मार्क्सवाद का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
मार्क्स की विचारधारा में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की भाँति ही इतिहास की आर्थिक व्याख्या या आर्थिक नियतिवाद का सिद्धान्त भी महत्वपूर्ण है। वास्तव में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त को सामयिक विकास के सम्बन्ध में प्रयुक्त करना ही इतिहास की आर्थिक व्याख्या है। मार्क्स उन इतिहासकारों से सहमत नहीं है, जिन्होंने इतिहास को कुछ महान और विशेष व्यक्तियों के कार्यों का परिणाम मात्र समझा है। मार्क्स के विचार में इतिहास की सभी घटनाएँ आर्थिक अवस्था में होने वाले परिवर्तनों का परिणाम मात्र हैं। किसी भी राजनीतिक संगठन अथवा उसकी न्याय व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसके आर्थिक ढाँचे का ज्ञान नितान्त आवश्यक है। मानवीय क्रियाएँ नैतिकता, धर्म या राष्ट्रीयता से नहीं वरन् केवल आर्थिक तत्वों से प्रभावित होती हैं।
अपने विचार-क्रम को स्पष्ट करते हुए मार्क्स कहता है कि उत्पत्ति के सिद्धान्त का निरन्तर विकास होता रहता है। वे गतिमान और परिवर्तनशील हैं और उनकी परिवर्तनशीलता का यह परिणाम होता है कि हामारे जीवन-यापन के ढंग में परिवर्तन होता रहता है। मार्क्स ने अपनी इस आर्थिक व्याख्या के आधार पर अब तक की और भावी मानवीय इतिहास की 6 अवस्थाएँ बतायी हैं। इनमें से प्रथम 4 अवस्थाओं से समाज गुजर चुका है और शेष दो अवस्थाएँ अभी आनी हैं। मानवीय इतिहास की ये 6 अवस्थाएँ इस प्रकार हैं।
आदिम साम्यवादी अवस्था- सामाजिक विकास की इस पहली अवस्था में उत्पादन के तरीके बहुत सरल थे। पत्थर के औजार और घनुष-बाण उत्पादन के मुख्य साधन थे। शिकार, मछली मारना और वनों से कन्द-मूल एकत्रित करना उनके मुख्य व्यवसाय थे। भोजन-प्राप्ति और जंगली जानवरों से अपनी रक्षा के लिए सामूहिक शक्ति जरूरी भी थी। अतः मनुष्य झुण्ड में बनाकर साथ-साथ काम करते थे। इस अवस्था में उत्पादन के साधन सम्पूर्ण समाज की सामूहिक सम्पत्ति हुआ करते थे। इस अवस्था में न निजी सम्पत्ति थी, न विवाह-प्रथा और न परिवार। सब समानथे, कोई किसी का शोषण करने की स्थिति में न था, इसलिए मार्क्स के द्वारा इसे साम्यवादी अवस्था कहा गया है।
दास अवस्था – धीरे-धीरे भौतिक परिस्थिति में परिवर्तन हुआ। अब व्यक्ति खेती और पशुपालन करने लगे और दस्तकारियों का उदय हुआ और श्रम विभाजन भी उठ खड़ा हुआ। जिन व्यक्तियों के द्वारा उत्पादन के साधनों (भूमि आदि) पर अधिकार कर लिया गया, वे दूसरे व्यक्तियों को दास बनाकर उनसे बलपूर्वक काम कराने लगे। इस प्रकार आदिम समाज की स्वतन्त्रता व समानता समाप्त हो गयी। समाज स्वामी और दास के दो अलग-अलग वर्गों में विभाजित हो गया। इस प्रकार शोषण प्रारम्भ हुआ। आर्थिक क्षेत्र में इस अवस्था के अनुरूप ही राजनीतिक संगठन स्थापित हुए और दर्शन तथा साहित्य की रचना हुई।
सामन्ती अवस्था- अब उत्पादन के साधनों में और उन्नति हुई। लोहे के हल तथा करघे आदि का चलन हुआ और कृषि बागवानी तथा कपड़ा बनाने के उद्योगों का विकास हुआ। उत्पादन के इन साधनों के सफल प्रयोग के लिए आवश्यक था कि श्रमिक अपना कार्य रुचि और योग्यता के साथ करे अत: दास-प्रथा के स्थान पर नवीन प्रकार के उत्पादन सम्बन्ध कायम हुए। ये सामन्ती व्यवस्था के नाम से जाने जाते हैं। इस सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत सामन्त समस्त भूमि आदि उत्पादन के साधनों के स्वामी होते थे, किन्तु भूमि पर खेती और दस्तकारियों का काम किसान और श्रमिक करते थे। किसानों पर सामन्तों का नियन्त्रण दास प्रथा की तुलना में अपेक्षाकृत कम था। किन्तु इस अवस्था में भी शोषण इतना ही भयंकर था। इस अवस्था में शोषकों व शोषितों का संघर्ष निरन्तर चलता रहा।
