मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त मार्क्स के सम्पूर्ण चिन्तन का मूलाधार है। द्वन्द्व का विचार मार्क्स ने हीगल से ग्रहण किया तथा भौतिकवाद का विचार फ्यूअरबाख से लिया।
उसने इन दोनों विचारों को मिलाकर अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का निर्माण किया तथा मानव सभ्यता के विचार को साधने हेतु मनुष्य को एक नया दृष्टिकोण प्रधान किया। चूँकि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन दो विचारों-द्वन्द्ववाद तथा भौतिकवाद के सम्मिश्रण से हुआ है अतः इसको सही ढंग से समझाने के लिए दोनों विचारों की संक्षिप्त जानकारी आवश्यक है। पहले हम यह जानकारी प्राप्त करेंगे।
द्वन्द्वात्मक पद्धति- द्वन्द्वात्मक पद्धति का सर्वप्रथम प्रतिपादन हीगल द्वारा अपनी ‘विश्वात्मा’ सम्बन्धी मान्यता को सिद्ध करने के लिए किया गया था। इस दृष्टि से उसने द्वन्द्व को वैचारिक द्वन्द्र के रूप में प्रतिपादित कर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि किसी विचार के उत्पन्न और परिमार्जित होने की प्रक्रिया क्या है ?
भौतिकवाद- मार्क्स ने भौतिकवाद का प्रयोग द्वन्द्ववाद को एक नई दिशा जो हीगल की वैचारिक द्वन्द्व पद्धति से भिन्न है, देने के लिए किया। भौतिकवाद के महत्व को स्पष्ट करते हुए उसने घोषित किया कि सृष्टि का उद्गम, विकास और अन्त सभी इन्द्रियों से दृष्टिगत होने वाले पदार्थों पर आधारित है। वह हीगल की तरह आत्मा-परमात्मा जैसी अदृश्य वस्तुओं के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता। वह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले पदार्थों को ही सत्य के रूप में स्वीकार करता है और उनके माध्यम से दृष्टि निर्माण और उसके संचालन के विभिन्न नियमों का प्रतिपादन करता है। अपनी इस मान्यता को स्पष्ट करते हुए वह कहता है कि-
“यह पदार्थ जो बाहर से हमें जड़ या स्थिर दिखाई देता है, वास्तव में, जड़ या स्थिर नहीं है। यह पदार्थ अपनी आन्तरिक स्वचेतना या सक्रियता के कारण निरन्तर गतिशील है और उसकी यह गतिशीलता ही उसे निरन्तर ऊर्ध्व मुखी परिवर्तनशीलता की ओर उन्मुख किए हुए है। इसका एक क्रमिक प्रवाह है। “
इस प्रकार मार्क्स विचार की नहीं, पदार्थ की विकासशील शक्ति में विश्वास व्यक्त करते हुए उसके माध्यम से ही मानव समाज की परिवर्तन प्रक्रिया और विकास की गतिशीलता को सिद्ध करता है। पदार्थ उसके अनुसार स्वचेतन और गतिशील है और अपने में निहित अन्तर्द्वन्द्व के माध्यम से सतत् ऊर्ध्वमुखी विकास की ओर अग्रसर है। वैयक्तिक और सामाजिक विकास का यही मुख्य कारण है।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद- मार्क्स ने मानव-सभ्यता के ऐतिहासिक विकास को दर्शाने के लिए हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति को संशोधित कर उसमें ‘विचार’ के स्थान पर ‘पदार्थ’ को प्रस्थापित कर दिया। इस संशोधन को स्पष्ट करते हुए स्वयं मार्क्स का कथन है कि “हीगल के लेखन में द्वन्द्ववाद सिर के बल खड़ा है। यदि आप रचनात्मकता के आवरण में छिपे उसके सारे तत्व को देखना चाहते हैं तो आपको उसे पैरों के बल (अर्थात् भौतिक आधार पर) सीधा खड़ा करना पड़ेगा।” इस प्रकार मार्क्स ने भौतिकवाद का पुट देकर हीगल के द्वन्द्ववाद को शीर्षासन की अप्राकृतिक स्थिति से मुक्त कर दिया और उसे सामाजिक विश्लेषण का एक उपयोगी औजार बना दिया।
