शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

विभिन्न भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के विचार- महर्षि अरविन्दु, स्वामी दयानन्द, मदन मोहन मालवीय

विभिन्न भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के विचार- महर्षि अरविन्दु, स्वामी दयानन्द,  मदन मोहन मालवीय
विभिन्न भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के विचार- महर्षि अरविन्दु, स्वामी दयानन्द, मदन मोहन मालवीय

 विभिन्न भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के विचार व्यक्त कीजिए।

1. महर्षि अरविन्दु

भारती शिक्षा दर्शन में महर्षि अरविन्दु जी ने आध्यात्मवादी शिक्षा दर्शन को नवीन रूप दिया है। अरविन्दु जी के समाज दर्शन में दिव्यशक्ति का बोध तथा परम चेतना की प्राप्ति के दर्शन होते हैं। श्री आर० एस० मणि के अनुसार शिक्षा के सम्बन्ध में उनके विचार यह प्रकट करते हैं कि वे हमारे देश के प्रमुखतम शिक्षा शास्त्रियों में से हैं। उनका विचार था कि अन्य स्कूलों तथा विश्वविद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा राष्ट्रीय मस्तिष्क, आत्मचरित्र एवं राष्ट्रीयता के गुणों से संचित, पतित और क्षीण होने वाली है। हमारे देश के अनुकूल शिक्षा भारतीय आत्मा, आवश्यकता एवं संस्कृति के अनुरूप होनी चाहिए।

1. अरविन्दु का जीवन दर्शन (Philosophy of Life of Shri Aurobindo)

महर्षि अरविन्दु का जीवन इस प्रकार है-

  1. अरविन्दु ज्ञेयवादी (Gnostic) हैं। वे विकास का लक्ष्य जगत में व्याप्त दिव्य शक्ति के बोध को मानते हैं।
  2. जीवन का उद्देश्य परम चेतना की प्राप्ति है।
  3. चेतना के विकास में दो तथ्य हैं- (i) प्राण, पदार्थ, मन और बुद्धि का समन्वय, (ii) उच्च स्तर की चेतना अनुवर्त को प्रभावित करती है।
  4. विकास क्रम में अति मानसिक स्तर होता है। इसकी विशेषताएँ सहज ज्ञान, अन्तश्रेरणा और दैवी प्रकाश है।
2. शिक्षा दर्शन (Educational Philosophy)

शिक्षा की आवश्यकता की व्याख्या करते हुए श्री अरविन्दु ने कहा है- “सच्ची और वास्तविक शिक्षा वही है, जो मानव की अन्तर्निहित समस्त शक्तियों को इस प्रकार विकसित करती है कि वह उनसे पूर्णतः लाभान्वित होता है। यह शिक्षा जीवन को सफल बनाने में मानव की सहायता करती है। इसके अतिरिक्त यह शिक्षा जीवन और मानव जाति के मन और आत्मा से और उन सब मानवता के मन और आत्मा से जिसका वह अंश है, सत्य सम्बन्ध की स्थापना में सहायता देती है।”

श्री अरविन्दु बालक के स्वतन्त्र विकास में विश्वास करते थे। बालक के विकास में माता-पिता तथा शिक्षक तीनों का कर्तव्य समान ही मानते थे।

3. शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)

अरविन्दु जी के अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिएँ-

1. शारीरिक विकास- अरविन्दु जी ‘शरीर खलु धर्मसाधनम्’ में विश्वास करते थे। उनका कहना है कि शरीर स्वस्थ रहने पर अन्य कार्य सरलतापूर्वक किए जा सकते हैं। उनके अनुसार-“यदि हम मानव के पूर्ण विकास को देखते हैं तो उसके शारीरिक विकास की उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि शरीर ही भौतिक आधार है, शरीर ही वह साधन है जिसका प्रयोग हमें करना है। “

2. इन्द्रिय प्रशिक्षण- अरविन्दु कर्म तथा ज्ञान दोनों प्रकार की इन्द्रियों के प्रशिक्षण में विश्वास करते थे। वे स्नायु, मन और मानसिक शुद्धि चाहते थे। वे इन्द्रियों— दृष्टि, श्रवण, गंध, स्पर्श, स्वाद, मस्तिष्क का प्रशिक्षण चाहते थे। उन्होंने कहा भी है— “शिक्षा शास्त्री का पहला कार्य बालक को ही इन्द्रियों का सही उपयोग कराना है और यह देखना है कि वे उनका दुरुपयोग तो नहीं करते। उन्हें पूर्णता के मध्य प्रशिक्षण देना है और उनमें उनके योग्य संवेदनशीलता का विकास करना है।’

“The first business of the educationist is to develop in the child the right use of the six senses, to see that they are not stunted by disuse but trained by the child himself under the direction to the perfect accuracy and keen sensitiveness of which they are capable.”

