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योग क्या है? योगासन का अर्थ, भेद, प्रकार, महत्व तथा उद्देश्य

योग क्या है? योगासन का अर्थ, भेद, महत्व, प्रकार, महत्व तथा उद्देश्य
योग क्या है? योगासन का अर्थ, भेद, महत्व, प्रकार, महत्व तथा उद्देश्य
योगासन क्या है? योगासन के प्रकार और उनसे होने वाले लाभ बताइये। 

योग क्या है? – दो वस्तुओं को मिलाना ही योग हैं। योग के कुछ प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं-

  1. प्राण तथा अपान को मिलाना- प्राण हृदय में स्थित है तथा अपान गुदा में स्थित होता है।
  2. शक्ति को सिर से मिलाना।
  3. आत्मा को परमात्मा से मिलाना।
  4. चन्द्र को सूर्य से मिलाना।

जो विज्ञान हमें इन सब बातों का ज्ञान कराता है वहीं योग विज्ञान है। योग विज्ञान को समझकर और योगासन करके हम अपने शरीर और मन की शुद्ध करते हैं।

योग की विभिन्ना परिभाषाएँ विभिन्ना विद्वानों ने विभिन्ना ढंग से दी है। शरीर और मन को एकाग्र करके परमात्मा को एक सुर होने के मार्ग को योग के नाम से जाना जाता है। एक अन्य विद्वान ने लिखा है, “योग वह क्रिया या साधन है जिसके द्वारा आत्मा परमात्मा से मिलती है।” महर्षि पातंजलि के अनुसार, “चित्त की वृत्ति का नाम योग है।” योग चित्त की वृत्तियों को रोकता है और मन की स्थिरता को प्राप्त कराता है। व्यास जी का मत है, “योग का अर्थ समाधि है।” श्रीमद् भगवत् गीता में लिखा है, “कर्मों में कुशलता ही योग है।” रामायण और महाभारत के अनुसार “योग मुक्ति प्राप्ति का साधन है।” डॉ. सम्पूर्णानन्द के अनुसार, “योग आध्यात्मिक कामधेनु है जिससे जो माँगों मिलता है।”

उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि योग से मानव शरीर स्वस्थ होता है, मन एकाग्र होता है और आत्मा एवं परमात्मा का मिलना आसान हो जाता है। योग विज्ञान के माध्यम से मानव अपने शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास करने में सफल होता है।

योग के अंग

महर्षि पातंजलि ने योग के 8 अंग बताए है जिनका परिचय यहाँ किया जा रहा है-

(1) यम- यम के अन्तर्गत अनुशासन और वे समस्त साधन सम्मिलित हैं जो मनुष्य के मन से सम्बन्धित है। यम के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आते हैं।

( 2 ) नियम- इसके अन्तर्गत वे ढंग सम्मिलित हैं जिनका सम्बन्ध मनुष्य के शारीरिक अनुशासन से होता है। शरीर और मन की शुद्धि, संतोष, दृढ़ता और ईश्वर में अटूट विश्वास नियम के अन्तर्गत आता है।

( 3 ) आसन- आसन शब्द से तात्पर्य है मानव शरीर को अधिक से अधिक समय के लिए विशेष स्थिति में रखना। उदाहरण के लिए रीढ़ की हड्डी को बिल्कुल सीधे रखकर टाँगों को किसी विशिष्ट दशा में रखकर बैठने की क्रिया को पद्मासन कहते हैं।

( 4 ) प्राणायम- प्राणायाम से तात्पर्य है कि स्थिर स्थान पर बैठकर किसी विशिष्ट विधि के अनुसार साँस को बाहर ले जाना और फिर बाहर निकालना।

( 5 ) प्रत्याहार- मन और इन्द्रियों को उनसे सम्बन्धित क्रिया से हटाकर ईश्वर की ओर लगाना प्रत्याहार है।

( 6 ) धारणा- धारणा से तात्पर्य है मन को किसी इच्छित विषय में लगाना। एक ओर ध्यान लगने से मनुष्य में महान शक्ति उत्पन्न होती है और उसके मन की इच्छा पूरी होती है।

(7) ध्यान- यह अवस्था धारणा से ऊँची है। इसमें व्यक्ति सांसारिक भटकनों से ऊपर उठकर अपने आप में अन्तर्ध्यान हो जाता है।

