हेगेल के इतिहास दर्शन की विवेचना कीजिए ।
जी.डब्ल्यू.एफ. हेगेल (1770-1831) उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक था। हेगेल का चिंतन उसकी अनेक दार्शनिक कृतियों में निहित है। उसका राजनीतिक चिंतन मुख्यत: ‘फिलॉसफी ऑफ राइट’ (सत्य दर्शन) (1821) के अंतर्गत मिलता है। राजनीतिक चिंतन के इतिहास में हेगेल का मुख्य योगदान उसके इतिहास-दर्शन, नागरिक समाज और राज्य तथा स्वतंत्रता की संकल्पनाओं के क्षेत्र में है।
हेगेल का इतिहास-दर्शन- हेगेल का विश्वास था कि इतिहास एक निरंतर विकास की प्रक्रिया है जिसकी मूल प्रेरणा विवेक चेतना या चेतन तत्त्व है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत चेतन तत्त्व अपने परम लक्ष्य, अर्थात् परम चैतन्य अथवा परम सत्य की ओर अग्रसर होता है। यह प्रक्रिया अपने अंतर्निहित नियमों से बंधी है जिसे बाहर से नियंत्रित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता। इस मान्यता के आधार पर हेगेल ने व्यक्तिवाद के दार्शनिक आधार पर प्रहार किया जो इस मान्यता पर आधारित था कि मनुष्य अपने चंचल चित्त की इच्छा के अनुसार समाज को मनचाहे रूप में ढाल सकते हैं। हेगेल के अनुसार, केवल तर्कबुद्धि या विवेक से ही इतिहास को संचालित करने वाली यथार्थ शक्तियों का पता लगा सकते हैं और इस प्रक्रिया की अनवार्यता को समझ सकते हैं।
हेगेल के अनुसार प्रत्यय या विचार सृष्टि का सार तत्त्व है, अतः विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया शुरू से अंत तक प्रत्ययों या विचारों के उत्थान-पतन की कहानी है जिनका मूर्त रूप सामाजिक संस्थाओं के उदय और अस्त में देखने को मिलता है। जब तक यह प्रक्रिया अपने चरम लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाती, तब तक कोई भी स्थिति स्थिर नहीं रह पाती। इसका अर्थ यह है कि आज जिस स्थिति का अस्तित्त्व है, वह कालांतर में समाप्त हो जाएगी। हेगेल का विचार है कि सारा सामाजिक परिवर्तन और विकास परस्पर विरोधी तत्त्वों या विचारों के संघर्ष का परिणाम है। इस पद्धति को द्वंद्वात्मक पद्धति कहा जाता है जो हेगेल के प्रत्ययवाद के साथ निकट से जुड़ी है। द्वंद्वात्मक पद्धति का अर्थ है, वह प्रक्रिया जिसके द्वारा बौद्धिक वाद-विवाद के अंतर्गत विचारों का निर्माण और स्पष्टीकरण होता है। इसके अनुसार, प्रत्यय या विचार द्वंद्वात्मक मार्ग पर अग्रसर होता है, जिसका अर्थ ‘निषेध का नेषेध’ है। परस्पर विरोधी विचारों का द्वंद्व ही संपूर्ण प्रगति की कुंजी है।
इस तरह सामाजिक परिवर्तन या विकास की प्रक्रिया तीन अवस्थाओं में सम्पन्न होती है, और जब तक वह पूर्णात्व की स्थिति में नहीं पहुँच जाती तब तक यह प्रक्रिया अपने-आपको दोहराती चलती है। ये अवस्थाएँ हैं: पक्ष या वाद, प्रतिपक्ष या प्रतिवाद और संपक्ष या संवाद शुरू-शुरू में ‘पक्ष’ का अस्तित्व होता है जो पूर्णतः सत्य नहीं होता। चूंकि सत्य का स्वरूप ही स्थायी और स्थिर है, इसलिए ‘पक्ष’ स्वभावतः अस्थिर होता है। परिणामत: उसका विपरीत रूप ‘प्रतिपक्ष’ अपने-आप अस्तित्व में आ जाता है। यह ‘प्रतिपक्ष’ भी पूर्णतः सत्य नहीं हो सकता। चूंकि ‘पक्ष’ और ‘प्रतिपक्ष’ परस्पर-विरोधी प्रवृत्तियों के प्रतीक है, इसलिए इनमें तनाव और टकराव पैदा होता है जिसमें वे यथ शक्ति एक-दूसरे के उन अंशों को नष्ट कर देते हैं जो असत्य होते हैं। इस संघर्ष वे अंश बच जाते हैं जो ‘पक्ष’ और ‘प्रतिपक्ष’ दोनों की तुना में सत्य के निकट होते हैं। इनके संयोग से ‘संपक्ष’ का जन्म होता है इस तरह परिवर्तन का एक चक्र पूरा होता है।