इन्हीं में मानसिक शक्ति का विकास तर्क के माध्यम से होने लगता है।

3. नैतिकता का विकास- अरविन्दु जी नैतिकता के तीन आधार मानते थे – (i) मानव प्रकृति, (ii) मनुष्य की आदत, (iii) मनुष्य की भावना। ये तीनों ही नैतिकता के मूल्यों का निर्माण करते हैं।

4. आध्यात्मिक विकास- अरविन्दु जी शिक्षा का परम उद्देश्य आध्यात्मिकता का विकास मानते हैं। उन्होंने कहा भी है— “प्रत्येक व्यक्ति में कुछ दैवी अंश होता है, कुछ स्वयं का होता है, जिसे पूर्ण एवं सशक्त बनाया जा सकता है। शिक्षा का कार्य इनकी खोज करना, विकसित करना एवं प्रयोग करना है। जो कुछ सर्वोत्तम है, उसे अभिव्यक्त करना और श्रेष्ठ कार्य के लिए पूर्ण बनाना है।”

4. पाठ्यक्रम (Curriculum)

अरविन्दु जी ने शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इस प्रकार के पाठ्यक्रम की व्यवस्था की है-

1. प्राइमरी स्तर पर मातृभाषा, अंग्रेजी, सामान्य विज्ञान, गणित, सामाजिक अध्ययन और चित्रकला।

2. माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक स्तर पर मातृ-भाषा, अंग्रेजी, फ्रेंच, गणित, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, प्राकृतिक विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान, शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भौतिकी, सामाजिक अध्ययन और चित्रकला आदि ।

3. विश्वविद्यालय स्तर पर विश्व एकता, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, सभ्यता का इतिहास, अंग्रेजी साहित्य, जीव विज्ञान, गणित, भौमिक शास्त्र, विज्ञान का इतिहास और फ्रेंच साहित्य ।

4. व्यावसायिक शिक्षा में काष्ठ कला, सामान्य मेकेनिकल और इलेक्ट्रिकल इन्जीनियरिंग, फोटोमाफी, चित्रकारी, अभिनय, आशुलिपि, टंकन, व्यावसायिक पत्र-व्यवहार, सूची-शिल्प (Embroidery), सिलाई, कुटीर उद्योग, शिल्पकला, ड्राइंग, भारतीय एवं योरोपीय संगीत, नृत्य, उपचारण (Nursing)।

5. शिक्षण सिद्धान्त (Principles of Teaching)

अरविन्दु जी शिक्षा के क्षेत्र में व्यावहारिक शिक्षण के लिए निम्नलिखित सिद्धान्तों को मानते थे-

  1. बालकों की रुचि के अनुसार शिक्षा दी जाए।
  2. कार्य तथा अनुभव के द्वारा सीखना।
  3. विषयों की प्रकृति के अनुसार बालक की शक्ति का प्रयोग।
  4. प्रेम तथा सहानुभूति ।
  5. बालक की स्वतन्त्रता ।
  6. बालक का सहयोग ।

अरविन्दु के ये सिद्धान्त आज की प्रगतिशील शिक्षण-धारा की भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। ये बालक को प्रमुख मानते हैं। बालक का विकास होना चाहिए। उसे विषय केन्द्रित नहीं बनाना है, अपितु बालक के अनुकूल सभी विषयों को संजो देना है। उन्होंने कहा है— “बालक को माता-पिता या अध्यापक की इच्छानुकूल ढालना अन्धविश्वास तथा जंगलीपन है। माता-पिता के लिए इससे बड़ी भूल और हो ही नहीं सकती कि बालक का मनचाहा व्यक्तित्व निर्मित करें, उसे प्रकृति की शक्ति के अनुसार अपने धर्म का निर्वाह करने दो अन्यथा उसे स्थायी हानि होगी। उसकी वृद्धि में बाधा आएगी और उसकी पूर्णता विकृत हो जाएगी।”

“The idea of hammering the child into shape desired by the parent or teacher is a barbarous and ignorant superstition. There can be no greater error than for the parent to arrange before hand that his son shall develop particular qualities, capacities and ideas. To force the nature to abandon its own dharma is to do it permanent harm, multialate its growth, and deface its perfection.”