( 8 ) समाधि- समाधि के समय मनुष्य की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है। योग के प्रथम चार अंगों का अभ्यास सभी सांसारिक व्यक्ति करते हैं और अन्तिम चार अंगो अभ्यास )षि, मुनि और योगी करते हैं।

योग के भेद (अथवा प्रकार)

योग के प्रमुख भेद (प्रकार) निम्नलिखित हैं-

1. ज्ञान योगः ज्ञान और योग दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष है। ज्ञान के बिना योग अर्थहीन है और योग के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। ज्ञान योग के दो रूप होते सूक्ष्म तथा स्थूल।

(i) सूक्ष्म ज्ञान व्यक्ति को परोपकारी, सहिष्णु, साहसी, दयालु तथा आध्यात्मिक बना है। इस दृष्टि से देखने पर सूक्ष्म ज्ञान पूर्ण ज्ञान है। इससे आत्मा सबल होती है और बुद्धि में स्थिरता आती है।

(ii) स्थूल ज्ञान भौतिक ज्ञान होता है। यह मानव को सांसारिक कार्यों तथा उलझनों में डाले रखता है।

गीता में ज्ञान के लक्षणों के विषय में कहा गया है, “व्यक्ति प्रिय से प्रायः प्रसन्ना नहीं होता और अप्रिय वस्तु को पाकर खिन्ना नहीं होता, जिसकी बुद्धि स्थिर रहती है, उसी ज्ञानी को ब्रह्मा में स्थित हुआ समझना चाहिए।”

श्वेताश्वतरोपनिषद के अनुसार: “ज्ञान के बिना मुक्ति प्राप्त करने का दूसरा मार्ग नहीं है। ज्ञान एक ऐसा योग हैं जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कंचन के समान चमकीला और खरा बन जाता है।

( 2 ) भक्ति योगः भक्ति योग ईश्वर को प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग हैं। भक्ति में व्यक्ति परमात्मा के प्रति प्रेमभाव रखता है तथा अपना सब कुछ परमात्मा को समर्पित कर देता है। भक्ति मार्ग एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर साधारण व्यक्ति भी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। यह निम्न प्रकार से होता है

  1. किसी मन्दिर अथवा सत्संग स्थल पर पहुँचकर भक्ति में लीन हो जाना।
  2. दुख में भगवान का स्मरण करना दुःख समाप्त होने के बाद भूल न जाना ।
  3. दैनिक कर्म त्यागकर हर समय भगवान की भक्ति में लीन रहना ।

(3) सांख्य योगः यह भी एक योग का प्रकार है। इसके प्रवर्तक कपिल मुनि के अनुसार संसार पच्चीस तत्वों से मिलकर बना है। आत्मा का अन्त नहीं है वह निर्गुण, सूक्ष्म और चैतन्य है।”

(4) राज योगः राजयोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और अध्यात्मिक विकास पर विश्वास करता है। यह एक ऐसी प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें सभी अच्छी बाते आ जाती हैं।

(5) कर्मयोगः यह संसार कर्मक्षेत्र माना गया है। इसलिए प्रत्येक प्राणी को यहाँ आकर अनेक प्रकार के कर्म करने पड़ते हैं। जो व्यक्ति शास्त्र के विधान के अनुसार करता है उसका कर्म सत्कर्म कहलाता है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा हैं “कार्यों को त्यागने से न तो निष्कर्मता की प्राप्ति होती है और न भगवत् साक्षात्कार रूप सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है।” विद्वानों ने कर्म की गति को बहुत गम्भीर माना है। यह बात सत्य है कि कर्म करने का कुछ न कुछ फल तो अवश्य होता है। कर्मयोग का आचरण व्यक्ति का सदमार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

(6) ध्यान योगः ध्यान योग को सभी योगों से श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि इसके बिना कोई भी साधना नहीं हो सकती। ध्यान के बाद ध्यानस्थ व्यक्ति समाधि ही ध्यान है। विरक्षा संहिता में ध्यान में विषय में विचार प्रकट किए गये हैं-“जो अपने चित्त में आत्मचिन्तन करे, वह ध्यान कहलाता है। स्मृ धातु से चिन्तन शब्द बना है इसलिए चित्त में चिन्तन करना ही ध्यान है।”