‘पक्ष’ और ‘प्रतिपक्ष’ दोनों की तुलना में ‘संपक्ष’ सत्य के निकट होता है परन्तु वह भी पूर्णतः सत्य नहीं होता, इसलिए वह भी अस्थिर सिद्ध होता है। दूसरे शब्दों में, ‘संपक्ष’ स्वयं नए ‘पक्ष का रूप धारण कर लेता है, और फिर क्रमश: नए ‘प्रतिपक्ष’ और ‘संपक्ष’ का आविर्भाव होता है यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक समाज ‘परम सत्य’ या ‘परम चैतन्य’ की स्थति में पहुँच कर स्थिर नहीं हो जाता। हेगेल ने राष्ट्र-राज्य को- विशेषत: पश्चिमी यूरोप के उत्कालीन राज्य को ‘परम चैतन्य’ का प्रतिरूप मानते हुए उसे मानव-इतिहास की चरम परिणति वीकार किया है। पश्चिमी सभ्यता के इतिहास से अपने सिद्धान्त को प्रमाणित करते हुए हेगेल ने लिखा है कि यूनानी नगर-राज्य अपने सृजनात्मक दौर में पहली अवस्था का प्रतिनिधित्व करता या; सुकरात और मसीही धर्म दूसरी अवस्था के प्रतिनिध थे; प्रोटेस्टेंटवाद तथा धर्म-सुधार के राथ जर्मन राष्ट्रों का उदय तीसरी अवस्था का संकेत देते हैं।
हेगेल की ऐतिहासिक व्याख्या के अनुसार राष्ट्र ही इतिहास की सार्थक इकाई है, व्यक्ति या उनके कोई अन्य समूह नहीं। दर्शन का ध्येय द्वंद्वात्मक पद्धति के माध्यम से यह यष्ट करना है कि एक उदीयमान विश्व सभ्यता के हिस्से के रूप में प्रत्येक राष्ट्र क्या-क्या भूमिका नभाता है ? राष्ट्र की प्रतिभा या चेतना व्यक्तियों के माध्यम से कार्य तो करती है, परन्तु वह उनकी अच्छा या प्रयोजन से नहीं बँधी होती। राष्ट्र की यही चेतना कला, कानून, नैतिक आदर्शों और धर्म का सृजन करती है। अतः सभ्यता का इतिहास राष्ट्रीय संस्कृतियों की श्रृंखला है जिसमें प्रत्येक राष्ट्र सम्पूर्ण मानवीय उपलब्धि में अपना-अपना विलक्षण और समयोचित योग देता है। केवल पश्चिमी यूरोप के आधुनिक इतिहास में ही राष्ट्र की सहज सृजनात्मक प्रेरणा आत्मचेतन और विवेक सम्मत अभिव्यक्ति की स्थिति में पहुँची है। अतः राज्य राष्ट्रीय विकास की चरम परिणति है। हेगेल के शब्दों में, ‘राज्य धरती पर ईश्वर की शोभा-यात्रा है।’ अतः हेगेल तत्कालीन जर्मनी के उभरते हुए राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकीकरण की शक्तियों को मानव-इतिहास की बहुत बड़ी देन मानता है। इस तरह हेगेल ने राष्ट्र-राज्य को द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति का आवश्यक परिणाम माना है, हालांकि इन दोनों में कोई तर्कसंगत सम्बन्ध नहीं था। हेगेल ने तरह-तरह के सामाजिक और राजनीतिक समूहों में से राष्ट्र-राज्यों के परस्पर तनाव को ही आधुनिक इतिहास की प्रेरणा- शक्ति के रूप में क्यों चुना-इसका कोई तर्कसंगत आधार नहीं था। कार्ल मार्क्स (1818-83) ने हेगेल की द्वंद्वात्मक तर्क-पद्धति का अनुसरण करते हुए सामाजिक वर्गों सामाजिक वर्गों के संघर्ष को इतिहास की प्रेरणा- शक्ति मानकर ‘वर्गहीन समाज’ को इतिहास की चरम परिणति स्वीकार किया, और राष्ट्र-राज्य की भूमिका को नगण्य बना दिया। दूसरी ओर, राष्ट्र-राज्य के गुणगान के सिद्धान्त को एक विकृत रूप में ढालकर फासिस्टवाद ने व्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन का अस्त्र बना दिया।
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