6. शिक्षण पद्धति ( Teaching Method)

अरविन्दु जी ने दो प्रकार की शिक्षण पद्धतियाँ अपनाई हैं— (1) समकालिक (Simultaneous), (2) क्रमिक (Successive)। इन दोनों पद्धतियों में पहली में सभी विषयों का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान कराया जाता है। दूसरी में एक विषय का ही ज्ञान कराया जाता है। अरविन्दु जी ने स्व-प्रयत्न एवं स्वानुभव को शिक्षण विधियों का आधार माना है। करके सीखने एवं सहयोग द्वारा सीखने पर विशेष बल दिया है। क्रमिक शिक्षण विधि में करके सीखने, परस्पर सहयोग, स्वतन्त्रता, प्रेम व सहानुभूति, रुचि, मातृभाषा प्रयास एवं अनुभव तथा प्राकृतिक शक्तियों के द्वारा सीखने पर बल दिया जाता है।

7. शिक्षक (Teacher)

अरविन्दु जी ने अध्यापक को पथ-प्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया है। उसका कार्य सुझाव देना है न कि श्रम को लादना। वह केवल यह बताता है कि ज्ञान कहाँ है और उसको प्राप्त करने के लिए क्या करना होगा ? महर्षि अरविन्दु के अनुसार-“अध्यापक निर्देशक या स्वामी नहीं है। वह सहायक तथा पथ-प्रदर्शक है। उसका कार्य सुझाव देना है न कि ज्ञान को लादना। वह वास्तव में छात्र के मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं करता। वह छात्र को केवल यह बताता है कि वह अपने ज्ञान के किन-किन साधनों से वह अपने को समृद्ध बनाए।”

8. बालक (Child)

अरविन्दु के अनुसार बालक ही शिक्षा का केन्द्र है। बालक को रुचि, जिज्ञासा, कौशल आदि के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था इस ढंग से की जाए, जिससे बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। अरविन्दु जी बालक के सर्वांगीण तथा संगुफित (Integral) विकास पर बल देते थे। बालक की शिक्षा उसकी रुचि, अभिव्यक्ति, स्वभाव, धर्म के अनुकूल होनी चाहिए।

निष्कर्ष (Conclusion)

श्री अरविन्दु जी का शिक्षा दर्शन आध्यात्मिक प्रगति का परिचायक है। अरविन्दु जी पर पाश्चात्य तथा भारतीय दर्शन का पर्याप्त प्रभाव रहा है। तो भी मूलतः वे भारतीय रहे हैं। केवल पाश्चात्य दर्शन की अच्छाई लेकर उन्होंने भारतीयता को सुदृढ़ किया है।

  1. अरविन्दु शिक्षा दर्शन भौतिकता से आध्यात्मिक जगत में ले जाता है।
  2. अरविन्दु आश्रम में अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना इसीलिए हुई।
  3. बालक के स्वभाव के अनुकूल शिक्षा की व्यवस्था ।
  4. ब्रह्मचर्य द्वारा तप, तेज और विद्युत की वृद्धि से बालकों के मन, शरीर और आत्मा को सशक्त बनाना।

श्री काँमली चरणपति के अनुसार- “श्री अरविन्दु का दर्शन मूलतः उनके अध्यात्मिक योग दर्शन पर आधारित है। श्री अरविन्दु ने अपनी दिव्य दृष्टि की शक्ति से मानव जीवन के जिन गम्भीर तत्वों का उद्धरण किया है, वे ही उनके दर्शन की आधार शिला हैं। सर्वांगीण रूप का आधार मिल जाता है। श्री अरविन्दु ने जीवन और संसार के किसी पहलू को स्थान नहीं दिया है। “