पूँजीवादी अवस्था- अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में औद्यौगिक क्रान्ति हुई जिसने उत्पादन के साधनों में आमूल परिवर्तन कर दिया। इस अवस्था में पूँजीपति उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है, लेकिन वस्तुओं के उत्पादन का कार्य श्रमिकों द्वारा किया जाता है। वस्तुओं का उत्पादन बहुत बड़े पैमाने पर किया जाता है और श्रमिक इस अर्थ में तो स्वतन्त्र होते हैं कि पूँजीपति उन्हें बेच और खरीद नहीं सकते किन्तु श्रमिकों के पास उत्पादन के साधन न होने से उनकी वास्तविक स्थिति दासों से अच्छी नहीं होती और वे पूँजीपतियों के भयंकर शोषण के शिकार होते हैं। इस शोषण के परिणामस्वरूप दो वर्गों (बर्जुआ शोषक वर्ग व सर्वहारा शोषित वर्ग) के मध्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर पूँजीवाद को समाप्त कर देती है। मार्क्स का कथन है कि इस युग के उत्पादन सम्बन्धों के अनुरूप ही इस युग की राजनीतिक व्यवस्था, नैतिकता, कला, साहित्य और दर्शन होता है।
श्रमिक वर्ग के अधिनायकत्व की अवस्था- मार्क्स का विचार है कि पूँजीवादी अवस्था में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार प्रतिक्रिया होगी और उसके परिणामस्वरूप ऐतिहासिक विकास में की 5वीं अवस्था आएगी। इस युग में श्रमिक वर्ग उत्पादन के समस्त साधनों पर अपना अधिकार = करके पूँजीवाद का अन्त कर देगा और श्रमिक वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो जाएगा। पूर्व अवस्थाओं और इस अवस्था में अन्तर केवल यह होगा कि पूर्व अवस्थाओं में तो अल्पमत वर्ग (उत्पादन साधनों का स्वामी वर्ग) बहुमत वाले श्रमिक वर्ग का शोषण करता है, किन्तु इस अवस्था में बहुमत श्रमिक वर्ग के द्वारा पूँजीवादी वर्ग के अवशेष तत्वों के विरुद्ध राज्य-शक्ति का प्रयोग करके उसे पूर्णतया समाप्त कर दिया जाएगा।
साम्यवादी अवस्था- पूँजीवादी तत्वों के विनाश के बाद मानवीय इतिहास की अन्तिम अवस्था (साम्यवादी या राज्यविहीन और वर्ग विहीन अवस्था) आएगी। मार्क्स के द्वारा इस अवस्था का विस्तार के साथ चित्रण न करके उसके केवल दो लक्षण बताए गए हैं। प्रथमतः यह समाज राज्य-विहीन और वर्ग विहीन होगा। इसके अन्दर शोषक और शोषित, इस प्रकार के दो वर्ग नहीं, वरन् केवल एक वर्ग श्रमिकों का वर्ग होगा। राज्य एक वर्गीय संस्था है अत: वर्ग-विहीन समाज में राज्य स्वत: ही लुप्त हो जाएगा।
द्वितीयत:- इस समाज के अन्दर वितरण का सिद्धान्त होगा “प्रत्येक अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करे और उसे आवश्यकता के अनुसार प्राप्ति हो।”
इतिहास की आर्थिक व्याख्या के निष्कर्ष- मार्क्स द्वारा इतिहास की जो आर्थिक व्याख्या की गयी, उसके प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं-
1. सामाजिक- परिवर्तन ईश्वर की इच्छा अथवा महापुरुषों के विचारों व कार्यों के परिणाम नहीं होते और न ही वे संयोगवश होते हैं, वे सामाजिक-विकास के निश्चित नियम हैं।
2. प्रत्येक युग की सामाजिक व्यवस्था पर उसी वर्ग का अधिकार रहता है, जिसे उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व प्राप्त हो।
3. समस्त सामाजिक व्यवस्था उत्पादन स्थिति और उत्पादन के साधनों पर निर्भर करती है। उत्पादन की स्थिति में परिवर्तन हो जाने पर विद्यमान राज्य शोषक वर्ग की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाता और इसलिए राज्य की प्रकृति में ही परिवर्तन हो जाता है।
4. वर्ग संघर्ष मानवीय इतिहास की कुंजी है और दास युग से लेकर श्रमिक वर्ग के अधिनायकत्व तक वर्ग संघर्ष ने सामाजिक व्यवस्थाओं को परिवर्तित करते रहने का कार्य किया है। किन्तु साम्यवादी युग में वर्ग-विहीन समाज की स्थापना से वर्ग संघर्ष की यह प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।
5. मार्क्स अपनी इतिहास की आर्थिक व्याख्या के आधार पर पूँजीवाद के अन्त और साम्यवाद के आगमन की अवश्यम्भावना व्यक्त करता है।
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