भारतीय संविधान के निर्माण पर प्रकाश डालिए।
भारतीय संविधान के निर्माताओं के समक्ष एक टेढ़ी समस्या यह थी कि संविधान बनाने के महान कार्य को सम्पन्न करने की दिशा में आगे कैसे बढ़ाया जाये। इसके लिए संविधान सभा ने अपनी समितियों की सहायता से कार्य करना पसन्द किया। समितियाँ मुख्यतः प्रक्रियात्मक (Procedural) तथा विशिष्ट (Substantive) विषयों पर गठित की गयी थीं। इन समितियों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रारूप समिति (Drafting Committee) थी जिसके अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अम्बेडकर थे। इस समिति के अन्य सदस्य थे— श्री एन. गोपालास्वामी आय्यंगर, श्री के. एम. मुन्शी, श्री अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, श्री मुहम्मद सादुल्लाह श्री बी. एल. मित्रा (कुछ समय बाद उनका स्थान एन. माधव राव ने प्राप्त किया) तथा डी. पी. खेतान (जिनकी जगह पर बाद में श्री टी. टी. कृष्णमाचारी आ गये)। डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में प्रारूप समिति ने जो उल्लेखनीय कार्य किया उसके कारण उन्हें ‘संविधान का पिता’ कहा जाता है। जो प्रक्रिया संविधान सभा ने अपनाई वह अनेक तत्वों के कारण बहुत दोषपूर्ण थी ।
संविधान सभा के भीतर विधि जगत का राजनीति जगत के ऊपर आधिपत्य बना रहा। सदन के सामने प्रारूप समिति के मस्तिष्क की व्याख्या करने में डॉ. अम्बेडकर ने एक ऐसे महान् संविधान शास्त्री की भूमिका निभाई जैसे किसी अध्ययनकक्ष में श्रोतागण को बिना किसी अर्थपूर्ण आपत्ति उठाये अपने शिक्षक का उपदेश सुनने का आदेश प्रदान किया गया हो।
प्रारूप समिति की स्थिति नहीं बल्कि किन्हीं-किन्हीं अवसरों पर इसके बदलते हुए संकल्प विरोध के सूत्र बन गये। यह सच है कि कुछ सदस्यों को प्रारूप समिति का अधिनायकवादी तरीका, जैसा कि इसके अध्यक्ष के व्यवहार में प्रतिबिम्बित हुआ, अप्रिय लगा किन्तु जिसने उन्हें अधिक रुष्ट किया वह यह था कि प्रारूप धाराओं को अव्यवस्थित ढंग से विवाद के लिए लिया गया और दूसरे तथा तीसरे वाचन काल में मूल निर्णयों को परिवर्तित कर दिया गया। इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि संविधान सभा व उसकी प्रारूप समिति दोनो कार्य के औपचारिक केन्द्र मात्र थे, कार्य का वास्तविक केन्द्र वह स्थान था जहाँ कांग्रेसी नेता संपर्क किया करते थे और निर्णय लिया करते थे। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति संविधान की वास्तविक रचयिता बन गयी। इस प्रकार अध्ययन करने पर यह प्रतीत होता है कि प्रारूप समिति ने प्रावधानों का प्रारूप बनाने हेतु जो प्रक्रिया ग्रहण की और सभा ने उन धाराओं को पास करने हेतु जो तरीका अपनाया उसमें जो भी दोष आ गये वे समय की आवश्यकता को देखते हुए घटित हुए और वे इस सर्वमान्य लोकतन्त्रीय संविधान की रचना पर अपना घातक प्रभाव डालने में निश्चयात्मक रूप से असफल रहे।
संविधान का आधारभूत सामाजिक दर्शन राष्ट्रीय आन्दोलन की राजनीतिक विरासतें- भारतीय संविधान के संस्थापक विकल्पों की खोज की समस्या का समाधान करने में अत्यन्त सराहनीय रूप से सफल हुए। इस कारण भारतीय संविधान के पाँच आधारभूत स्वीकृत पक्ष उदित हुए- संघवाद (Federalism), लौकिकवाद (Secularism), लोकतन्त्रीय समाजवाद (Democratic Socialism), संसदीय शासन (Parliamentary Government) तथा न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) |