2. स्वामी दयानन्द

स्वामी दयानन्द का जन्म उस समय हुआ था जब देश परतन्त्रता की बेड़ियों में बुरी तरह जकड़ा हुआ था। उन्होंने अपने जीवन काल में प्रचलित अन्धविश्वासों, परम्पराओं एवं रूढ़ियों का भण्डाफोड़ किया और प्राचीन वैदिक काल की परम्पराओं का पालन करने पर बल दिया। उन्होंने गुरुकुल प्रणाली के पुनरुत्थान पर बल दिया, जिसके अनुसार कई स्थानों पर गुरुकुलों तथा कन्या- गुरुकुओं की स्थापना हुई। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनके विषय में कहा है—”उन्होंने हमारे मस्तिष्क की प्रबल जागृति के लिए उपदेश दिया और कार्य किया, जिससे वह आधुनिक युग की प्रगतिशील भावना के साथ सामंजस्यपूर्ण अनुकूलन का प्रयास कर सके और साथ ही भारत के गौरवपूर्ण सम्पर्क में रह सके।”

1. जीवन दर्शन (Philosophy of Life)

स्वामी दयानन्द का जीवन-दर्शन वेदों पर आधारित था। वे वेदों को आदि ज्ञान का स्रोत मानते थे। उनके जीवन दर्शन के मुख्य तत्व इस प्रकार हैं-

  1. स्वामी दयानन्द त्रैतवादी थे अर्थात् वे ब्रह्म-जीव या आत्मा एवं प्रकृति को मानते थे।
  2. ईश्वर सर्व-शक्तिमान है और वही इस संसार का चलाने वाला है।
  3. जीवात्मा और ईश्वर का सम्बन्ध व्यापक है।
  4. सगुण-निर्गुण में कोई भेद नहीं है।
  5. ईश्वर सत्य है और विश्व का कारण है।
  6. मोक्ष प्राप्त करने पर भी जीवात्मा का अलग अस्तित्व है।
2. शिक्षा दर्शन (Educational Philosophy)

स्वामी दयानन्द ने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली का समर्थन किया है। उनके अनुसार शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार होना चाहिए-

  1. शिक्षा का आधार धर्म हो।
  2. औपचारिक शिक्षा उपनयन संस्कार के पश्चात् आरम्भ हो जानी चाहिए।
  3. आरम्भिक शिक्षा माता-पिता द्वारा दी जानी चाहिए।
  4. दया, अहिंसा आदि गुणों का शिक्षण हो।
  5. आठ वर्ष के बाद बालक को गुरुकुल में भेज देना चाहिए।
  6. शिक्षा जीवन के व्यावहारिक पहलू की भी पूर्ति करने वाली होनी चाहिए।

स्वामी दयानन्द के अनुसार- “शिक्षा के बिना मनुष्य केवल नाम मात्र का मनुष्य है। शिक्षा प्राप्त करना, सद्गुणी बनना, ईर्ष्या मुक्त होना और धार्मिकता का उत्थान करते हुए व्यक्तियों के कल्याण का उपदेश देना मनुष्य का परम धर्म है।”

3. शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)

स्वामी दयानन्द के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्न प्रकार होने चाहिएँ-

1. वैदिक धर्म तथा संस्कृति का उत्थान- स्वामी जी ने यह अनुभव किया कि अंग्रेजी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रभाव से हमारी सभ्यता तथा संस्कृति का पतन हो रहा है। उन्होंने इसीलिए आदि धर्म, वैदिक धर्म तथा संस्कृति को शिक्षा का उद्देश्य निर्धारित किया।

2. शारीरिक विकास- स्वामी जी शरीर को धर्म का साधन मानते थे। उन्होंने शारीरिक विकास पर बल दिया। ब्रह्मचर्य पालन करने की व्यवस्था की। उन्होंने कहा है- “यदि ब्रह्मचर्य का अच्छी प्रकार पालन किया जाए तो इससे शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का बल बढ़ता है।”

3. मानसिक विकास- स्वामी जी मानसिक विकास पर भी बल देते थे। उनके अनुसार चालक की मानसिक शक्तियों के विकास का उत्तरदायित्व आठवें वर्ष में विद्यालय पर आ जाता है

4. नैतिक विकास तथा चरित्र निर्माण- स्वामी जी मानव के नैतिक विकास में विशेष श्रद्धा रखते थे। चरित्र पर जोर देते थे। उन्होंने कहा भी है—“हमारा उद्देश्य केवल यह है कि मानव जाति प्रगति करे और फले-फूले। मनुष्य इस बात का ज्ञान प्राप्त करें कि सत्य क्या है और असत्य क्या है ? वे असत्य का त्याग करें और सत्य को स्वीकार करें।”

