1986 राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रतिपादित राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की व्याख्या कीजिए।
देश के स्वतन्त्र होने के पश्चात् राष्ट्रीय शिक्षा के स्वरूप तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आवश्यकता की दिशा में पहले राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी कमीशन) ने पहली बार विचार किया और 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रस्तावित की। यह चौथे दशक की समाप्ति पर तीव्रतर हुई। संयोगों तथा विद्यमान सामाजिक संघर्षों ने जनता सरकार का गठन किया और उसने भी लक्ष्यों का निर्धारण कर 1979 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का भारतीय विकल्प प्रस्तुत किया। शिक्षा की चुनौती नीति के परिप्रेक्ष्य में दस्तावेज जारी करके राष्ट्रव्यापी बहस करवाई गयी। इस बात का परिणाम है नयी शिक्षा नीति ।
भारत सरकार ने राष्ट्र विकास के व्यापक एवं महत्वपूर्ण संकल्प की पूर्ति के लिए 1986 में नयी शिक्षा नीति प्रकाशित की। इस नीति में यह तथ्य अपनाये गये-
(1) शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली- नयी शिक्षा नीति में इस बात पर बल दिया गया है कि राष्ट्र के विकास के लिए शिक्षा के सभी स्तरों पर एक जैसी शिक्षा प्रणाली लागू होनी चाहिए।
(2) शिक्षा और समानता- समाज के विभिन्न वर्गों में शिक्षा की भिन्नतायें पायी जाती है। इन असमानताओं को दूर करने के लिए अनेक उपाय इन क्षेत्रों में किये गये हैं।
(3) शिक्षा की भूमिका और तत्व- राष्ट्रीय सन्दर्भ में शिक्षा सभी के लिए आवश्यक है, राष्ट्र के भावी नागरिकों के सर्वांगीण विकास का यह आधार है। शिक्षा सांस्कृतिक सम्मिश्रण की भूमिका प्रस्तुत करती है। इसमें संविधान के प्रदत्त जनतन्त्र और धर्म निरपेक्षता के लक्ष्य को प्राप्त करने की शक्ति है। बौद्धिक स्वतन्त्रता, वैज्ञानिक स्वभाव और राष्ट्रीय समग्रता की दृष्टि से यह संवेदना का विकास करती है, सभी आर्थिक स्तरों पर यह जनशक्ति का निर्माण करती है। राष्ट्र में आत्म-निर्भरता के लिए शिक्षा अनुसंधान द्वारा नये क्षेत्रों का पता लगाती है और इन सबसे परे शिक्षा वर्तमान तथा भविष्य में विनियोग है और राष्ट्रीय शिक्षा नीति का यह महत्वपूर्ण बिन्दु है ।
(4) जनजातियों की शिक्षा- जनजातीय कल्याण के लिए जनजातीय भाषाओं के आधार पर आवासीय आश्रम, विद्यालयों की स्थापना, विभिन्न प्रकार के तकनीकी पाठ्यक्रम, उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियों आदि की व्यवस्था की गयी है।
(5) अनुसूचित जातियों की शिक्षा- गांव और शहरों के अनुसूचित जाति के स्त्री और पुरुषों की शिक्षा के लिए विशेष व्यवस्था पर नयी शिक्षा नीति ने बल दिया। । अनेक पारस्परिक पाठ्यक्रम, छात्रवृत्ति अध्यापन, प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम आदि के द्वारा अनुसूचित जाति में शैक्षिक समानता के अवसर प्रदान करने पर बल दिया है।
(6) नारी समानता के लिए शिक्षा- यह माना गया है कि शिक्षा नारियों के आधारभूत स्तर में परिवर्तन लाने का एक सशक्त साधन है। नारी शिक्षा के क्षेत्र में अनेक भिन्नतायें पायी जाती है, इन भिन्नताओं को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाना आवश्यक है। नयी शिक्षा नीति में निरक्षरता उन्मूलन, व्यावसायिक शिक्षा, पोषण और कल्याण, गृहकला और प्रबन्ध आदि पाठ्यक्रमों के साथ-साथ विभिन्न गैर पारस्परिक पाठ्यक्रमों के निर्माण पर बल दिया गया है।
(7) अन्य पिछड़े वर्गों की शिक्षा- अन्य पिछड़े वर्गों में अल्पसंख्यकों, विकलांगों तथा सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों की शिक्षा की व्यवस्था के लिए छात्रवृत्ति, विशेष विद्यालयों, विशेष तकनीकी तथा प्राविधिक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की गयी है।