भारतीय संविधान, इस प्रकार उन पाँच महान् आदर्शों पर आधारित है जिनका कांग्रेस दल ने सदैव बड़ी निष्ठा के साथ पालन किया और उन्हीं के लिये उन्हें संवैधानिक धाराओं का औपचारिक रूप देने में लगभग चालीस महीनों का समय लगा। संविधान सभा ने कांग्रेस दल द्वारा स्वीकृत महान् आदर्शों को संविधान के शरीर में इस प्रकार अंगीकृत किया कि उसके आधारभूत सामाजिक दर्शन (Undrlying Social Philosophy) के विचित्र रूप का सृजन हुआ जो गाँधी जी के धार्मिक अराजकतावाद (religious anarchism ) तथा श्री नेहरू के लोकतंत्र समाजवाद (Democratic Socialism) के अनोखे संगम में देखा जा सकता है।
गाँधीवाद के आधारभूत तत्व जैसे अस्पृश्यता (untouchability) का अन्त तथा धर्म व जाति आदि के आधार पर कृत्रिम भेदभाव के निराकरण को संविधान के न्याय-मान्य (justiciable) भाग में रखा गया, किन्तु गाँधीवादी अर्थशास्त्र व राजनीति के अनेक सिद्धान्तों जैसे ग्राम पंचायतों का संगठन, घरेलू उद्योग-धन्धों का वि , मद्य निषेध, गोवध पर प्रतिबन्ध इत्यादि को संविधान के विकल्प द्वारा न्याय अमान्य (non-justiciable) भाग में रखा गया, जिसका विवरण राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत आता है। इस विषय पर गलत व्याख्या रखते हुए एक विदेशी लेखक ने कहा है कि “काँग्रेस कदापि गाँधीवादी नहीं रही।” स्वतंत्र भारत के कांग्रेसी शासक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ थे जो पाश्चात्य राजनीति, विशेषकर इंग्लैण्ड वाली, में सुप्रशिक्षित थे और इसलिए उन्होंने विदेशी अनुभवों से सब कुछ ले लिया जिसका स्वदेशी आवश्यकताओं के साथ सुन्दर तालमेल बैठ सका। श्री नेहरू की बुद्धिमत्तापूर्ण विचारधारा का प्रवाह हुआ। एक अवसर पर उन्होंने यह कहा, “कोई संविधान यदि वह लोगों के जीवन लक्ष्यों व आकांक्षाओं से अलग है तो अपेक्षाकृत खोखला हो जाता है। यदि वह उन लक्ष्यों से पीछे रह जाये तो लोगों को नीचे गिरा देता है, इसे कुछ ऊँचा होना चाहिए जो लोगों की आँखों और दिमागों को उच्च स्तर पर रख सके।”
हमारे संविधान की सबसे प्रधान विशेषता केवल उन पाँच उपर्युक्त स्वीकृत पक्षों (Postulates) के चयन में निहित नहीं है, बल्कि उन्हें समस्त संवैधानिक ढाँचे की समग्र रूपरेखा के अनुरूप बनाने में है। हमारी संघीय व्यवस्था के विभिन्न रूप को बनाये रखने के लिए ‘संघीय’ (Federal) शब्द का प्रयोग जानबूझकर कहीं भी नहीं किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारा संविधान, यद्यपि परम्परागत अर्थ में अपने प्रथम अनुच्छेद की विशेषता के कारण संघीय है, जिसमे कहा गया है कि भारत राज्यों का संघ (Union of States) होगा।
डॉ. अम्बेडकर ने सभा में कहा, “हमारी संघीय व्यवस्था किसी कठोर साँचे में बन्द नहीं है, क्योंकि समय व परिस्थितियों को देखते हुए इसे संघात्मक व एकात्मक दोनों ही रूपों में रखा जा सकता है।” इसी भाँति हमारा संविधान धर्म निरपेक्ष (Secular) है। सन् 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम में इसको सर्वप्रथम प्रयोग में लाया गया। मूल रूप में एक समाजवादी संघ (Socialist Union) की छाप का प्रयोग किये बिना, जैसा कि एक सदस्य प्रो. के. टी. शाह ने इतने दृढ़ शब्दों में आग्रह किया, इसकी आधारभूत कसौटी समाजवादी रही जो इस तथ्य में निहित है कि एक ओर वह सम्पत्ति जैसे मूल अधिकार की व्यवस्था करता तो दूसरी ओर उसके साथ-साथ इस अधिकार को ऐसे प्रतिबन्धों व नियमों के अधीन रख दिया गया है जिन्हें राज्य जनता के हित में लगा सकता है।