4. पाठ्यक्रम (Curriculum)

गुरुकुल प्रणाली का पाठ्यक्रम निम्न प्रकार है-

  1. पाणिनीकृत व्याकरण, शुद्ध उच्चारण।
  2. सूत्र, धातु, उष्णादिगण, उपनिषद् महाभाष्य ।
  3. यास्कमुनि कृत निषटु (दिकवै शब्द कोष), निरुकृशास्त्र ।
  4. पिंगलाचार्य कृत छन्दो-ग्रन्थ ।
  5. मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, विदुर नीति, महाभारत के विशिष्ट पर्व।
  6. पूर्व मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य, वेदान्त ।
  7. ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपकर चारों ब्राह्मण
  8. आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद और शिल्प वेद ।
  9. ज्योतिष, बीजगणित, भूगोल एवं भू-गर्भ विद्या
5. शिक्षण विधि (Teaching Method)

स्वामी दयानन्द ने स्मरण प्रणाली पर जोर दिया। शिक्षण विधि में प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद, तर्क आदि को अपनाया।

6. शिक्षक (Teacher)

गुरुकुल-प्रणाली में अध्यापक स्वयं एक आदर्श के रूप में रहता है। उसके आदर्श से सभी छात्र प्रभावित होने चाहिएँ। वह तो एक कुम्हार के सदृश है, जिसका कार्य नई पीढ़ी में मानवोचित गुणों का विकास करना है।

7. विद्यालय (Schools)

स्वामी दयानन्द ने बालक-बालिकाओं के लिए पृथक् आश्रमों की स्थापना पर बल दिया है। वे सह-शिक्षा के पक्ष में नहीं थे।

8. माता-पिता की भूमिका (Role of the Parents)

स्वामी जी ने कहा है-“माता-पिता को बच्चों में आत्म-संयम, विद्या प्रेम और अच्छी संस्कृति की आदत का विकास करना चाहिए। बालकों को कष्टकारी खेलों से, अकारण रोने और हँसने, झगड़े, आनन्द, उदासीनता, किसी वस्तु से आवश्यकता से अधिक लगाव, ईर्ष्या, द्वेष आदि से दूर रखना चाहिए। माता-पिता को यह देखना चाहिए कि उनकी सन्तान में सत्य भाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नता आदि गुणों का विकास हो।”

9. मूल्यांकन (Evaluation)

स्वामी जी का शिक्षा दर्शन वर्तमान के प्रति प्रतिक्रिया पर आधारित है। यद्यपि आर्य समाज ने स्वामी जी के विचारों के आधार पर ट्रस्ट बनाए, गुरुकुलों की स्थापना की, सामान्य शिक्षा के साथ-साथ वहाँ पर वैदिक धर्म की शिक्षा की भी व्यवस्था की गई। इस प्रणाली से एक लाभ तो अवश्य हुआ- देश के कोने-कोने में स्वामी दयानन्द के नाम से शिक्षण संस्थाओं का जाल फैल गया, परन्तु गुरुकुलों के अतिरिक्त उनके शिक्षा दर्शन की वास्तविक पद्धति के दर्शन नहीं होते।

गुरुकुल प्रणाली आज के युग के अनुकूल है या नहीं ? इस पर भी अधिक मतभेद रहा है। जहाँ तक ज्ञान प्राप्त है करने का सम्बन्ध है, उनमें दो राय नहीं हो सकतीं। डॉ० कीर्ति देवी के शब्दों में इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि स्वाजी जी वैदिक शिक्षा पद्धति, शिक्षा प्रसार और जीवनोन्नति के महान् प्रवर्तक एवं मार्गदर्शक थे, जिनके जीवन और आदर्शों से प्रेरणा लेकर शिक्षा और जीवन के क्षेत्रों में क्रान्तिकारी सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं।”

