समाजशास्त्र एवं निर्देशन / SOCIOLOGY & GUIDANCE TOPICS

समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र | स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टवादी दृष्टिकोण | स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना

समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र | स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टवादी दृष्टिकोण | स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना
समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र | स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टवादी दृष्टिकोण | स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना

समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र क्या है ? विस्तार से समझाइये।

समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र (Scope of Sociology)

प्रत्येक सामाजिक विज्ञान व्यक्तियों के सामाजिक जीवन को तथा विभिन्न घटनाओं को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए, अर्थशास्त्र आर्थिक दृष्टिकोण से, राजनीतिशास्त्र राजनीतिक दृष्टिकोण से, मनोविज्ञान मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से तथा समाजशास्त्र सामाजिक दृष्टिकोण से घटनाओं का अध्ययन करते हैं। विभिन्न दृष्टिकोण होने के बावजूद किसी भी सामाजिक विज्ञान का विषय-क्षेत्र निर्धारित करना एक कठिन कार्य है। एक आधुनिक विज्ञान होने के नाते समाजशास्त्र में यह कठिनाई अन्य विज्ञानों की अपेक्षा कहीं अधिक है। कालवर्टन के शब्दों में, समाजशास क्योंकि लचीला विज्ञान है, अतः यह निश्चित करना पूर्ण रूप से कठिन कार्य है कि इसकी सीमा कहाँ से प्रारम्भ होती है, कहाँ समाजशास्त्र मनोविज्ञान तथा कहाँ मनोविज्ञान समाजशास्त्र बन जाता है अथवा जैविक सिद्धान्त समाजशास्त्रीय सिद्धान बन जाता है।

समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र के बारे में प्रमुख विद्वानों में एक मत नहीं है। इसके बारे में हमारे सामने निम्नांकित दो प्रमुख दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं-

स्वरूपात्मक अथवा विशिष्टवादी दृष्टिकोण (Formalistic or Specialistic School)

इस सम्प्रदाय के प्रमुख प्रणेता तथा समर्थक जार्ज सिमेल, वीरकान्त, वॉन वीज, मैक्स वेवर, टॉनीज आदि विद्वान् है। इन विद्वानों के दृष्टिकोण में समाजशास्त्र स्वतन्त्र, विशिष्ट एवं शुद्ध विज्ञान है। इसका प्रमुख लक्ष्य मानवीय सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन करना है। इस सम्प्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों की रखता तुलना है । अन्य सामाजिक विज्ञान वही अध्ययन नहीं करते हैं, जो समाजशास्त्र करता है। दूसरे सामाजिक विज्ञान के पृथक अस्तित्व अध्ययन का लक्ष्य अन्तर्वस्तु (Content) को समझना है, जबकि समाजशास्त्र स्वरूपों (Forms) का अध्ययन करता है। इन विद्वानों ने स्वरूपात्मक पक्ष को अत्यधिक महत्व दिया है। इसी कारण, इस सम्प्रदाय का नाम स्वरूपात्मक सम्प्रदाय पड़ा है। स्वरूपात्मक सम्प्रदाय को स्पष्ट रूप से जानने के लिए इसके प्रमुख समर्थकों के विचार नीचे प्रस्तुत हैं-

1. स्माल (Small) – स्माल यह मानते हैं कि समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का विशिष्ट अध्ययन है। इनका मत जार्ज सिमेल के मत से मिलता-जुलता है। उनका कहना है कि समाजशास्त्र का कार्य सामाजिक सम्बन्धों और व्यवहारों या क्रियाओं के मूल रूप का विशिष्ट अध्ययन करना मात्र है न कि समाज में होने वाली प्रत्येक घटना अथवा क्रिया का |

