आधुनिक उदारवाद क्या है? What is modern liberalism?
आधुनिक उदारवाद- 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चिरसम्मत उदारवाद की मान्यताओं में उत्तरोत्तर परिवर्तन के संकेत मिलने लगे थे। इस दौर में-विशेषत: ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में-उदारवाद स्वतंत्रता के नकारात्मक पक्ष से अपना ध्यान हटा कर उसके सकारात्मक पक्ष पर बल देने लगा। दूसरे शब्दों में, उसने व्यक्ति की औपचारिक स्वतंत्रता के साथ-साथ उसकी तात्त्विक स्वतंत्रता को भी अपना लक्ष्य बनाया। जब उदारवाद के साध्यों में यह परिवर्तन आया तब उसके लिए नई विविधियों का आविष्कार हुआ। उसका मूल आदर्श तो वही रहा सर्वतंत्र स्वतंत्र व्यक्ति, परन्तु इस आदर्श का विचारक्षेत्र उसकी सिद्धि के साधन बदल गए। उदारवाद की इस नई व्याख्या को आधुनिक उदारवाद या सकारात्मक उदारवाद की संज्ञा दी जाती है।
आधुनिक उदारवाद के अंतर्गत व्यक्ति के कल्याण को विशेषत: निर्बल और निर्धन व्यक्ति के कल्याण को, उसकी स्वतंत्रता की आवश्यक शर्त माना जाता है। अतः यह सकारात्मक उदारवाद की श्रेणी में आता है। नकारात्मक उदारवाद के विपरीत सकारात्मक उदारवाद यह विश्वास करता है कि व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्धों को नियमित और संतुलन करने के लिए राज्य को सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। आगे चलकर वह कल्याणकारी राज्य की संकल्पना के रूप में विकसित हुआ। इस धारा के प्रमुख प्रतिनिधि जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-73), टी.एच, ग्रीन (1836-82), एल.टी. हॉबहाउस (1864-1929), एच.जे. लास्की (1893-1950) और आर. एम. मैकाइवर (1882-1970) हैं।
जे.एस. मिल के विचार- अंग्रेज दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल पहला ऐसा प्रमुख उदारवादी विचारक था जिसने शुरू में अहस्तक्षेप की नीति और व्यक्तिवाद का समर्थन किया, परन्तु सामाजिक-आर्थिक यथार्थ पर विचार करने के बाद उसने इसमें संशोधन कर दिया। मिल ने राजनीतिक क्षेत्र में सांविधानिक और प्रतिनिधि शासन का समर्थन किया, परन्तु आर्थिक क्षेत्र में उसने कल्याणकारी राज्य के विचार को बढ़ावा दिया।
उपयोगितावाद का संशोधन- मिल ने बेंथम के उपयोगितावाद में संशोधन करते हुए यह तर्क दिया कि भिन्न-भिन्न सुखों में केवल परिणाम का अंतर नहीं होता गुण का अंतर भी होता है। मनुष्य केवल भौतिक सुखों के पीछे नहीं दौड़ता बल्कि उसकी नैतिक, बौद्धिक और कलात्मक अभिरुचियों का विकास भी जरूरी है। ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के मामले में ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ का सूत्र लागू नहीं होता क्योंकि यदि एक व्यक्ति की राय बाकी सारे समाज की राय के अलग हो तो भी समाज को यह अधिकार नहीं कि उसे चुप करा दे।
स्वतंत्रता, सम्पत्ति और विनियमन- ‘आचरण की स्वतंत्रता’ पर विचार करते हुए मिल ने आत्मपरक और अन्यपरक गतिविधियों में अंतर किया है। ‘आत्मपरक गतिविधियों का सम्बन्ध अपने आप से होता है और उनसे दूसरों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अत: राज्य को इनके मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। परन्तु ‘अन्यपरक’ गतिविधियों का नियमन करे। मिल का यह विचार उदारवाद की परम्परा में नए मोड़ का प्रतीक है क्योंकि इसमें पूर्ण अहस्तक्षेप की नीति को तिलांजलि दे दी गई थी।
‘मिल ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘ प्रिंसिपल्स ऑफ पोलिटिकल इकॉनॉमी’ (राज्य अर्थव्यवस्था के सिद्धान्त) के नए संस्करणा में सम्पत्ति के अधिकार को सीमित करने की वकालत की। उसने भूसंपत्ति के अधिकार पर विशेष रूप से प्रहार किया क्योंकि भूमि को किसी मनुष्य ने नहीं बनाया और पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत भूस्वामी के किसी विशेष प्रयत्न के बिना उसकी आय दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है। मिल ने तर्क दिया कि इस अतिरिक्त आय पर कर लगाकर उसका उपयोग श्रमिकों के कल्याण के लिए करना चाहिए क्योंकि उन्हीं के कठिन परिश्रम के कारण भूस्वामियों की आय में विशाल वृद्धि होती हैं।