इसीलिए मार्क्स ने अपनी द्वन्द्वात्मक पद्धति को हीगल से भिन्न सिद्ध करते हुए स्वयं लिखा है कि ” मेरी द्वन्द्वात्मक पद्धति न केवल हीगलवादी पद्धति से भिन्न है वरन् वह बिल्कुल उसके विपरीत है। मैंने हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति को अपने सिर के बल खड़ा पाया, मैंने उसे •सीधा कर पैरों के बल खड़ा कर दिया।”
मार्क्स अपनी इस पद्धति को स्पष्ट करते हुए आगे कहता है कि “पदार्थ अर्थात् भौतिक जगत द्वन्द्वात्मक पद्धति के माध्यम से अपनी पूर्णता की यात्रा पर अग्रसर है। उसके विभिन्न रूप उसकी इस यात्रा के विभिन्न पड़ाव हैं।” अत: मार्क्स का भौतिकवाद अन्य भौतिकवादियों के भौतिकवाद की तरह से यान्त्रिक नहीं वरन् द्वन्द्वात्मक चरित्र का है। उसके अनुसार विकास पदार्थ का आन्तरिक गुण है, वाह्य नहीं। वह स्वत: होता है चाहे वाह्य वातावरण उसका सहायक हो या न हो। “
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर मार्क्स यह मत प्रतिपादित करता है कि विश्व अपने स्वभाव से ही पदार्थवादी है। अतः विश्व के विभिन्न रूप गतिशील पदार्थ के विकास के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह विकास द्वन्द्वात्मक पद्धति के माध्यम से होता है। अतः भौतिक विकास प्राथमिक महत्व का और आत्मिक विकास द्वितीय महत्व का है। वास्तव में, आत्मिक विकास भौतिक विकास का प्रतिबिम्ब मात्र है। इसी आधार पर वह यह कहता है कि-
‘मनुष्यों की चेतना उनके सामाजिक स्तर को निर्धारित नहीं करती है वरन् उनका सामाजिक स्तर उनकी चेतना को निर्धारित करता है। “
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के उपर्युक्त वर्णन के आधार पर हमें उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं-
1. आंगिक एकता- विश्व का चरित्र भौतिक है तथा उसकी वस्तुएँ और घटनाएँ एक दूसरे से पूर्णत: सम्बद्ध हैं। अत: उसके महत्व को निरपेक्षता के आधार पर नहीं, सापेक्षता के आधार पर ही समझा जा सकता है अर्थातृ प्रकृति के सभी पदार्थों में आंगिक एकता पायी जाती है।
2. गतिशीलता- प्रकृति में पाया जाने वाला प्रत्येक पदार्थ जड़ या स्थिर न होकर गतिशील होता है।
3. परिवर्तनशीलता- पदार्थिक शक्तियाँ सामाजिक विकास की प्रेरक शक्तियाँ हैं। ये गतिशल ही नहीं, परिवर्तनशील भी हैं। अत: सामाजिक विकास भी उन्हीं के अनुरूप परिवर्तनशील है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया द्वन्द्ववाद के माध्यम से चलती है।
4. परिमाणात्मक परिवर्तन गुणात्मक परिवतनों के कारक होते हैं- निरन्तर होने वाले परिवर्तन प्रारम्भ में परिमाणत्मक चरित्र के होते हैं तथा शनैः-शनै: घटित होते हैं तथा जब उनकी मात्रा बढ़ जाती है तो यकायक वे गुणात्मक परिवर्तन में बदल जाते हैं। गेहूँ का बीज इसका अच्छा उदाहरण है। गेहूँ के बीज को बोया जाना ‘वाद’ है। उसका अंकुरण ‘प्रतिवाद’ है। शनैः-शनै: गेहूँ के पौधे का बड़ा होना और उसकी बाली का पकना ‘संवाद’ है। गेहूँ के एक दाने से बाली के माध्यम से उसका बहुत से दाने में परिवर्तन उसके मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन का प्रतीक है। बीज रूप में गेहूँ का बोया जाना, उसका अंकुरण होना, उसका पौधा बनना तथा बाली पकना और एक से अनेक दाने हो जाना यह द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया का ही अच्छा उदाहरण नहीं वरन् मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन का भी एक अच्छा उदाहरण है जिससे हम द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रक्रिया को अच्छी तरह से समझ सकते हैं।