महर्षि पतंजलि के अनुसार “तंत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्।” अर्थात् “जहाँ चित्त को ठहराया जाए, उसमें वृत्ति के जैसा बना रहना ही ध्यान है।” मनुष्य जिस कार्य के लिये अपने चित्त को जगाये ओर इधर-उधर न भटके, उसी को ध्यान कहते हैं। जब योगी अपने शरीर, प्राण तथा मन को वश में करके चित्तवृत्तयों को नियंत्रित कर लेता है तब यही स्थिति ध्यान कहलाती है। विद्वानों ने ध्यान के निम्न प्रकार बताये है- (i) सूक्ष्म ध्यान (ii) स्थूल ध्यान तथा (iii) ज्योतिर्मय ध्यान

(7) मंत्रयोगः इस योग में मंत्रों का उच्चारण करके और अपने इष्टदेव का नाम जपकर साधना की जाती है। मंत्रों को जपने से योगी को आत्मिक शान्ति मिलती है और शक्ति का अनुभव होता है। मंत्रों के उच्चारण से वायुमण्डल में एक कम्पन उत्पन्ना होता है और योगी को एक विशेष प्रकार की ऊर्जा प्राप्त होती है।

योगासन का अर्थ, भेद, महत्व

योगासन का अर्थः योगासन शब्द दो शब्दों ‘योग’ और ‘आसन’ से मिलकर बना हैं। ‘योग’ का अर्थ है आन्तरिक अस्तित्व के साथ एकाकार होना एवं उसका अनुभव प्राप्त करना। यह एकात्मकता तब आती है जब हम उस सर्वोच्च सत्ता में अपने शरीर और मन के दोहरेपन का विलय कर देते हैं। योग वह विज्ञान है जिसके द्वारा व्यक्ति सच्चाई की तरफ बढ़ता है। योगासन का चरम लक्ष्य सच्चाई प्राप्त करना है। योग धर्म नहीं है। यह वह साधन है जिसके माध्यम से हम अपनी गुप्त और सुप्त शक्तियों पर नियंत्रण कर पाते हैं। यह स्वयं के अस्तित्व को पूरी तरह जानने का एक साधन है, बाहरी दुनिया को करते हुए अपने विचारों की अर्न्तयात्रा द्वारा योगी यह साधना है। योग जीवन को इतना नियंत्रित तथा सन्तुष्ट बना देता है कि अन्तिम समय में मनुष्य को कोई दुःख नहीं होता तथा वह यह नहीं सोचता कि वह कितना कुछ अधूरा छोड़कर जा रहा है। योग शरीर के साथ-साथ मानसिक क्रियाकलापों की पुनर्शिक्षा है।

योग का शाब्दिक अर्थ होता है जोड़ना। इसका अर्थ है ब्रह्माण्ड की शक्ति अर्थात् ईश्वर के साथ व्यक्ति की आत्मा का गठबन्धन। योग शब्द संस्कृत की ‘युज’ धातु से लिया गया है जिसका अर्थ होता है जोड़ना, गठबन्धन करना, बाँधना तथा अपना ध्यान केन्द्रित करना। अतः योग हमारी इच्छा और ईश्वर की इच्छा का सच्चा गठबन्धन हैं।

महर्षि पंतजलि के अनुसार, ‘अपने चित्त (मन) की वृत्तियों पर नियंत्रण करना ही योग है।

आसन का अर्थ: ‘आसन’ से अभिप्राय शरीर की विशेष मुद्रा से है जिससे शरीर को स्थायित्व तथा मन को ठहराव मिलता है। आसन करने से नाड़ियों व आँतों में सफाई, शरीर में सबलता आती है तथा मन को शक्ति मिलती है। शरीर के आन्तरिक व बाहरी हिस्सों को तंदुरूस्त रखने में योगासन अच्छी क्रिया मानी जाती है। जब तक शरीर के आन्तरिक तथा बाह्य अंग अच्छी हालत में न हों तब तक कोई गतिविधि नहीं हो सकती। शरीर और मन में गहरा सम्बन्ध है। आसनों के अभ्यास से व्यक्ति की शारीरिक विकलांगताएँ तथा मानसिक कमियाँ दूर हो जाती हैं। यह शरीर मन और आत्मा का सम्पूर्ण संतुलन वाली अवस्था है। आसन को अर्थ है उस अवस्था में होना जहाँ प्रफुल्लित, शांत, आरामदायक शरीर व मन रहे। योगासन का अभ्यास इसलिए किया जाता है कि लम्बे समय तक, जैसे ध्यान में जरूरत होती है, कष्ट के बिना किसी विशेष शारीरिक मुद्रा में स्थिरता की योग्यता प्राप्त की जा सके। इस प्रकार “विशेष मुद्रा में शरीर में स्थिर कर अपने मन (चित्त) की वृत्तियों पर नियंत्रण करने की कला योगासन है।”