(8) प्रौढ़ शिक्षा- भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या निरक्षर है, इसलिए ग्राम तथा नगर क्षेत्रों में सतत् शिक्षा, श्रमिक शिक्षा, प्रौढ़ पाठशालायें, प्रौढ़ साहित्य तथा पुस्तकालय, जन संचार, सुदूर शिक्षा, स्वयं शिक्षा तथा अन्य प्रकार के पाठ्यक्रमों को लागू करने का प्रयास किया जायेगा।
नयी शिक्षा नीति के अन्तर्गत शिक्षा का पुनर्गठन
पूर्व बाल्यावस्था- पूर्व बाल्यावस्था बालक की शिक्षा का महत्वपूर्ण वर्ष है। इस अवस्था में बालकों के उचित पोषण, स्वास्थ्य, सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, नैतिक तथा संवेगात्मक विकास की आवश्यकता है। इसलिए पूर्व प्राथमिक स्तर पर सुसंगठित पाठ्यक्रम का निर्माण आवश्यक है।
बाल विकास की महत्वपूर्ण प्रकृति को पहचानते हुए पोषणबद्ध स्वास्थ्य, सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, नैतिक एवं संवेगात्मक आदि, अर्थात पूर्व बाल्यावस्था की देखभाल एवं शिक्षा बाल विकास सेवा कार्यक्रम में उच्च स्थान दिया जायेगा।
बाल केन्द्रित शिक्षण- बालकों को विद्यालय में जाने और सीखने के लिए अभिप्रेरित करने के लिए बालक की आवश्यकताओं पर सभी पक्षों का ध्यान केन्द्रित करने वाला प्रोत्साहित, स्वागत योग्य एवं तरो-ताजा अभिगमन किया जाये। प्राथमिक स्तर पर बाल केन्द्रित, क्रिया आधारित कार्यक्रम, शिक्षा हेतु अपनाना चाहिए।
प्राथमिक शिक्षा -प्राथमिक शिक्षा के इस नवीन प्रारम्भ से दो बातों पर बल दिया जायेगा-
- सार्वभौमिक प्रवेश एवं सार्वभौमिक प्रतिधारण
- शिक्षा में वांछित मात्रा में गुणात्मक सुधार।
प्राथमिक शिक्षा 14 वर्ष तक की आयु के बालकों के लिए गुणात्मक रूप से आवश्यक है। पर शिक्षा का संगठन इस प्रकार किया गया है-
(क) बालक को शिक्षा का केन्द्र माना गया है। बालकों को बिना भय और आतंक के इस स्तर उनकी आवश्यकताओं को आधार मानकर शिक्षा दी जाये।
(ख) प्राथमिक स्तर पर अनौपचारिक शिक्षा पर भी बल दिया जायेगा। यह शिक्षा उन लोगों के लिए होगी जो अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं।
(ग) पाठ्यक्रम का निर्माण बालकों और समुदाय की आवश्यकताओं के अनुरूप होगा और यह शिक्षा 14 वर्ष की आयु के बालकों के लिए अनिवार्य रूप से निःशुल्क दी जायेगी।
माध्यमिक शिक्षा- माध्यमिक स्तर पर विज्ञान तथा मानविकी की मानव विकास के लिए नयी भूमिकाओं का अध्ययन नयी शिक्षा नीति करती है। स्वस्थ, चेतन और कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिकों के निर्माण के लिए माध्यमिक शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती है। इस स्तर पर जो पीढ़ी तैयार होती है, वह समाज में सेतु का निर्माण करती है इसलिए माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के विभिन्न पक्षों के आधार पर शिक्षा व्यावसायिकीकरण करने पर बल दिया गया। स्वास्थ्य योजनायें और सेवायें लागू की जायेगी। शिक्षा के इस स्तर पर अनौपचारिक शिक्षा की व्यवस्था की जायेगी।
विद्यालयी सुविधाएं- दो बड़े कमरों (सभी मौसम में उपयोगी), खिलौने, श्यामपट, नक्शे, चार्ट्स तथा अन्य शैक्षिक सामग्री तथा आवश्यक सुविधाएं प्राथमिक विद्यालयों में दी जायेगी। यथासम्भव एक विद्यालय में दो शिक्षक होंगे जिनमें एक महिला होगी, छात्रों की संख्या बढ़ने पर प्रत्येक कक्षा के लिए एक शिक्षक की व्यवस्था की जायेगी। “आँपरेशन ब्लैक बोर्ड’ नामक एक प्रतीकात्मक आन्दोलन देश के सभी प्राथमिक विद्यालयों के विकास हेतु चलाया जायेगा। इसमें सरकार, स्थानीय निकाय, स्वैच्छिक संस्थायें तथा व्यक्ति पूरी तरह से संलग्न होंगे।
उच्च शिक्षा- शिक्षा के पिरामिड का उच्च बिन्दु होने के कारण इस स्तर पर शिक्षकों का महत्व बढ़ जाता है। उच्च शिक्षा व्यक्ति के तार्किक दृष्टिकोण को विकसित करती है। उच्च स्तर पर शोध को बढ़ावा देना आवश्यक है, इसलिए देश के 500 महाविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने का संकल्प किया है, यह स्वायत्त महाविद्यालय के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है। इसके अतिरिक्त अन्तर विद्याध्ययन, कृषि, चिकित्सा, तकनीकी, विधि तथा अन्य व्यावसायिक क्षेत्रों में नवीन पाठ्यक्रमों को लागू किया जायेगा।
