हैं, यथा-

श्याम बरन की है एक नारी। माथे ऊपर लागे प्यारी ।
याका अरथ जो कोई खोलै। कुत्ते की वह बोली बोले।।

प्राचीन हिन्दी के ऊपर मुसलमानों की भाषाओं- अरबी, तुर्की और फारसी का खूब प्रभाव पड़ा।

यह हिन्दी का शैशव-काल है। इस काल की हिन्दी में अपभ्रंश के काफी रूप मिलते हैं। इसमें कई बोलियों का मिश्रण मिलता है। अपभ्रंश से लगभग सभी ध्वनियाँ हिन्दी ने लीं, किन्तु उसमें कुछ नयी ध्वनियों का विकास भी इसी काल में हुआ। अपभ्रंश में संयुक्त स्वर नहीं थे। हिन्दी में दो संयुक्त स्वर ‘ऐ’ और ‘औ’ इस काल में प्रयुक्त होने लगे।

‘हिन्दी’ का प्रथम कवि कौन है, इस सम्बन्ध में विवाद है। जहाँ तक मुसलमानों का सम्बन्ध है, ‘हिन्दवी’ या ‘हिन्दी के प्रथम कवि ख्वाजा मसऊद साद सुलेमान (र० का० 1066 ई०) हैं। इनके हिन्दवी संग्रह की चर्चा अमीर खुसरो ने की है इनकी भाषा कदाचित् प्राचीन पंजाबी मिश्रित हिन्दवी थी।

सारांश यह है कि (क) आदिकाल में हिन्दीभाषा विभिन्न प्रभावों से शक्ति ग्रहण करके विकसित हो रही थी। संस्कृत के समान वह व्याकरण के कठोर नियमों द्वारा जकड़ी न थी। आदान-प्रदान के द्वारा वह निरन्तर विकास को प्राप्त हो रही थी। (ख) खड़ी बोली, ब्रजभाषा और अवधी अपने-अपने क्षेत्र की बोलचाल की भाषा रही होंगी। धीरे-धीरे इनका प्रयोग साहित्यिक रचनाओं के लिए होने लगा होगा। (ग) इस काल के उल्लेखनीय कवि हैं- शालिभद्र सूरि, रोड, विजयसेन सूरि, शेख फरीदुद्दीन शकरगंजी, चक्रधर स्वामी, कबीर, मीरा, शाह, ख्वाजा बन्दा नवाज।

(ख) मध्यकाल (1500 ई० से 1800 ई0 तक) – मध्यकाल तक आते-आते तुर्की का महत्त्व समाप्त हो गया था और मुगलों का साम्राज्य स्थापित होने लगा था। इस संक्रान्तिकाल में कुछ समय तक राजपूतों का भी प्रभुत्व रहा। इन राजपूत राजाओं की हिन्दी के प्रति सहानुभूति थी। जनता की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए मुगलशासकों ने भी जनता की भाषा हिन्दी को अपनाया।

आदिकाल में हिन्दी का सर्वमान्य साहित्यिक रूप बन चुका था। इस काल में ब्रजभाषा और अवधी साहित्यिक भाषाएँ बन चुकी थीं तथा खड़ीबोली साधारण नागरिक व्यवहार, शासन आदि की भाषा थी।

इस काल तक आते-आते हिन्दी का स्पष्ट स्वरूप निखर आया। उसकी प्रमुख बोलियाँ भी विकसित हो गयीं। पढ़े-लिखे लोगों की हिन्दी में क, ख, ग, ज़, फ- ये पाँच व्यंजन-ध्वनियाँ सम्मिलित हो गयीं। उस समय लगभग 3500 फारसी, 2500 अरबी तथा सौ से कम तुर्की के शब्द प्रयुक्त हो रहे थे। इस काल के उत्तरार्द्ध में यूरोप से भी हमारा पर्याप्त सम्पर्क हो गया था, अतः 100 से कम पुर्त्तगाली, कुछ फ्रांसीसी एवं डच तथा कुछ सौ अंग्रेजी के शब्द भी हिन्दी में प्रविष्ट हो गये।

ब्रजभाषा और अवधी के प्रचार का कारण धार्मिक आन्दोलन थे। अवधी में सूफियों ने ग्रन्थ-रचना करके सूफी-धर्म का प्रचार किया। ‘रामचरितमानस’ की रचना अवधी में ही हुई। कृष्ण-भक्त कवियों ने ब्रजभाषा को अपनाया। ‘रामचरितमानस’ सदृश ग्रन्थ की रचना के होने पर भी अवधी का विशेष प्रचार नहीं हुआ और न उसमें किसी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना ही हुई। ब्रजभाषा समस्त हिन्दी प्रदेश की साहित्यिक भाषा हो गयी थी। 17वीं-18वीं शताब्दी में प्रायः समस्त हिन्दीसाहित्य, ब्रजभाषा में लिखा गया। ब्रजभाषा का रूप दिन-दिन साहित्यिक, परिष्कृत तथा सुसंस्कृत होता गया। बुन्देलखण्ड तथा राजस्थान के देशी राज्यों में संपर्क में आने के कारण इस कालावधि के बहुत से कवियों की भाषा में जहाँ-तहाँ बुन्देली तथा राजस्थानी बोलियों का प्रभाव आ गया है।