5. क्रांतिकारी प्रक्रिया- परिमाणात्मक परिवर्तन के गुणात्मक परिवर्तन में अभिव्यक्त होने की प्रक्रिया को एक क्रांतिकारी प्रक्रिया माना जाता है जो एक छालांग के रूप में होती है अर्थात् वह एक मौलिक परिवर्तन की निशानी होती है।
6. सकारात्मक-नकरात्मक संघर्ष- हर वस्तु में उसके विरोधी तत्व विद्यमान होते हैं जो समय पाकर अभिव्यक्त होते हैं। उनमें होने वाले संघर्ष से वह वस्तु नष्ट हो जाती है और नई वस्तु उसका स्थान ले लेती है जो पहले वाली वस्तु से अधिक विकसित होती है तथा जो विकास के क्रम की निरन्तरता को बनाए रखती है।
मार्क्स के अनुसार इस प्रकार कार्य करते हुए द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पद्धति विश्व तथा मानव सभ्यता के विकास को समझने में हमारे लिए एक पथ-प्रदर्शक सूत्र या यन्त्र का कार्य करती है।
द्वारा प्रतिपादित द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त की विभिन्न दृष्टिकोणों से आलोचना की गयी है, जो इस प्रकार है-
1. भौतिक तत्व निर्णायक तत्व नहीं- विश्व सभ्यता के विकास में मार्क्स भौतिकवादी तत्व अर्थात् पदार्थ कोनिर्णायक तत्व मानता है तथा यह प्रतिपादित करता है कि मानवीय चेतना उसी का परिणाम है। उसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है लेकिन यह मानना उचित नहीं है। मनुष्य सिर्फ एक भौतिक प्राणी ही नहीं, एक अतिरिक्त चेतनाशील प्राणी है। उसकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति जरूरी है लेकिन इसी से मनुष्य आत्म-सन्तुष्टि का अनुभव नहीं करता है। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद भी वह एक बाद अभाव अनुभव करता है। मनुष्य मूलतः एक भौतिक प्राणी है और आत्मिक उत्थान उसके जीवन का एक लक्ष्य है। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति सिर्फ वह भूमिका तैयार करती है जिस पर आसीन होकर मनुष्य अपनी मानवीय चेतना के कारण अपने आत्मिक उत्थान के लिए प्रयत्नशील होता है। अत: भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति उसके लिए एक साधन मात्र है, एक साध्य नहीं। साध्य तो उसका आत्मिक उत्थान ही है। अन्यथा मानव और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। “खाओ, पीओ और मौज करो” मनुष्य जीवन का सच्चा लक्ष्य नहीं है लेकिन भौतिकवाद इसे ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य प्रतिपादित करता है जो मूलतः एक गलत अवधारणा है।
2. एक समय विशेष में वाद, प्रतिवाद और संवाद का पता लगाना सम्भव नहीं – मनुष्य समाज का विकास एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया का प्रतीक है। विभिन्न तत्व ओर क्रियाएँ इस तरह आपस से में घुली मिली होती हैं कि उनका वाद, प्रतिवाद और संवाद में विभाजित करना कठिन ही नहीं, लगभग असम्भव होता है। विरोध और विरोध में निहित अन्तर-विरोध सामाजिक विकास को इतना जटिल बना देते हैं कि साधारण मनुष्य के लिए तो क्या अतिशय बुद्धिमान व्यक्तियों के लिए भी उसकी दशा-दिशा को ठीक प्रकार से समझ पाना और उसके अपने आचरण को निर्धारित करपाना एक कठिन ही नहीं, असम्भव सा कार्य है।
3. आदर्श के उपलब्ध होने पर भी नियम निष्क्रिय नहीं होगा- मार्क्स ने ‘वर्गविहीन- राज्यविहीन’ समाज की स्थपना पर द्वन्द्वात्मक नियम का निष्क्रिय होने का मत प्रतिपादित किया है लेकिन ऐसा सम्भव नहीं होगा। पदार्थ को मार्क्स गतिशील और परिवर्तनशील प्रकृति का बताता है। उसमें निहित अन्तर-विरोध उसे निरन्तर आदर्श स्थिति में नहीं बने रहने देगा। यह नियम एक निरन्तर सक्रिय रहने वाला नियम है अत: आदर्श को ये शनै: शनै: पतनशील बनाकर गुणात्मक परिवर्तन के कारण आदर्श की स्थिति में ले आएगा। आदर्श और अनादर्श का संघर्ष विश्व इतिहास का एक सनातन तथ्य है।