अनौपचारिक शिक्षा- उत्तीर्ण न हो पाने वाले बालक, विद्यालय न जा सकने वाले बालकों, कार्यशील बालक-बालिकाएँ, जो पूरे दिन विद्यालय नहीं जा सकते, के लिए वृहद् एवं व्यवस्थित अनौपचारिक शिक्षा की व्यवस्था की जायेगी। अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों के शैक्षिक वातावरण को विकसित करने के लिए आधुनिक तकनीकी सहायता का प्रयोग किया जायेगा।
ग्रामीण विश्वविद्यालय- नयी शिक्षा नीति में महात्मा गांधी के क्रान्तिकारी विचारों के आधार पर नये ग्रामीण विश्वविद्यालयों की स्थापना और पुराने विश्वविद्यालयों के पुनर्गठन पर बल दिया जायेगा।
डिग्री का रोजगार से सम्बन्ध- नयी शिक्षा में डिग्री तथा रोजगार के सम्बन्ध को समाप्त करने की दिशा में प्रयास किया गया है। ऐसा सम्बन्ध समापन उन व्यवसायों के लिए होगा जिसके लिए विश्वविद्यालय ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। यह बात चिकित्सा, इन्जीनियरिंग, कानून शिक्षण तथा ऐसे अन्य व्यवसायों पर लागू नहीं होगी जिसके लिए विज्ञान का उच्च शैक्षिक ज्ञान आवश्यक है।
खुले विश्वविद्यालय और सुदूर शिक्षा- देश का पहला राष्ट्रीय खुला विश्वविद्यालय इन्दिरा गांधी विश्वविद्यालय नयी दिल्ली में स्थापित किया गया है। यह ऐसे व्यक्तियों के आदर्श है जो किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाये हैं या अपने व्यावसायिक जीवन के साथ-साथ शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं।
तकनीकी तथा प्रबन्ध शिक्षा का समन्वय- तकनीकी तथा प्रबन्ध शिक्षा दो अलग-अलग धाराओं में चल रही है, जिसका समन्वय करना आवश्यक है, इसलिए तकनीकी तथा प्रबन्ध शिक्षा को आर्थिक, सामाजिक वातावरण, उत्पादन तथा प्रबन्ध प्रक्रिया के सन्दर्भ के अन्तर्गत लाना होगा। कम्प्यूटर की शिक्षा विद्यालय स्तर से करनी होगी। सतत् शिक्षा के अन्तर्गत इस सबको लाना होगा। देश में चल रहे पॉलिटैक्निक्स को भी इसी आधार पर पुनर्गठित करना होगा।
साधन- शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के साधनों के निर्माण पर कोठारी कमीशन तथा 1968 की शिक्षा नीति ने विशेष बल दिया है। इस दृष्टि से दान, अनुदान, फीस, उद्योग कर आदि के द्वारा धन एकत्र किया जायेगा। प्रत्येक पांच वर्ष में शिक्षा की प्रगति का सिंहावलोकन होगा।
नवीनीकरण अनुसंधान तथा विकास- नवीनीकरण तकनीकी शिक्षा के उच्च स्तरों पर आवश्यक है। इस दृष्टि से अनुसंधान तथा विकास पर विशेष बल दिया जायेगा। शिक्षा के सभी स्तरों पर कुशलता तथा प्रभावशालिता के विकास के लिए प्रयास करने होंगे। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार पाठ्यक्रमों का पुनर्निर्माण करना होगा। इस दृष्टि से अनेक स्वायत्त संस्थाओं का गठन किया जायेगा।
मूल्यांकन प्रणाली- आन्तरिक मूल्यांकन शिक्षा का अनिवार्य अंग होगा। इसके लिए वैयक्तिकता, रहना आदि को हतोत्साहित किया जायेगा और छात्रों की उपलब्धि के मूल्यांकन के लिए ठोस उपाय अपनाये जायेगे।
शिक्षक- शिक्षकों के स्तर को ऊंचा रखने के लिए विशेष प्रयास किये जायेगें जिसमें शिक्षकों के चयन पर विषेश ध्यान दिया जायेगा। शिक्षक परिषदों को मान्यता दी जायेगी और शिक्षक शिक्षा के लिए विशेष उपाय किये जायेगे।
शिक्षा की व्यवस्था- शिक्षा को पुनर्गठित करने के लिए आमूल परिवर्तन किया जायेगा। जिसके अधीन दीर्घकालीन योजना का निर्माण, विकेन्द्रीकरण, शिक्षण संस्थाओं की स्वायत्तता, नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया जायेगा। राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय शिक्षा सेवा का गठन होगा और राज्य स्तर पर शिक्षा सलाहकार परिषदों का गठन होगा, जिला स्तर पर जिला बोर्ड माध्यमिक शिक्षा तक शिक्षा का गठन करेंगे। इस दिशा में विशेष रूप से प्रशिक्षित व्यक्तियों का सहयोग किया जायेगा।
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