योगासन के प्रकार

इसके प्रमुख प्रकार निम्न हैं-

(1) सूर्य नमस्कार (2) पद्मासन (3) मत्स्यासन (4) वज्रासन (5) गोमुखासन (6) मण्डुकासन (7) सर्वांगासन (8) उर्ध्व संर्वागासन (9) शीर्षासन (10) मयूरासन।

योगासन का महत्व

योगासन मानव जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण है। यह मनुष्य को बीमारियों से लड़ने की शक्ति देता है और शरीर को स्वस्थ्य रखता है। योगासन का निम्नलिखित महत्व है।

  1. योगासन की क्रिया से शरीर में रक्त संचार सुचारू रूप से होता रहता है। जो स्वस्थ्य शरीर के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
  2. योगासन करने से शरीर की हट्टियाँ, मस्तिष्क, फेफड़े, यकृत, गुर्दे आदि का व्यायाम होता है जिससे ये स्वस्थ व क्रियाशील बने रहते हैं।
  3. योगासन द्वारा शरीर में लचक पैदा होती है जिससे व्यक्ति में फुर्तीलापन आता है।
  4. योगासन से न तो थकावट महसूस होती है और न ही अधिक शक्ति व्यय करनी पड़ती है। इसके विपरीत इसके द्वारा व्यक्ति को अधिक शक्ति प्राप्त होती है।
  5. योगासन व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
  6. योगासन द्वारा अनेक गम्भीर रोगों का निवारण होता है, कब्ज की शिकायत दूर होता है तथा स्मरण शक्ति बढ़ती है।
  7. योगासन से शरीर लोचदार होता है। इसके साथ ही स्फूर्ति, गति आदि में भी तीव्रता आती है।
  8. योगासन द्वारा शुद्ध वायु फेफड़ों में जाती है तथा जीवन शक्ति बढ़ती है।
  9. शरीर को संतुलित बनाने, मोटापा दूर करने आदि में योगासन बहुत उपयोगी है।
  10. इसके द्वारा मनुष्य का शारीरिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास होता है।
  11. योगासन करने से व्यक्ति की आयु लम्बी होती है, विकारों को शरीर के बाहर करने की अद्भुत शक्ति मिलती है तथा शरीर में कोशिकाएँ अधिक बनती हैं। और टूटती कम हैं।
  12. योगासन से मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है तथा व्यक्ति में अपनी इन्द्रियों को वश में करने की क्षमता विकसित होती है।
  13. योगासन में अधिक धन व्यय नहीं करना पड़ता है और न ही अधिक पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है।

योगासनों के उद्देश्य

योगासन के प्रमुख उद्देश्य निम्नवत् हैं- 

(1) योगासनों का लक्ष्य व्यक्ति को परम पिता परमात्मा की शक्ति से जोड़ना है। अतः योगाभ्यास जब हमें आध्यात्मिक की तरफ ले जाता है। तब हमें हमारी आत्मा तथा मस्तिष्क दोनों को शक्ति मिलती है।

(2) योगासनों के आचार्यो ने चरित्र चित्रण, नैतिकता तथा उचित व्यावहारिकता को सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य माना है। इस दृष्टि से योगासन से चरित्र निर्माण तथा जीवन में अनुशासन का लक्ष्य पूर्ण होता है।

(3) योगासन को प्रतिदिन करने से कार्यों को दिशा व्यवहार की प्रेरणा मिलती है क्योंकि जीवन के किसी लक्ष्य का उद्देश्य के आगे नहीं बढ़ सकते। जीवन में किसी भी व्यायाम अथवा योग में सफलता प्राप्त करने के लिये स्पष्ट तथा निश्चित उद्देश्य अथवा लक्ष्य का होता आवश्यक है इस दृष्टि से योगासन भारतीय जीवन दर्शन के अनुरूप है।

(4) योगासन के द्वारा मानव के शरीर तथा मन का सर्वांगीण विकास होता है। योगासन के प्रतिदिन करने से व्यक्ति में व्यक्तित्व का संतुलन, बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक पक्षों का एक समान विकास होता है।

(5) योगाभ्यास से व्यक्ति को जीवन के नियमों तथा विधियों का ज्ञान होता है। मानव अपने शरीर को हष्ट-पुष्ट बनाकर दीर्घ जीवन जीने की तैयारी करता है।

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Anjali Yadav

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