2. वेबर (Weber) – मैक्स वेबर समाजशास्त्र के क्षेत्र को निश्चित व स्पष्ट करने के पक्ष में थे। इनके अनुसार समाजशास्त्र का उद्देश्य सामाजिक व्यवहार का विवेचन करना तथा समझना है। इसका अर्थ यह हुआ कि सभी प्रकार के व्यवहार सामाजिक नहीं होते हैं। इसलिए आवश्यक है कि समाजशास्त्र सामाजिक क्रिया का अध्ययन करे। सामाजिक क्रिया वह क्रिया है, जो समाज के अन्य सदस्यों से प्रभावित होती है। प्रत्येक सामाजिक क्रिया में कुछ अर्थ निहित होता है। इस कारण समाजशास्त्र को सामाजिक क्रिया का अध्ययन करना चाहिए।

3. सिमेल (Simmel) – जार्ज सिमेल के दृष्टिकोण में स्वरूपों तथा अन्तर्वस्तु का पृथक्-पृथक् अस्तित्व है। इन्होंने सामाजिक सम्बन्धों को भी दो वर्गों में बाँटा है—(i) स्वरूप, तथा (ii) अन्तर्वस्तु । सिमेल यह मानते हैं कि सामाजिक सम्बन्धों का स्वरूप होता है और इसी स्वरूप का अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाना चाहिए। दूसरे सामाजिक विज्ञान का अध्ययन करते हैं।

4. वॉन वीज (Von Wiesc)- वॉन वीज समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को अधिक संकुचित करते हुए कहते हैं कि इसका विषय-क्षेत्र केवल सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन तक ही सीमित रहना चाहिए।

5. वीरकान्त (Vierkant) – वीरकान्त भी समाजशास्त्र को विशिष्ट विज्ञान मानते हैं। इनके अनुसार समाजशाल को मानसिक सम्बन्धों के उन स्वरूपों का अध्ययन करना चाहिए, जो एक-दूसरे को बाँधते हैं। वीरकान्त के अनुसार ये मानसिक सम्बन्ध प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, ममता, सम्मान आदि में व्यक्त होते हैं।

स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना (Criticism of the Formalistic School)

अनेक विद्वानों ने स्वरूपात्मक सम्प्रदाय की आलोचना की है। आलोचना के प्रमुख आधार इस प्रकार हैं-

1. मानवीय सम्बन्धों के स्वरूपों और अन्तर्वस्तुओं की अलग-अलग कल्पना भ्रमपूर्ण है। सामाजिक घटनाओं को अन्तर्वस्तु में परिवर्तन के साथ-साथ स्वरूप में भी परिवर्तन हो जाता है। सोरोकिन (Sorokin) ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि “हम एक गिलास को उसके स्वरूप को बदले बिना शराब, पानी और शक्कर से भर सकते हैं, परन्तु मैं किसी ऐसी साजिक संस्था की कल्पना भी नहीं कर सकता, जिसका स्वरूप सदस्यों के बदलने पर भी न बदले।”

(2) इस सम्प्रदाय ने समाजशास्त्र के विषय-क्षेत्र को अन्य विज्ञान से पूर्णतः अलग कर प्रस्तुत किया है। वास्तव में, प्रत्येक विज्ञान को, यहाँ तक कि प्राकृतिक विज्ञान को भी, दूसरे विज्ञानों से सहायता लेना आवश्यक होता है।

(3) यह दावा करना निराधार है कि सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों का अध्ययन किसी भी अन्य सामाजिक विज्ञान के द्वारा नहीं किया जाता। उदाहरणार्थ, विधि विज्ञान (Science of law) में सामाजिक सम्बन्धों के अनेक स्वरूपों जैसे सत्ता, संघर्ष, स्वामित्व आदि का स्पष्ट रूप से अध्ययन किया जाता है।

(4) इस सम्प्रदाय ने अमूर्तता पर जो ज्यादा जोर दिया है, यह वैज्ञानिक है। इस सम्बन्ध में राष्ट्र (Wright) के अनुसार, यदि सामाजिक सम्बन्धों का सूक्ष्म एवं अमूर्त रूप में अध्ययन किया जाए तो यह समाजशास्त्र के लिए लाभदायक नहीं होगा।

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Anjali Yadav

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