इसमें सन्देह नहीं कि स्वामी दयानन्द ने जन-चेतना का माध्यम शिक्षा को बनाया। आर० एस० मणि के अनुसार वे एक महान् सुधारक, असाधारण धर्मोपदेशक और वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। वे इस समय हमारे देश में प्रचलित विश्वासों और धार्मिक रीति-रिवाजों की विभिन्न विधियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन करना चाहते थे। वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने अनिवार्य रूप से शिक्षा के माध्यम द्वारा समाज सुधार का समर्थन किया। अपने धर्म युद्ध के उत्साह में उन्होंने जन-शिक्षा का समर्थन किया। बिना भेद-भांव के स्त्री और पुरुष दोनों को शिक्षा की बात कही।” अतः उनकी देन भारत के अनुकूल रही है, इसमें सन्देह नहीं।

3. मदन मोहन मालवीय

भारत सदा से ही मनीषियों एवं ऋषियों का देश रहा है। इन मनीषियों ने सामाजिक संकटों से सदा देश का उद्धार किया है। अंग्रेजों की दासता से छुटकारा दिलाने में शिक्षा ही एक मात्र सशक्त साधन है, ऐसी धारणा रखने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय का योगदान सदा स्मरण रहेगा।

जीवन परिचय

मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 को इलाहाबाद में हुआ था। पिता का नाम पंडित ब्रजनाथ व्यास तथा माता का नाम मूना देवी था। मालवा के गौड़ ब्राह्मण मालवीय कहलाये। पिता कर्मकाण्डी पंडित थे। फलतः मालवीय जी पर भी परिवार का घोर सनातनी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। मालवीय जी ने 1884 में बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वकालत भी उत्तीर्ण की। फिर हिन्दुस्तान दैनिक के सम्पादक हो गए। ‘अभ्युदय’ नामक पत्र भी इन्होंने निकाला था। मालवीय जी का हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा पर समान अधिकार था। 1886 में ये काँग्रेस के सम्पर्क में आए। दो बार काँग्रेस के सभापति बने। 1902 में उत्तर प्रदेश की हाउस ऑफ लाईस (विधान परिषद्) के सदस्य बने। 1910 में वे केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्य चुने गए तथा 1920 तक सदस्य बने रहे। 1919 में रौलेट एक्ट का विरोध किया। 1924 में पुनः केन्द्रीय परिषद् के सदस्य बने। 1927 में राष्ट्रीय दल की केन्द्रीय विधान सभा में स्वतन्त्र काँग्रेसी के रूप में चुने गए। 1931 में लन्दन में दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने गए। 1934 में उन्होंने आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग की। हिन्दी के वे प्रबल समर्थक थे। उन्होंने 4 फरवरी, 1918 को काशी विश्वविद्यालय की स्थापना की। 12 फरवरी, 1946 को मालवीय जी का निधन हुआ।

शिक्षा सम्बन्धी विचार

मदन मोहन मालवीय जी शिक्षा को जीवन परिवर्तन का सशक्त साधन मानते थे। वे औपचारिक शिक्षा को ही वास्तविक शिक्षा मानते थे। मालवीय जी के अनुसार- “शिक्षा का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसमें बालक या व्यक्ति के सर्वोन्मुखी विकास को दृष्टि में रखते हुए उसमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं धार्मिक संस्कारों का विकास किया जाता हैं

इस मत के अनुसार मालवीय जी ने शिक्षा के विभिन्न प्रकारों पर इस प्रकार विचार व्यक्त किए हैं-

1. विज्ञान तथा कौशल की शिक्षा- मालवीय जी विचारों में सनातनी होते हुए भी व्यवहार में प्रगतिवादी थे। उन्होंने वैज्ञानिक प्रगति को देखते हुए चिकित्सा, शरीर शास्त्र, स्वास्थ्य विज्ञान, ज्योतिष, भौतिकी, रसायन, गणित आदि वैज्ञानिक विषयों के शिक्षण की आवश्यकता अनुभव की। बेकारी को दूर करने तथा देश की भौतिक प्रगति के लिए औद्योगिक शिक्षा पर भी बल दिया।

2. कृषि विद्या- मालवीय जी की धारणा थी कि कृषि प्रधान भारत देश की वास्तविक प्रगति कृषि की शिक्षा के अभाव में नहीं हो सकती। कृषि विज्ञान को उन्होंने इसीलिए प्राथमिकता दी ।

3. प्राच्य विद्या- मालवीय जी सनातनी थे। वे वेद, वेदांग, भारतीय प्राचीन साहित्य के महत्व को समझते थे। इसीलिए संस्कृत के शिक्षण पर उन्होंने विशेष बल दिया।