4. अत्यन्त गूढ़ विचार- द्वन्द्ववाद एक अत्यन्त गूढ़ एवं अस्पष्ट विचार है। मार्क्स की विचारधारा का यद्यपि यह एक आधारभूत सिद्धान्त है लेकिन उसने इसकी कहीं पर भी पूर्ण एवं स्पष्ट व्याख्या नहीं की है। इस ओर संकेत करते हुए वेपर का कथन है कि “द्वन्द्ववाद की अवधारणा अत्यन्त गूढ़ और अस्पष्ट है। यद्यपि मार्क्स और एंगेल्स के समस्त लेख का यह आधार है लेकिन इसे कहीं पर भी स्पष्ट नहीं किया गया है। अत: इस स्पष्टता से समझना विद्यार्थी के लिए एक अत्यधिक कठिन कार्य है।
5. द्वन्द्ववाद एक खतरनाक पद्धति- मार्क्स ने आर्थिक नियतिवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए यह बताया कि सामाजिक परिवर्तन में आर्थिक स्थितियाँ निर्णायक भूमिका का निर्वाह करती हैं। इसका सीधा-साधा अर्थ यह हुआ किं मनुष्य में अपने विकास क्रम को बदलने की सामर्थ्य नहीं है। यदि हम मार्क्स की इस मान्यता को स्वीकार कर लेते हैं तो इसका प्रत्यक्ष अर्थ यह होगा कि आर्थिक शक्तियों द्वारा समर्पित आदर्श के अतिरिक्त मनुष्य के अन्य सारे धार्मिक, नैतिक और आत्मिक आदर्श व्यर्थ हैं जबकि वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है।
6. मानव इतिहास उत्थान का ही इतिहास नहीं है- मार्क्स ने द्वन्द्ववादी सिद्धान्त के अनुसार यह बताया है कि विकास हमेशा ऊर्ध्वगामी होता है अर्थात् हमेशा यह मनुष्य समाज को प्रगति की दिशा में ले जाता है। यदि ऐसा होता तो आज मनुष्य समाज की जैसी स्थिति है, उससे उसकी स्थिति पूर्णत: भिन्न होती और उस आदर्श व्यवस्था अर्थात् वर्गविहीन राज्यविहीन समाज व्यवस्था की स्थापना कभी की हो गयी होती जिसकी व्याख्या मार्क्स ने अपने चिन्तन के माध्यम से की है लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
7. संघर्ष विकास का एकमात्र आधार नहीं- द्वन्द्ववाद के माध्यम से मार्क्स संघर्ष को विकास का एक मात्र आधार घोषित करता है। यह एक अर्द्ध-सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं। संघर्ष और सहयोग स्थिति अनुसार दोनों ही विकास के साधन हैं तथा इन दोनों के माध्यम से ही मनुष्य अपने आदर्शों को प्राप्त करने का प्रयास करता है तथा अतीत में भी करता आया है।
मूल्यांकन मार्क्स द्वारा प्रतिपादित भौतिकवादी द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त का उपर्युक्त आलोचनाओं के कारण महत्व को स्वीकार करने से इनकार नहीं किया जा सकता। अपनी सारी कमियों और कमजोरियों के बावजूद वह हमें सामाजिक प्रगति के स्वरूप और विकास को समझने हेतु एक पैमाना प्रदान करता है। चाहे वह पैमाना एकांगी चरित्र का ही हो लेकिन एक पैमाना एक मापदण्ड तो है ही। फिर पूर्ण सत्य कोई वस्तु नहीं होती। सभी पैमाने चाहे वे आदर्शवादी हो या भौतिकवादी, अपूर्ण है लेकिन फिर भीअपना महत्व रखते हैं, क्योंकि मनुष्य इन सभी पैमानों में समर्थ हो सकता है जो हमें आदर्श नहीं तो आदर्श के निकट अवश्य पहुँचा सकता है। हर पैमाने का यही महत्व है और इस दृष्टि से मार्क्स द्वारा प्रदत्त इस पैमाने का भी महत्व है। वह हमें देखने की एक दृष्टि देता है जिसका प्रयोग करके हम सम्पूर्ण को नहीं तो कम से कम उसके एक पक्ष को अवश्य देख सकते हैं।
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