संगठन संरचना से आप क्या समझते है ? What do you mean by Organization Structure?
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संगठन संरचना (Organization Structure)
संगठन संरचना किसी संस्था का वह रूप है जिसमें उस संस्था की संगठन व्यवस्था को निश्चित किया जाता है। जिस प्रकार किसी संस्था की नीतियाँ उन सीमाओं को निश्चित करती हैं जिनके अन्तर्गत कार्यक्रमों एवं कार्यविधियों को निश्चित किया जाता है, ठीक उसी प्रकार संगठन संरचना उस प्रारूप का कार्य करती है। जिसके अनुसार उक्त संस्था के प्रशासनिक सम्बन्ध स्थापित एवं निश्चित किए जाते हैं। विभिन्न विद्वानों ने संगठन संरचना को इस प्रकार परिभाषित किया है।
एल्वर्स हेनरी एच के अनुसार, “संगठन संरचना एक ऐसा कलेवर है, जिसके अन्तर्गत प्रबन्धकीय एवं क्रियात्मक कार्य सम्पन्न किए जाते हैं।”
ए० डब्ल्यू० विक्सबर्ग के अनुसार, संरचना व्यक्तियों तथा समूहों के बीच विद्यमान सम्बन्धों का एक समूह है। “
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संगठन संरचना उपक्रम में की जाने वाली सभी संगठन क्रियाओं का परिणाम होती है। यह उस सीमा व क्षेत्र को निर्धारित करती है जिसके अन्तर्गत प्रबन्ध अपनी क्रियाओं को सम्पादित करता है।
संगठन संरचना के तत्व या लक्षण (Elements or Characteristics of Organisational Structure)
संगठन संरचना के प्रमुख लक्षण अथवा तत्व निम्नलिखित हैं-
- इसका निर्धारण प्रबन्धकीय निर्णयों के द्वारा होता है।
- इसका निर्धारण विशिष्टीकरण से भी सम्बन्धित है।
- यह संगठनात्मक व्यवहारों का एक औपचारिक ढाँचा है।
- यह व्यावसायिक क्रियाओं के निष्पादन तथा परिणामों की प्राप्ति का एक साधन है।
- यह कार्यभूमिकाओं, अधिकारों, पारस्परिक एवं औपचारिक सम्बन्धों का निर्धारण है।
- यह प्रशासनिक व्यवस्था में लम्बवत्, समतल एवं पार्श्विक कार्यकारी सम्बन्धों, कार्य प्रवाह एवं सहाय अंगों को दर्शाती है।
- यह संगठन के सम्बद्धकारी सम्बन्धों का मानचित्र है।
संगठन संरचना के सिद्धान्त (Principles of Organisation Structure)
प्रत्येक व्यवसाय या उपक्रम की सफलता एक कुशल संगठन पर निर्भर करती है जिस प्रकार नाव को चलाने के लिए पतवार की आवश्यकता होती है ठीक उसी प्रकार उपक्रम के प्रबन्धकीय कार्यों के निष्पादन के लिए कुशल संगठन संरचना का होना आवश्यक है। संगठन संरचना ही उपक्रम के आन्तरिक यन्त्र का सही चित्र प्रस्तुत करती हैं। इसके निर्माण का उद्देश्य कार्य का अविरल भाव, द्रुत संवहन, आपसी मधुर सम्बन्ध तथा समन्वित क्रियाओं को सुविधाजनक बनाना होता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संगठन संरचना का निर्माण करते समय निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) कारण-परिणाम का सिद्धान्त (Principle of Causation) – इस सिद्धान्त का दर्शन यह है कि व्यक्तियों के संगठित समूह का फलदायक प्रयत्न उनके व्यक्तिगत प्रयत्नों के योग से अधिक होता है अर्थात् जो कार्य अलग-अलग किया जाता है। उसके परिणामों से यदि उस कार्य को मिलकर किया जाए तो सदैव उत्तम होंगे। उदाहरण के लिए यदि राम, हरि व श्याम अलग-अलग काम करते हैं तो उनके कार्यों का परिणाम हमेशा उस परिणाम से कम होगा, जो ये तीनों मिलकर सम्पादित करते हैं।
(2) दृढ विश्वास का सिद्धान्त (Principle of Firm Determination) – किसी भी उपक्रम की सफलता में उसके कर्मचारियों का दृढ़ विश्वास निहित है। दृढ़ विश्वास वह प्रक्रिया है जो संगठन के कर्मचारियों में कार्य तथा संस्था के प्रति भक्ति की भावना जागृत करता है। संरचना की प्रत्येक धमनी में इस दृढ़ विश्वास की श्वास होनी चाहिए और कर्मचारियों में इसे भली-भाँति पैदा करना चाहिए।