4. ललित कला- मालवीय जी भारतीय ललित कलाओं के संरक्षण में विश्वास करते थे। इसीलिए उन्होंने संगीत, कला एवं साहित्य के शिक्षण पर विशेष बल दिया।

5. चरित्र-निर्माण– महामना मालवीय जी की धारणा थी कि चरित्र ही मनुष्य के विकास का मूल मन्त्र है। इसलिए शिक्षा का ध्येय चरित्र-निर्माण है। चरित्र-निर्माण ही सर्वांगीण विकास का मूल है।

6. प्राथमिक शिक्षा- मालवीय जी प्राथमिक स्तर की शिक्षा को मानव विकास की नींव का पत्थर मानते थे। 1904 में उन्होंने प्राथमिक शिक्षा की एक योजना तैयार की, जिसका सीधा सम्बन्ध विश्वविद्यालय एवं माध्यमिक शिक्षा से था।

शिक्षा के उद्देश्य

मालवीय जी शिक्षा को मानव विकास का साधन मानते थे। इसीलिए उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार निर्धारित किए-

  1. धार्मिक तथा आध्यात्मिक विकास ।
  2. जीविकोपार्जन का उद्देश्य ।
  3. आनन्द प्राप्ति का उद्देश्य।
  4. मोक्ष प्राप्ति का उद्देश्य ।

मालवीय जी भारतीय चिन्तक थे। भारतीय धर्म तथा दर्शन में उनकी अगाध श्रद्धा थी। अतः उन्होंने मोक्ष को शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य बताया। कर्त्तव्य पालन से ही व्यक्ति में विनय आती है।

शिक्षा पाठ्यक्रम

मालवीय जी ने शिक्षा को व्यावहारिक धरातल पर देखा और पाठ्यक्रम में व्यावहारिक विषयों को रखा। वे व्यापक शैक्षिक पाठ्यक्रम में विश्वास करते थे और पूरब-पश्चिम के समन्वय में विश्वास करते थे। उन्होंने शिक्षा-पाठ्यक्रम में इन विषयों का समावेश किया। वैदिक आयुर्वेदिक विज्ञान, कौशल, कृषि, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, रसायन, भौतिकी, वनस्पति, चिकित्सा, प्रौद्योगिकी, उद्योग, कृषि, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति, व्यापार, भाषा, कला तथा संगीत को स्थान दिया।

मालवीय जी ने पाठ्यक्रम को भारतीय परिवेश में गठित करने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने पाठ्यक्रम रचना में इन बातों का ध्यान रखा-

  1. पाठ्यक्रम, व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की आवश्यकता संस्कृति तथा जीवन दर्शन पर आधारित होना चाहिए।
  2. शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो।
  3. विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में विशेष कारणों से अंग्रेजी को भी स्वीकार किया।
शिक्षा में योगदान

डॉ० सीताराम जायसवाल के अनुसार- “मालवीय जी का सबसे बड़ा योगदान धर्म, विशेषकर हिन्दू धर्म का पुनर्स्थापन था। भारतवर्ष में हमेशा धर्म की प्रधानता रही है। शिक्षा तथा जीवन के क्षेत्र में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। फलस्वरूप धर्म, जीवन तथा शिक्षा एक प्रकार का व्रत था। शिक्षा की सभी रचना धर्म के आधार पर हुई थी। शिक्षा का पाठ्यक्रम वेद, वेदान्त, स्मृति, पुराण आदि थे और ‘शिक्षा समाज’ धर्मनिष्ठ होते थे। मालवीय जी ने इस परम्परा को फिर संस्थापित करने का प्रयत्न किया और उन्हें इसमें काफी सफलता मिली। “

मालवीय जी का शिक्षा में योगदान इस प्रकार है-

  1. प्राचीन वैदिक शिक्षा का आरम्भ किया।
  2. बिना वर्णभेद के सभी के लिए शिक्षा की व्यवस्था की।
  3. प्राचीन तथा आधुनिक शिक्षा का समन्वय किया ।
  4. हिन्दी की शिक्षा पर बल दिया।
  5. काशी विश्वविद्यालय की स्थापना राष्ट्रीय संस्था के रूप में की।

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Anjali Yadav

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