युद्ध के कारणों का वर्णन कीजिए।
युद्ध के कारण
युद्ध के कारणों के सम्बन्ध में सभी विचारक एक मत नहीं है। प्रो. सिडनी बी. फे. ने प्रथम विश्वयुद्ध के कारणों का अध्ययन करते हुए युद्ध के पाँच कारण बताये गुप्त सन्धियों की व्यवस्था सैनिकवाद, राष्ट्रवाद, आर्थिक साम्राज्यवाद और प्रेस। क्विंंसीराइट ने कहा है कि, “युद्ध के राजनीतिक, तकनीकी, कानूनी-विचारात्मक, सामाजिक धार्मिक और मनोवैज्ञानिक-आर्थिक कारण होते है।” टेल. ए. टर्नर ने युद्ध के 41 कारण बताये हैं जिनका उसने चार भागों आर्थिक, राजवंशीय, धार्मिक और भावात्मक में बांटा।
प्रो. चार्ल्स हौज ने युद्ध के 21 कारण बतायें हैं जिनको उसने चार भागों में मुख्य रूप से इस प्रकार बाँटा है-
1. सामाजिक कारण- धार्मिक, नस्ली, सांस्कृतिक, उग्र राष्ट्रीय और मय।
2. राजनीतिक कारण- राजतन्त्रीय, घरेलू, राष्ट्रवादी, साम्राज्यवादी, कूटनीतिक और कानूनी।
3. सामाजिक कारण- भू-क्षेत्र, निःशस्त्रीकरण, शस्त्रीकरण, विश्व स्थिति और आवश्यक हित।
4. आर्थिक कारण- जनसंख्या, व्यापार नीति, विदेश नीति, क्षतिपूर्ति और तटस्थ अधिकार।
स्टीवन जे. रोजन तथा वाल्टर एस. जोन्स ने 1974 में प्रकाशित अपनी पुस्तक
में बहुत ही व्यवस्थित और तार्किक रूप से युद्ध के बारह कारणों का विवेचन किया है और इन्हें युद्ध के कारण के बारह सिद्धान्तों का नाम दिया है। ये बारह सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
1. शक्ति विषमता
2. राष्ट्रवाद, पृथकतावाद और भूमि अपहरणवाद
3. अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक डार्विनवाद
4. संचार असफलता और पारस्परिक सन्देहबोध
5. अनियन्त्रित शस्त्रास्त्र दौड़,
6. बाह्य संघर्ष के माध्यम से आन्तरिक एकीकरण की अभिवृद्धि
7. स्वतः प्रेरित आक्रमण, हिंसा के प्रति सांस्कृतिक रुझान और युद्ध शान्ति के चक्र,
8. आर्थिक और वैज्ञानिक उत्तेजनायें
9. सैनिक औद्योगिक समूह
10. सापेक्ष वचन एवं हरण
11. जनसंख्या की सीमा, एवं
12. संघर्ष संकल्प
युद्ध के उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त षड्यन्त्रों, छिपे उद्देश्यों तथा गुणी लोगों के प्रभाव के कारण भी युद्ध लड़े जाते हैं। स्टीड ने युद्ध के कारणों में ‘भय’ को प्रधान माना है। असुरक्षा की भावना निश्चय ही आज युद्ध का सबसे प्रमुख कारण है। आर्नोल्ड ब्रैक्ट ने लिखा है। कि राज्यों के बीच युद्ध होते हैं, इसका सबसे बड़ा प्रमुख कारण यह है कि विश्व में सम्प्रभु राज्य है।
युद्ध के अनेक कारण है लेकिन अध्ययन की सुविधा के लिये उन्हें निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-
1. मनोवैज्ञानिक कारण – कुछ मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि भय और असुरक्षा की तरह युद्ध भी मानव की प्रकृति का अंग है। दूसरों पर शासन करने की उसकी प्रवृत्ति संघर्ष को जन्म देती है। सिगमंड फ्रायड का मत है कि मनुष्य स्वभाव से ही बुराई, आक्रमणकारी, विनाश और दुष्टता की प्रतिमूर्ति है। उसके शब्दों में, मनुष्य केवल अच्छे और मित्रतापूर्ण स्वभाव वाले प्राणी ही नहीं जो केवल प्यार की इच्छा रखते हैं और जा आक्रमण की स्थिति में केवल अपनी सुरक्षा ही करते हैं बल्कि आक्रमण की इच्छा बहुत तीव्र मात्रा में उसके अन्दर ही होती है, जो उनकी सहज प्राकृतिक देन के भाग के रूप में मानी जानी चाहिए।”
2. आर्थिक कारण- कुछ विद्वान यह मानते हैं कि आर्थिक लाभों की इच्छा के कारण ही युद्ध होते हैं। लेनिन का मत था कि पूँजीवाद से साम्राज्यवाद बनता है और साम्राज्यवाद से युद्ध होता है। कुछ विद्वान यह धारणा रखते हैं कि युद्ध से आर्थिक लाभों की सम्भावना युद्ध का मुख्य और महत्वपूर्ण कारण होती है। परन्तु आधुनिक युद्ध के विनाशकारी स्वरूपों के कारणों को युद्ध का कारण नहीं माना जा सकता। युद्ध से तो दोनों पक्षों को हानि ही होती है।
3. सांस्कृतिक और विचारात्मक कारण- कुछ विचारक यह मानते हैं कि सांस्कृतिक और विचारात्मक मतभेद युद्ध के कारण हैं। वे भारत-पाक युद्ध को हिन्दू-मुसलमान युद्ध, अरब-इस्राइल युद्ध को मुसलमान यहूदी युद्ध, अफगानिस्तान पर अमरीकी आक्रमण को मुसलमान ईसाई युद्ध मानते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध लोकतन्त्र बनाम तानाशाही (फासीवाद और नाजीवाद), शीत युद्ध को लोकतन्त्र और साम्यवाद के मध्य विचारधारा का युद्ध था, परन्तु कई उदाहरण ऐसे भी हैं, जहाँ एक ही धर्म (ईरान-इराक युद्ध), इराक-कुवैत युद्ध या यूरोपीय राष्ट्रों में संघर्ष ऐसे ही उदाहरण है। इसलिये यह कहा जा सकता है कि युद्ध का कारण विचाराधात्मक मतभेद न होकर राष्ट्रीय हित होता है।
4. राजनीतिक कारण- राजनीतिक विवादों के कारण भी युद्ध होते हैं जैसे भारत-चीन युद्ध-1962, भारत-पाक युद्ध-1965। इन दोनों युद्धों में भारत की जमीन पर चीन और पाकिस्तान द्वारा कब्जा करने का प्रयास किया गया।
5. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की स्थिति- कुछ विचारक मानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का स्वरूप भी कभी-कभी युद्ध का कारण बनता है। उदाहरणार्थ- वर्साय की सन्धि 1919 के पश्चात् बनी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था ही मुख्य रूप से दूसरे विश्वयुद्ध का कारण बनी। पामर तथा पर्किन्स के शब्दों में, “वर्तमान परिस्थितियों में बहुत-सी कठिनाइयों का सम्बन्ध राष्ट्र राज्य व्यवस्था और साधारण रूप में समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के अराजकतावादी ढाँचे से हैं।”
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