टी.एच. ग्रीन के विचार- दूसरे अंग्रेज दार्शनिक टी.एच. गीन (1836-82) ने जे. जे. रूसी (1712-78), इमैनुएल कांट (1724-1802) और जी.डब्ल्यू.एफ. हेगेल (1770-1831) जैसे आदर्शवादी विचारकों की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए उदारवाद की परम्परा को ‘कल्याणकारी राज्य’ की दिशा में आगे बढ़ाया।
नैतिक स्वतंत्रता की संकल्पना- ग्रीन ने नैतिक स्वतंत्रता को मनुष्य का उपयुक्त गुण स्वीकार किया। उसने तर्क दिया कि सच्ची स्वतंत्रता अधिकारों की मांग करती है। अधिकार मनुष्यों के नैतिक चरित्र से जन्म लेते है, किसी अनुभवातीत कानून से नहीं। अधिकारों की व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक मनुष्य यह स्वीकार करता है कि उसे और उसके सहचरों को आदर्श उद्देश्यों की साधना का समान अधिकार है। चूंकि मनुष्य नैतिक प्राणी है, इसलिए सब मनुष्यों के आदर्श उद्देश्य एक-जैसे होते हैं। अतः भिन्न-भिन्न मनुष्यों के अधिकारों में कोई द्वंद्व पैदा नहीं होता।
अधिकारों का स्वरूप- ग्रीन ने राज्य और समाज में स्पष्ट अंतर करते हुए लिखा है कि अधिकार राज्य या कानून की मान्यता पर आश्रित नहीं होते, बल्कि समाज की मान्यता पर आश्रित होते हैं जिसका सही स्त्रोत समुदाय की नैतिक चेतना है। यह नैतिक चेतना ही राज्य की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है। अतः राज्य आदर्श उद्देश्यों की सिद्धि का साधन है, स्वयं आदर्श उद्देश्य नहीं है जैसे कि आदर्शवादियों ने दावा किया है। राज्य अधिकारों को मान्यता देता है, उनका सृजन नहीं करता। राज्य के सकारात्मक कानून को नैतिक चेतना की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार किया जा सकता है। राज्य का वास्तविक कार्य उन बाधाओं को दूर करना है जो आदर्श उद्देश्यों की सिद्धि के दौरान लोगों के रास्ते में आती है।
संपत्ति का विनियमन- अधिकारों के समर्थक के नाते ग्रीन ने सम्पत्ति के अधिकार का भी समर्थन किया है क्योंकि सम्पत्ति सामाजिक हित को बढ़ावा दे सकती है। मनुष्य की स्वतंत्रता भी यह मांग करती है कि मनुष्य को भौतिक वस्तुएँ अर्जित करने का अधिकार होना चाहिए। परन्तु सम्पत्ति की विषमता ग्रीन को दुविधा में डाल देती है। जब सम्पत्ति का अधिकार में ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर देता है कि कुछ लोगों को उसका बहुत बड़ा हिस्सा मिल जाता है और दूसरों के लिए नैतिक स्वतंत्रता के प्रयोग में बाधा उपस्थित हो जाती है तब सम्पत्ति के अधिकार का नियमन जरूरी हो जाता है। ग्रीन ने विशेष रूप से भूमि के स्वामित्त्व को ऐसी स्थिति के लिए दोषी ठहराया है।
एल.टी. हॉबहाउस के विचार- सकारात्मक उदारवाद की अगली महत्वपूर्ण कड़ी अंग्रेज विचारक एल.टी हॉबहाउस के चिंतन में देखने को मिलती है। वस्तुत: हॉबहाउस ने उदारवाद और समाजवाद के उस संयोग को बढ़ावा दिया जिसके आरम्भिक संकेत मिल के चिंतन में मिलते हैं। पुराने उदारवाद की मांग यह थी कि जहाँ तक हो सके, राज्य के कार्य क्षेत्र को सीमित कर दिया जाए। परंतु हॉबहारूस ने अनुभव किया कि अब यह स्थिति बदल चुकी है। राजनीति का लोकतंत्रीय आधार ही राज्य के कार्य-क्षेत्र का विस्तार चाहता है। अत: आज के युग में राज्य के नए कर्तव्यों का बोध जाग रहा है। उदारवाद इनकी अपेक्षा नहीं कर सकता। परन्तु उदारवाद की इस नई व्याख्या पर बल देने के लिए पुराने उदारवाद का विशेषतः आर्थिक उदारवाद का खंडन आवश्यक था जिसकी सैद्धान्तिक त्रुटियों को मिल ने पहचाना था, और ग्रीन ने उनका पर्दाफाश किया था। हॉबहाउस तथा अन्य सकारात्मक उदारवादियों ने इस नकारात्मक दृष्टिकोण का खंडन किया कि ‘स्वतंत्रता’ का अर्थ ‘प्रतिबंध का अभाव’ है। उन्होंने आर्थिक जीवन के सन्दर्भ में राज्य की नकारात्मक भूमिका को अस्वीकार किया जो ‘ अहस्तक्षेप’ के सिद्धान्त से प्रेरित थी। इसके विपरीत उन्होंने 20वीं शताब्दी के इंग्लैंड के मार्गदर्शन के लिए अपनी कृति ‘एलीमेंट्स ऑफ सोशल जस्टिस’ में स्वतंत्रता की सकारात्मक संकल्पना प्रस्तुत की।
इस प्रकार आधुनिक उदारवाद ने व्यक्ति और समूहों की स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिए राज्य की सकारात्मक भूमिका को स्वीकार किया।
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