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समन्वयात्मक सम्प्रदाय | Synthetic School in Hindi

समन्वयात्मक सम्प्रदाय | Synthetic School in Hindi
समन्वयात्मक सम्प्रदाय | Synthetic School in Hindi

समन्वयात्मक सम्प्रदाय (Synthetic School)

इस सम्प्रदाय के प्रमुख समर्थक दुर्खीम, सोरोकिन, जिन्सबर्ग, हॉबहाउस, लेस्टर वार्ड आदि हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र विशिष्ट विज्ञान न होकर एक सामान्य विज्ञान है। समाज का प्रत्येक भाग आपस में सम्बन्धित है। यदि उसके किसी एक भाग में परिवर्तन होता है तो उसका प्रभाव सारे समाज पर पड़ता है। अतएव सारे समाज का अध्ययन करना आवश्यक है। इस अध्ययन को अन्य सामाजिक विज्ञान, जैसे अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र आदि, अधिक समृद्ध बना सकते हैं। सामाजिक जीवन न केवल आर्थिक और राजनीति पक्ष पर ही आधारित है, अपितु इन अन्तःसम्बन्धों से सामाजिक जीवन में पूर्णतः भी आती है। इसलिए समाजशास्त्र को इन अन्तःसम्बन्धों का अध्ययन करके सम्पूर्ण सामाजिक जीवन का सामान्य ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। इन विद्वानों के मतानुसार समाजशास्त्र समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक आदि समस्त पक्षों का अध्ययन और विवेचन करने वाला विज्ञान है। इसी आधार पर इस सम्प्रदाय को समन्वयात्मक सम्प्रदाय कहा जाता है। समन्वयात्मक सम्प्रदाय को अधिक स्पष्ट जानने के लिए इसके समर्थक विद्वानों के विचार प्रस्तुत हैं-

1. वार्ड (Ward) – लेस्टर वार्ड के अनुसार, जिस प्रकार रसायनशास्त्र में दो वस्तुओं को मिला देने से एक नई वस्तु का जन्म होता है और उसका अध्ययन रसायनशास्त्र करता है, उसी प्रकार समाजशास्त्र ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का समन्वय मात्र है । समाज का निर्माण करने वाले समूह तथा संस्थाएँ आदि परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, जिसके कारण एक में हुआ परिवर्तन दूसरों पर प्रभाव डालता है। इसी प्रकार, समाजशास्त्र का आधार अन्य सामाजिक विज्ञानों के परिणाम है। अतएव समाजशास्त्र को विभिन्न सामाजिक विज्ञानों से प्राप्त केन्द्रीय विचारों का समन्वय तथा अध्ययन करना चाहिए।

2. दुर्खीम (Durkhcim) – इमाइल दुर्खीम ने समाजशास्त्र को परिभाषित करते हुए कहा है कि, “समाजशास्त्र सामूहिक प्रतिनिधित्वों (प्रतिनिधानों) का विज्ञान है।” प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे विचार, धारणाएँ और भावनाएँ होती हैं, जोकि सामाजिक अन्तर्क्रिया के समय व्यक्तिगत चेतना के पारस्परिक प्रभावों के कारण स्पष्ट हो जाती हैं और जीवन में सामने आने लगती हैं। इसी कारण समाज के अधिकांश सदस्य उसे अपना लेते हैं तथा इनका विकास सामाजिक प्रतीकों के रूप में हो जाता है। चूँकि इन प्रतीकों को समाज के अधिकांश सदस्य मानते हैं, इसलिए ये सामूहिक रूप से समस्त समूह के विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समाजशास्त्र को सामूहिक प्रतिनिधित्वों को अपने विषय-क्षेत्र में सम्मिलित करना चाहिए।

3. सोरोकिन (Sorokin) – पिटिरिम सोरोकिन ने समन्वयात्मक आधार पर समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को समझाने का प्रयत्न किया है। समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र पर सोरोकिन ने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि, “यदि सामाजिक पटनाओं को वर्गों में विभाजित किया जाए और विशेष सामाजिक विज्ञान प्रत्येक वर्ग का अध्ययन करे तो इन विशेष सामाजिक विज्ञानों के अलावा एक ऐसे विज्ञान की आवश्यकता होगी, जो सामान्य एवं विभिन्न विज्ञानों के सम्बन्धों का अध्ययन करे।” सोरोकिन का विचार है कि प्रत्येक विज्ञान में कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं, जिनका अध्ययन समाजशास्त्र में समन्वय के आधार पर तीन प्रकार से किया जा सकता है—(i) समाज में घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं के सम्बन्धों तथा सहसम्बन्धों का अध्ययन करना, (ii) सामाजिक व असामाजिक दोनों प्रकार की घटनाओं के सहसम्बन्धों का अध्ययन करना तथा (iii) इन सामाजिक घटनाओं में निहित सामान्य विशेषताओं का भी अध्ययन करना।

4. हॉचहाउस (Hobhouse)- हॉबहाउस का दृष्टिकोण भी समन्वयात्मक है। हॉवहाउस के अनुसार, विभिन्न विनी का अध्ययन इस प्रकार से किया जाना अनिवार्य है, जिसमें कि उनके सिद्धान्तों में समन्वय सम्भव हो जाए। समाजशास्त्र सामान्य जीवन का अध्ययन उसी समय कर सकता है, जब समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों के आधारभूत विचारों का अध्ययन करे या सामान्य केन्द्रीय धारणाओं को खोजने का प्रयत्न करे। इसलिए समाजशास्त्र अपने को विशेष प्रकार के सम्बन्धों तक सीमित नहीं रख सकता।

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Anjali Yadav

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