इस युग में खड़ी बोली मुसलमानों की बोली समझी जाने लगी थी। उन दिनों खड़ी बोली का अस्तित्व तो था, परन्तु कविगण एवं लेखक उसका प्रयोग नहीं करते थे। मुसलमान कवि भी कविता करने के लिए ब्रजभाषा और अवधी का प्रयोग करते थे। इस युग में खड़ी बोली का प्रयोग दक्षिण में हुआ। 19वीं शताब्दी में उत्तर भारत में भी कई मुसलमान कवि हुए, जिन्होंने खड़ी बोली उर्दू को परिमार्जित साहित्यिक रूप दिया। इनमें मीर, सौदा, इंशा, गालिब, जोक और दाग के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

सारांश यह है कि मध्यकाल के प्रथम भाग में हिन्दी की पुरानी बोलियों ने विकसित होकर ब्रज, अवधी और खड़ी बोली का रूप धारण कर लिया। ब्रज और अवधी धार्मिक आश्रय प्राप्त करके साहित्यिक बन गयीं और आगे बढ़ीं। खड़ी बोली आंशिक रूप से राजनीतिक आश्रय प्राप्त करके विकसित होती रही। उसकी विकासगति बहुत धीमी रही। कहने का तात्पर्य यह है कि मध्यकाल में ब्रजभाषा, अवधी और खड़ी बोली के अनेक हिन्दू-मुसलमान कवि हुए। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने ठीक ही लिखा है कि “वास्तव में यह काल हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। “

(ग) आधुनिक काल (सन् 1800 ई0 से अब तक) – सन् 1802 के लगभग आगरा उपप्रान्त तथा सन् 1856 में अवध पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। नवीन राजनीतिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया और खड़ी बोली उर्दू के रूप में चारों ओर फैल गयी।

19वीं शताब्दी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा रही और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 1 बीसवीं शताब्दी के आते-आते खड़ी बोली गद्य-पद्य दोनों की साहित्यिक भाषा बन गई। धीरे-धीरे खड़ी बोली के ऊपर से ब्रजभाषा का प्रभाव कम होता गया।

खड़ी बोली का साहित्य बहुत तेजी के साथ पनपा है। अवधी और ब्रजभाषा से उसको बहुत सहायता प्राप्त हुई है, क्योंकि थोड़े-से रूप-भेद के साथ तीनों की शब्द-सम्पत्ति एक ही है। संस्कृत के अतिरिक्त उसने अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है। नवीन युग की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के हेतु इसमें अनेकानेक नवीन शब्दों का निर्माण हो रहा है। उसमें वैज्ञानिक एवं आधुनिक विषयों से सम्बन्धित शब्दावली का निर्माण बहुत तेजी के साथ हो रहा है।

परिनिष्ठित हिन्दी में एक नयी ध्वनि आ गई है- ऑ। आदिकाल में हिन्दी ने दो संयुक्त स्वरों (ऐ, औ) को अपनाया था। पश्चिमी हिन्दी प्रदेश में ये ध्वनियाँ संयुक्त स्वर के स्थान पर मूल स्वर हो गयी हैं। पूर्वी प्रदेश में यह अब भी संयुक्त स्वर है।

एक बात विशेष रूप से द्रष्टव्य है। खड़ी बोली के इतने व्यापक प्रभाव के होते हुए भी हिन्दी की अन्य प्रादेशिक बोलियाँ अपने-अपने प्रदेशों में विकसित हो रही हैं। बोलचाल में भी ग्रामीण जनता स्थानीय बोलियों का प्रयोग करती है, नगर-निवासी शिक्षित लोग प्रायः खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं। एक बात और, नवीन परिस्थितियों में ग्रामीण बोलियों के रूप में काफी परिवर्तन हो गया है। जायसी के पद्मावत की अवधी और आजकल अवध में बोली जाने वाली अवधी में पर्याप्त अन्तर है। सूरदास की ब्रजभाषा से वह ब्रजभाषा एकदम भिन्न है जो ब्रज-प्रदेश में आजकल बोली जाती है।

निष्कर्ष- हिन्दी एक प्रवहमान एवं सशक्त भाषा है। वह आन्तरिक शक्ति को विकसित करने के लिए बाह्य प्रभावों एवं परिस्थितियों से शक्ति-संचय करती हुई निरन्तर विकासशील रही है। वह बाहर से उपुयक्त शब्द ग्रहण करने में संकोच नहीं करती है। उसका व्याकरण भी विशेष जटिल नहीं है। वस्तुतः हिन्दी संजीवनी शक्ति से ओत-प्रोत है।

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Anjali Yadav

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