(3) उद्देश्य का सिद्धान्त (Principle of Objective) – संगठन संरचना का निर्माण उपक्रम के मूल उद्देश्यों को ध्यान में रखकर करना चाहिए तथा प्रत्येक विभाग का मुख्य ध्येय अपने लक्ष्य को प्राप्त करना होना चाहिए।
(4) निर्देशन व नियन्त्रण का सिद्धान्त (Principle of Direction and Control) – प्रभावी नियन्त्रण व्यवस्था व कर्मचारी के कार्यों का यथोचित निर्देशन सफल संगठन का मूल मन्त्र है। अच्छा नियन्त्रण व निर्देशन कुशल नेतृत्व करता है। नेतृत्व को सफल बनाने में इस बात का बड़ा प्रभाव पड़ता है कि संगठन किस सीमा तक उसे विकसित होने का अवसर प्रदान करता है। इसी प्रकार नियन्त्रण इस बात पर निर्भर करता है कि कर्मचारियों को किस प्रकार की अभिप्रेरणाएँ प्रदान की जाती हैं ।
(5) प्रमापीकरण का सिद्धान्त (Principle of Standardization) – नित्यप्रति और बार-बार की जाने वाली क्रियाओं के लिए प्रमापीकरण नितान्त आवश्यक है। इससे समय और लागत में बचत होती है तथा निर्मित वस्तुओं के गुणों में सुधार होता है।
(6) अधिकार का सिद्धान्त (Principle of Authority) – अधिकार हृदय के समान हैं जो संगठन को गति प्रदान करता है। अधिकार को प्रभावी बनाने के लिए निम्न क्रियाएँ करनी होती हैं- (i) यथासम्भव अधिकार स्तरों को कम रखना चाहिए, (ii) कार्य, बिन्दु एवं स्थान बिन्दु समीप होने चाहिएँ, (iii) नियन्त्रण क्षेत्र संकुचित रखना चाहिए, (iv) अधिकार के दोहरे क्षेत्र को न्यूनतम रखना चाहिए, (v) अधिकार त्यागने योग्य नहीं होने चाहिएँ ।
(7) दायित्व का सिद्धान्त (Principle of Liability)- यह सिद्धान्त अधिकार के सिद्धान्त का प्रतिरूप होता है। अधिकार से जुड़े हुए कर्तव्य व कार्य को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहिए और अधिकार भी सीमा के अनुकूल होना चाहिए।
(8) श्रम विभाजन का सिद्धान्त (Principle of Division of Labour ) – इस सिद्धान्त का सार यह है। कि कार्य को विभाग और उप-विभागों में बाँटा जाए जिससे श्रमिक को कम कार्य करना पड़े तथा उसकी योग्यता का कार्य उसे मिल जाए, तभी उपक्रम अपने अन्तिम लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त कर सकेगा।
(9) प्रत्यावर्तन का नियम (Principle of Delegation)- संगठन संरचना के निर्माण में प्रत्यावर्तन के सिद्धान्त को भी ध्यान में रखना चाहिए। प्रत्यावर्तन द्वारा कर्मचारियों से अधिक से अधिक कार्य उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से लिया जा सकता प्रत्यावर्तन को लागू करने के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए (i) प्रत्यावर्तन करने वाले को उसका अधिकार होना चाहिए, (ii) प्रत्यावर्तन जिस व्यक्ति को किया जाए वह कार्य के योग्य हो तथा (iii) प्रत्यावर्तन के साथ उचित अधिकार व दायित्व भी होने चाहिएँ।
(10) सन्तुलन का सिद्धान्त (Principle of Balance)- जब संगठन संरचना का पूर्ण विकास हो जाए तो यह देखा चाहिए कि विभिन्न स्तरों, विभागों, कार्यों व कर्मचारी समूह में उचित ढंग से सन्तुलन है या नहीं अर्थात् असन्तुलन व त्रुटिपूर्ण संगठन संरचना को लागू होने से रोकना ही इस सिद्धान्त का मुख्य ध्येय होता है ।
(11) व्यक्तिकरण का सिद्धान्त (Principle of Personification) – संगठन संरचना का निर्माण करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि वह न तो अधिक कठोर हो और न ही यन्त्रवत् बल्कि उसमें सरलता एवं मधुरता होनी चाहिए। कर्मचारियों में व्यक्तिकरण से उसमें मनोबल एवं अभिप्रेरणा का विकास होता है जो अन्ततोगत्वा संस्था की निधि है।
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