इसके अतिरिक्त इसने संसदीय शासन प्रणाली (Parliamentary Form of Government) की व्यवस्था की है क्योंकि इसमें सरकार की कार्यपालिका शक्ति मन्त्रिपरिषद को प्रदान की गई है, जिसका अध्यक्ष प्रधानमन्त्री है और जो सामूहिक रूप में लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। अन्तिम, यद्यपि हमारे यहाँ न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की व्यवस्था है, तथापि अदालतों को इस विशेषाधिकार से दूर रखा गया है जिससे वे न्यायिक अधिनायकवाद (Judicial Despotism) स्थापित कर सकें। इसे भारत में संसदीय सर्वोच्चता (Parliamentary Supremacy) का सर्वश्रेष्ठ प्रमाण माना जाना चाहिए।
विकल्पों की खोज की विचित्र समस्या के विचित्र समाधान के कारण ही भारतीय संविधान को विचारधारा की दृष्टि से एक निष्पक्ष दस्तावेज (document) माना गया है। जब हमारा संविधान उदारवाद (Liberalism) से लेकर समाजवाद तक बल्कि साम्यवाद तक किसी भी विचारधारा की पूर्ति कर सकता है, यह परिपूर्ण या एकाग्र रूप में किसी भी सिद्धान्त का अर्थ पूरी तरह सिद्ध नहीं करता। उदाहरण के लिए, जब इनका तीसरा भाग मूल अधिकारों की प्रतिभूति करता है तो यह उन पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था द्वारा उनकी कटौती करने की अनुमति भी देता है। एक सामाजिक आर्थिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अनेक महत्वपूर्ण तत्वों को यह संविधान राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत रखता है जो यद्यपि न्यायालय द्वारा मान्य घोषित नहीं किये जा सकते, फिर भी ऐसी आशा की गयी है कि राज्य देश के प्रशासन में उन्हें मूल समझेगा।
सम्पत्ति के मूल अधिकार का उदाहरण लेकर यह कहा जाता है कि यह मौलिक अधिकारों में एक अधिकार रहा है जो न्यायालयों द्वारा न्याय मान्य भी रहा है, यह उतना ही अमूल अधिकार भी रहा है क्योंकि संसद जनता के लिए (public purpose), जनता के नाम पर इस अधिकार की सख्ती से कटौती करती रही।
उपर्युक्त वर्णित आधारभूत स्वीकृत पक्षों का चयन निश्चित रूप से उन धाराओं व अन्य धाराओं की देन है जिनका रूप फेबियनवाद के प्रति नेहरू का लगाव तथा उदारवाद के प्रति पटेल की प्रतिबद्धता में तथा बहुत से कांग्रेसी जनों के उस विश्वास में पाया जाता है जिन्होंने नेहरू के सर्वोच्च नेतृत्व में अपनी निष्ठा बनाये रखी, क्योंकि उन्होंने अपने कन्धों पर इस नियोग का भार भाला था कि एक उदारवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रमुख गुणों से ओत-प्रोत संविधान के माध्यम से देश में सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र के रूप में दूसरी क्रान्ति–सामाजिक व आर्थिक— का लक्ष्य सिद्ध किया जाना चाहिए।
पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में 13 दिसम्बर, 1949 को जो उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया, उसमें निहित भावों के आधार पर ही संविधान की प्रस्तावना तैयार, प्रस्तुत और स्वीकृत की गयी। उल्लेखनीय है कि भारत के भावी संविधान की रूपरेखा के विषय में पं. नेहरू ने गाँधीजी द्वारा सन् 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए जाते समय व्यक्त विचारों के आधार पर उद्देश्य प्रस्ताव तैयार और प्रस्तुत किया था। उन्होंने (गाँधीजी ने) कहा था कि “मैं भारत के लिए एक ऐसा संविधान लाने का प्रयत्न करूँगा जो उसे दासता से *मुक्त करे, सभी अधिकार दे, ऐसी व्यवस्था करे जिसमें ऊँच-नीच का कोई भेद न हो, सभी , सम्प्रदाय के लोग मिलकर रहें, छुआ-छूत का कोई स्थान न हो, नशीली मदिरा के लिए कोई स्थान न हो, शोषण न हो तथा पूरे विश्व के साथ शान्तिपूर्ण सम्बन्ध हो ।” उनके इन्हीं विचारों को आधार मानकर संविधान की प्रस्तावना तैयार और स्वीकृत की गयी ।
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